अनुवाद

गुरुवार, 11 जून 2020

ब्रिटिश शासन में भी न्यायालयों में होता था क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग, अब क्यों नहीं हो सकता ?


·          आशीष राय
जिसके लिए यह न्याय प्रणाली काम करती है, उसे ही न्याय न समझ में आए तो यह तो बहुत बड़ा अन्याय है। वर्तमान परिदृश्य में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस देश की न्याय प्रणाली में न्याय की भाषा ऐसी क्यों नहीं होनी चाहिए कि जो आमजन को समझ में आए?
देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबडे ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि न्यायालय में 80 प्रतिशत पक्षकार अंग्रेजी नहीं जानते हैं। फिर आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी है जो न्याय प्रणाली को मातृभाषा में नहीं होने देना चाहती। सामान्यतः यह बात अंग्रेजी के समर्थकों द्वारा बार-बार उठाई जाती है कि हिंदी के शब्द बहुत ही कठिन हैं और न्यायालयों में इनके प्रयोग में कठिनाई आती है। गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन में भी न्यायालयों में क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता रहा है, कठिनाई पर आंदोलन भी होते रहे हैं। महामना मालवीय जी के प्रयासों से न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग की अनुमति गवर्नर मैकडोनेल ने खुद दी थी।  
जब अंग्रेजी भाषा का प्रयोग न्यायालयों में शुरू हुआ था, तो कितने लोगों को अंग्रेजी आती थी? लोगों ने आवश्यकतानुसार इसे सीखा। कालांतर में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व ने हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव और प्रवाह रोकने की कोशिश की। कुछ मुट्ठी भर लोगों ने हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को कमतर करने का प्रयास शुरू कर दिया। आप प्राय: देखते होंगे कि साइकिल, ट्रेन, टाई इत्यादि की हिंदी एक षड्यंत्र के तहत आपको कितनी कठिन शब्दावली में बताई जाती है। उनके षड्यंत्र का शिकार होकर लोग चटखारे लेकर इन सब चीजों को वायरल भी करते रहते हैं।
कठिन न्यायिक शब्दों की आड़ लेकर सदैव यह लोग बताने का प्रयत्न करते हैं कि वर्तमान में ज्यादातर विधि महाविद्यालयों में अंग्रेजी में पढ़ाई होती है और उनको हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कार्य करने में कठिनाई होगी। लेकिन वह भूल जाते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित लोग आज उच्चतम न्यायालय में भी अपनी सेवा दे रहे हैं। शोध बताते हैं कि भाषा का ज्ञान बहुत ही अल्प समय में प्राप्त किया जा सकता है लेकिन अपनी मातृभाषा में हुई शिक्षा आपको विद्वान बनाती है।
सर्वविदित है कि हिंदी के कई शब्दों को ऑक्सफोर्ड शब्दकोष ने भी अपनाया है। हम भी उदार मन से कुछ शब्दों को अपनी भाषा में शामिल तो कर ही सकते हैं। न्यायालयों में भी क्षेत्रीय भाषाओं के कठिन शब्दों को हम आसान शब्दों से परिवर्तित भी कर सकते हैं, इसमें कोई कानूनी अड़चन भी नहीं है परंतु षड्यंत्र के अंतर्गत सदैव इसमें उलझाने का प्रयास किया जाता रहा है। आज की आवश्यकता यही है कि सबको मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि सामान्य शब्दों का भी न्यायिक प्रक्रिया में प्रयोग बढ़े। कठिन शब्दों के प्रयोग की कोई आवश्यकता भी नहीं है। 

अंग्रेजी को लूट की भाषा बनाया गया है
न्यायिक प्रक्रिया अधिवक्ता और न्यायाधीशों के लिए नहीं बल्कि आम जनता के लिए है, ये तो निमित्त मात्र हैं। जिसके लिए यह न्याय प्रणाली काम करती है, उसे ही न्याय न समझ में आए तो यह तो बहुत बड़ा अन्याय है। वर्तमान परिदृश्य में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस देश की न्याय प्रणाली में न्याय की भाषा ऐसी क्यों नहीं होनी चाहिए कि जो आमजन को समझ में आए? कुछ अधिवक्ता साथियों और आमजन का यह भी मानना है कि न्यायिक व्यवस्था में अंग्रेजी को लूट के माध्यम रूप में भी प्रयोग किया जाता है। हिंदी या मातृभाषा का प्रयोग इसलिए भी नहीं किया जा रहा है कि पक्षकार को यह समझ में आ सकता है कि न्यायिक अधिकारी और अधिवक्ता आपस में क्या बातचीत कर रहे हैं। उनको अपनी साख गिरने का भी डर लगा रहता है। डॉक्टर जब दवा लिखता है तो उसकी पर्ची पर लिखी हुई दवा केवल मेडिकल वाला ही क्यों पढ़ पाता है? सामान्य जन क्यों नहीं पढ़ पाता क्योंकि डॉक्टर को डर लगा रहता है कि अगर पढ़ लिया तो अगली बार स्वयं न आकर खुद से दवाई उपयोग करने लगे। इस प्रकार के डर ने भी अंग्रेजी को लूट की भाषा बना रखा है। 
आज सामान्य उपभोग की वस्तुओं पर भी क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बहुत ही कम हो रहा है। आखिर क्यों? कौन-सी ऐसी मजबूरी है जो ऐसा करने से रोकती है! जबकि उपभोक्ता कानून में स्पष्ट है कि उपभोक्ता को जानने का अधिकार है कि वह जिन चीजों का उपभोग कर रहा है, उसे पता चल सके कि वह चीज है क्या? फिर न्याय के पक्षकारों, जिन्होंने न्यायालय और अधिवक्ता को फीस दी है, उन्हें यह जानने का कानूनी अधिकार क्यों नहीं है कि उसके मुकदमे में चरणबद्ध क्या-क्या हुआ? आज समय की मांग है कि वर्तमान न्याय प्रणाली में न्याय होता दिखना भी चाहिए। न्यायालय में क्या हो रहा है, निर्णय किस आधार पर हो रहा है, उसके मुकदमे किस आधार पर जीते गए, किस आधार पर वह हारा, पक्षकार को यह जानने का पूरा अधिकार है। यह मौलिक अधिकार भी है।
जब देश स्वतंत्र हो गया, अपना तथाकथित तंत्र स्थापित हो गया, फिर स्व के तंत्र में भी फिरंगी भाषा का प्रयोग बढ़ता रहेगा तो निश्चित रूप से इसको परतंत्रता की ही श्रेणी में ही रखेंगे। अगर देश स्वतंत्र है, स्व-तंत्र अपना है तो स्व-भाषा भी अपनी होनी ही चाहिए। भारतीय भाषा अभियान को कोटिश: साधुवाद कि उसने इस विषय की गंभीरता को समझा और देश के समक्ष इस विषय को लेकर गया। आज भारतीय भाषा अभियान के प्रयासों से हाल ही में हरियाणा राज्य ने अपने राज्य के सभी जिला न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग की अनिवार्यता की है। वर्तमान न्याय व्यवस्था को देखते हुए यह भी आवश्यक प्रतीत होता है कि नए भारत की परिकल्पना में न्याय सुधार एक महत्वपूर्ण विषय होना चाहिए। स्वतंत्रता पश्चात तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए न्याय व्यवस्था की उच्चतम इकाई, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी में कार्य शुरू किया गया था लेकिन आज आवश्यकता है कि इसमें बदलाव किया जाए। यथार्थ यही है कि जब देश के उच्च न्यायालयों में और उच्चतम न्यायालय में भारतीय भाषाओं में कार्य होना शुरू होंगे तो विधि महाविद्यालय भी क्षेत्रीय भाषाओं में अध्यापन कार्य को बढ़ाएंगे। अब भाषा को रोजगार से भी जोड़ने की आवश्यकता है और देश की सरकार को इस दिशा में पहल कर निर्णय लेने की आवश्यकता है।
-आशीष राय
(लेखक उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता हैं)

बुधवार, 10 जून 2020

उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा के निचले न्यायालयों में हिन्दी को आधिकारिक भाषा बनाने के विरुद्ध याचिका की निरस्त


*9 जून 2020*.
उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा के निचले न्यायालयों और राज्य के सभी अधिकरणों में कामकाज की आधिकारिक भाषा हिन्दी लागू करने के राज्य सरकार के निर्णय में हस्तक्षेप करने से सोमवार को इनकार कर दिया।
हरियाणा में निचले न्यायालयों और अधिकरणों में कामकाज की आधिकारिक भाषा हिन्दी बनाने संबंधी हरियाणा राजभाषा (संशोधन)अधिनियम, 2020 की वैधानिकता को कुछ वकीलों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।
मुख्य न्यायमूर्ति एस.ए. बोबड़े, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय की पीठ ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं से प्रश्न किया कि इस विधान में क्या गलत है क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत वादकारी अंग्रेजी नहीं समझते हैं। पीठ ने इस तरह का विधान बनाने को उचित बताते हुए कहा कि हिन्दी को कुछ राज्यों में निचले न्यायालयों में कामकाज की भाषा बनाने में कुछ भी गलत नहीं है। ब्रिटिश राज में भी साक्ष्य दर्ज करने का काम क्षेत्रीय भाषाओं में ही होता था।
याचिकाकर्ता समीर जैन का कहना था कि वह न्यायालय की कार्यवाही हिन्दी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा में किए जाने के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन चूंकि वह दिल्ली-एनसीआर के हैं, इसलिए हरियाणा के न्यायालयों में वकीलों के लिए हिन्दी में बहस करना कठिन होगा। उन्होंने कहा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भी अपने मुकदमों की बहस हिन्दी में करना कठिन होगा।
इस पर न्यायालय ने कहा कि इस विधान के तहत अंग्रेजी को अलग नहीं किया गया है और न्यायालय की अनुमति से इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय शुरू में इस मसले पर नोटिस जारी करना चाहती थी, लेकिन राज्य के अतिरिक्त महाधिवक्ता अरुण भारद्वाज ने कहा कि राज्य में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 272 और दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 137 (2) के तहत प्रदत्त अधिकार के अंतर्गत ही यह विधान लागू किया गया है।
उन्होंने कहा कि राज्य को न्यायालय की कार्यवाही में पारदर्शिता लाने और यह वादकारियों की समझ में आने के लिए इस तरह का विधान बनाने का अधिकार है। न्यायालय ने कहा कि इस संशोधन की धारा 3ए में कुछ भी गलत नहीं है और इससे किसी भी मौलिक अधिकार का हनन नहीं होता है।
मुख्य न्यायमूर्ति ने कहा कि मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों में न्यायालय की कार्यवाही हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में हो रही है। इस पर याचिकाकर्ताओं ने याचिका वापस लेने और राहत के लिए पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय जाने की छूट देने का पीठ से अनुरोध किया।
समीर जैन सहित पांच वकीलों ने राज्य के उस विधान को चुनौती दी थी जिसमें दीवानी और फौजदारी न्यायालयों, राजस्व न्यायालयों और किराया अधिकरणों तथा राज्य के दूसरे अधिकरणों की कार्यवाही हिन्दी भाषा में करने का प्रावधान किया गया है। इन वकीलों की दलील थी कि हरियाणा राजभाषा संशोधन अधिनियम, 2020 असंवैधानिक है और राज्य में निचले न्यायालयों में कामकाज की भाषा के रूप में हिन्दी को मनमाने तरीके से थोपा जा रहा है।