पुष्परंजन जनसत्ता 31 मई, 2012:
इसे ‘केला गणतंत्र’ कहें तो कई लोगों को आपत्ति हो सकती है। लेकिन दिशाहीन राजनीति और डोलती अर्थव्यवस्था के लिए ‘बनाना रिपब्लिक’ जैसे शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी लेखक ओ हेनरी ने 1904 में अपनी पुस्तक ‘कैबेज एंड किंग्स’ में किया था। ओ हेनरी 1896-97 में बैंक घोटाले के एक मामले में अमेरिका से गायब हो गए थे, और होंडुरास में शरण ली थी। उस दौरान मध्य अमेरिकी देश होंडुरास की राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि पर हेनरी ने लघु कथाएं लिखी थीं। होंडुरास ही नहीं, मध्य अमेरिका के चार और देशों- ग्वाटेमाला, कोस्टारिका, पनामा और निकरागुआ- की राजनीति का रिमोट कंट्रोल भी ‘यूनाइटेड फ्रूट कंपनी’ के हाथों में था।
‘यूनाइटेड फ्रूट कंपनी’ बनाने की पहल अमेरिकी केला व्यापारी माइनर सी केंथ और ‘बोस्टन फ्रूट कंपनी’ के मालिक एंड्रयू प्रेस्टन ने 1899 में की थी। ‘यूनाइटेड फ्रूट कंपनी’ बनाने से पहले मध्य अमेरिका और दक्षिण अमेरिका में कैरेबियाई सागर से लगे कोलंबिया और उससे सटे इक्वाडोर तक पर इन दोनों अमेरिकी व्यापारियों ने ट्रांसपोर्ट व्यवसाय और केले की खेती पर अपना एकाधिकार जमा लिया था। उस दौर के एक सौ बारह साल गुजर गए। होंडुरास और दूसरे मध्य अमेरिकी देशों में खास बदलाव नहीं हो पाया है, बल्कि दुनिया के कई देश इसी राह पर हैं।
पिछले साल दिसंबर में बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में ‘बनाना वार, हू इज द विनर’ पर जब बहस हुई, तब पता चला कि यूरोप और अमेरिका के फल और सब्जी व्यापार पर श्वेतों द्वारा संचालित दक्षिण, मध्य अमेरिका और अफ्रीका की कंपनियां अब भी काबिज हैं। यूरोप-अमेरिका में केला कंपनियां राजनीतिक दबाव समूह की शक्ल में हैं। इस समूह ने अपनी ताकत का विस्तार किया, और अब भारत भी इसकी परिधि में है। संयुक्तराष्ट्र की संस्था ‘फाओस्टाट’ के अनुसार, 2009 में पूरी दुनिया में 9 करोड़ 73 लाख मीट्रिक टन केले की पैदावार हुई थी। उस साल भारत 2 करोड़ 60 लाख मीट्रिक टन केले की पैदावार कर विश्व भर में कीर्तिमान स्थापित कर चुका है। दुनिया भर में केले की जितनी खेती होती है, उसकी 28 प्रतिशत पैदावार भारत में होती है। उसके बाद 9.3 प्रतिशत फिलीपींस में, चीन में 9.2 प्रतिशत, इक्वाडोर में 7.8 प्रतिशत और ब्राजील में 7 प्रतिशत केले की खेती होती है। कोलंबिया, कोस्टारिका, होंडुरास, ग्वाटेमाला का नंबर इन देशों के बाद है। अमेरिका में भले ही एक प्रतिशत केले की खेती होती है, पर इस व्यापार में पहले नंबर पर अमेरिकी और दूसरे नंबर पर यूरोपीय निवेशकों का दबदबा है।
भारत की राजनीति में केले की भूमिका है? यह बहस का विषय हो सकता है, और नहीं भी। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने देश में दस वर्षों में केले की कीमत में अस्सी फीसद की बढ़ोतरी हुई है। दस साल पहले दिल्ली जैसे महानगर में दस रुपए दर्जन वाला अच्छी किस्म का केला आज की तारीख में अस्सी रुपए दर्जन मिल रहा है। बड़े स्टोर और मॉल में पूरे ताम-झाम के साथ ‘इंपोर्टेड केले’ का स्टिकर लगा यह फल गरीबों की रसोई से गायब है, और संपन्न लोगों की डायनिंग टेबल की शोभा बढ़ा रहा है। महानगरों की तो छोड़िए, गांव-कस्बों में भी केले की कीमत आम आदमी की औकात से बाहर हो गई है।
केले और दूसरे फल-सब्जियों पर बिचौलियों का कब्जा है। बिचौलिये चाहें तो आलू सस्ता मिलेगा, वरना गेहंू की तरह गोदामों में ही सड़ जाएगा। केले के अलावा बहुत-से फल, सब्जियां, दुग्ध उत्पाद और अन्न की किस्में हैं, जिनकी पैदावार में हर साल बढ़ोतरी हुई है। लेकिन बाजार में ये कम दाम पर उपलब्ध नहीं हैं। क्यों? इसका जवाब न तो यूपीए-2 सरकार के पास है, न ही महंगाई को मुख्य मुद्दा नहीं बनाने वाले विपक्ष के पास। हम पेट्रोल पर सबसिडी समाप्त किए जाने के सवाल पर ही क्यों रोएं, क्या अन्न, फल, सब्जियों के दलाल तक नियंत्रण से मुक्त नहीं हैं? होंडुरास में एक सौ बारह साल पहले यही हालत थी। ओ हेनरी की पुस्तक ‘कैबेज एंड किंग्स’ पढ़िए तो लगेगा जैसे तब के होंडुरास की नहीं, बल्कि आज के हिंदुस्तान की चर्चा हो रही है। उस दौर में कागजी मुद्रा (पेपर मनी) का इतना अवमूल्यन हो चुका था कि लोग झोली में नोट भर कर ले जाते, और बाजार से मुट्ठी भर खाने की वस्तुएं लाते थे। होंडुरास में किसानों की जमीन निजी कंपनियां हथियाए जा रही थीं। इन निजी कंपनियों का मन इतना बढ़ चुका था कि सरकारी भूमि तक को हाथ लगाने में उन्हें कोई डर नहीं लगता था। घूसखोरी, सरकारी धांधली, घोटाला, गबन चरम पर था। मंत्री से लेकर संतरी तक घूस लेना अपना मौलिक अधिकार समझते थे। बजट घाटे को आम करदाता की जेब से जबर्दस्ती भरा जाता था। तब नाम के लिए होंडुरास में लोकतांत्रिक सरकार थी, पर लोगों ने इसे चोरों की सरकार (क्लिप्टोक्रेसी) कहना आरंभ कर दिया था।
केला कभी राजनीति का भट्ठा बैठा सकता है, यह कोई सोच भी नहीं सकता। केले को 1870 में यूरोप के बाजार में उतारने का श्रेय टेलीग्राफ नामक जहाज के कैप्टन लोरेंजो डी बेकर को जाता है। इससे पहले प्रयोग के लिए लोरेंजो ने 1868 में जमैका से केला खरीदा और अमेरिका के बोस्टन शहर में एक हजार प्रतिशत के मुनाफे पर बेचा था।
देखते-देखते केले के धंधे में यूनाइटेड फ्रूट कंपनी और बोस्टन फ्रूट कंपनी उतरीं और मध्य अमेरिका के कई देशों के शासन में दखल देने लगीं। 1950-55 के दस्तावेज बताते हैं कि यूनाइटेड फ्रूट कंपनी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन और आइजनहावर तक के कान फूंकती थी कि ग्वाटेमाला, होंडुरास और कोस्टारिका जैसे देशों में किसकी सत्ता बनाए रखनी है और किसकी बदलनी है।
अंदरखाने क्या ऐसी ही स्थिति भारत में नहीं है? देश के वित्तमंत्री और यूपीए-2 सरकार के जिम्मेदार लोगों के बयानों से यही लगता है कि इस देश को कंपनियां चला रही हैं। अगर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी कहते हैं कि पेट्रोल की कीमत से हमारा कोई लेना-देना नहीं रह गया है, तो देश का आम आदमी फालतू में सड़कों पर सरकार के विरुद्ध ऊर्जा बरबाद कर रहा है। इसके लिए सीधा उन तेल कंपनियों को घेरना चाहिए, जिनके अधिकारी दाम तय कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि पेट्रोल के बढेÞ दाम से पल्ला झाड़ने वाले प्रणब मुखर्जी अब राज्यों से क्यों कह रहे हैं किवे करों में कटौती करें?
दूसरी ओर जयराम रमेश जैसे जिम्मेदार मंत्री कह रहे हैं कि केरोसिन, डीजल और गैस पर से सबसिडी समाप्त हो। संसद के पिछले सत्र में शरद यादव भी बोल पड़े थे कि डीजल पर से सबसिडी हटे। ये नेता संसद में कभी यह नहीं कहते कि हमारी सुविधाएं कम की जाएं।
हमारे नीति निर्माताओं को पता होना चाहिए कि सबसिडी कोई खैरात नहीं है। इसके लिए देश के करोड़ों करदाता पैसे देते हैं। प्रश्न यह है कि क्या करदाताओं का पैसा सबसिडी में नहीं लगना चाहिए? सरकार को क्या सिर्फ कर वसूलने और कर थोपने का अधिकार है?
2007 से अब तक राष्ट्र्रपति प्रतिभा पाटील ने बारह बार विदेश यात्राएं अपने परिवार के साथ की हैं। उन पर 205 करोड़ खर्च हो गया। लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार तीन वर्षों में उनतीस बार विदेश यात्रा कर चुकी हैं, दस करोड़ वहां भी बह गया। बात शीर्ष नेताओं तक सीमित नहीं है। मंत्रियों, सांसदों और अधिकारियों ने भी अरबों रुपए विदेश यात्राओं पर बहाए हैं। क्या यह इस देश के करदाताओं के खून-पसीने की कमाई का दुरुपयोग नहीं है? यह कैसा देश है, जहां गांव के गरीब को बाईस रुपए साठ पैसे और शहरी गरीब को बत्तीस रुपए पैंतीस पैसे में रोज गुजारा करने को विवश किया जाता है?
सरकार में जो बड़े-बडेÞ अर्थशास्त्री बैठे हैं, उन्हें भी पता है कि पिछले साल सितंबर से रुपए को ग्रहण क्यों लगा। मुख्य कारण यूरोप और अमेरिका की वे कंपनियां हैं जिनका निवेश भारत में है, जिन्होंने आर्थिक अस्थिरता के कारण बड़ी मात्रा में अपनी पूंजी डॉलर और सोना खरीदने में लगा दी। रुपए के अवमूल्यन का दूसरा कारण, केंद्र और राज्य सरकारों का दस फीसद घाटा है। यह देख कर निवेशकों ने स्थानीय परियोजनाओं से हाथ खींचने आरंभ किए। सबसे बड़ी बात यह कि वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले दिनों खर्च में कमी करने का जो नारा दिया था, उसे सरकार और अधिकारियों ने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। सरकार के पास अब भी 291.80 अरब डॉलर का भंडार है। सरकार चाहे तो तैंतीस महीनों तक बिना मुनाफा लिए डॉलर तेल कंपनियों को उधार दे सकती है। लेकिन जब भारतीय रिजर्व बैंक को डॉलर बेच कर मुनाफा कमाना है, तो फिर रुपए के अवमूल्यन को लेकर हाय-हाय क्यों हो रही है?
भ्रष्टाचार ने देश का जो बेड़ा गर्क किया, उससे पेट्रोलियम क्षेत्र भी अछूता नहीं है। आज भी छोटे कस्बों में पेट्रोल पंप खोलने या गैस वितरण का लाइसेंस लेने के लिए चार-पांच करोड़ की घूस देना मामूली बात हो गई है। यह बात समझ से परे है कि मात्र दो प्रतिशत कमीशन के लिए एक पेट्रोल पंप वाला इतने पापड़ क्यों बेलता है? गांव की गली से लेकर दिल्ली तक, लोग वाकिफ हैं कि जो पेट्रोल वे खरीदते हैं उसमें मिलावट होती है, और माप के अनुसार पूरा मिलता भी नहीं। पेट्रोलियम विभाग के जो अधिकारी जांच के लिएआते हैं, उनकी जेब गर्म करने की रिवायत जारी है।
कहने के लिए केरोसिन गरीब का र्इंधन है। शुरू से देखें तो गरीब के इस र्इंधन की कीमत 350 प्रतिशत बढ़ाई गई है। 14 रुपए 32 पैसे लीटर के भाव सबसिडी वाला केरोसिन पाने के लिए कितनी थुक्का-फजीहत होती है, यह किसी बीपीएल कार्डधारी से पूछें। खुले बाजार में यही केरोसिन पैंतालीस से पचास रुपए प्रति लीटर है, जो देश की ज्यादातर जनता इस्तेमाल करती है। सच यह है कि राशन का पचास से सत्तर प्रतिशत केरोसिन मिलावट के काम आता है। ऐसा नहीं कि पेट्रोलियम की कीमत सिर्फ यूपीए सरकार बढ़ाती रही है।
छह साल अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार रही थी, तब तैंतीस दफा तेल के दाम बढ़े थे। लेकिन वे इतनी धीमी गति से बढेÞ कि जनता को जेब ढीली होने का अहसास नहीं हुआ। लेकिन जेब ढीली होने और कटने में क्या फर्क होता है, यह अब फल-सब्जी से लेकर पेट्रोल तक खरीदने से पता चलता है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें अभी और बढेंÞगी। सरकार ने पेट्रोल पर साढेÞ सात रुपए प्रति लीटर बढ़ा कर जनता की बर्दाश्त करने की क्षमता को नापा है। सोचिए कि क्या सचमुच अपना देश ‘बनाना रिपब्लिक’ की दिशा में बढ़ चला है
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