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आशीष
राय
जिसके लिए यह न्याय प्रणाली काम करती है, उसे ही न्याय न समझ
में आए तो यह तो बहुत बड़ा अन्याय है। वर्तमान परिदृश्य में महत्वपूर्ण प्रश्न यह
है कि इस देश की न्याय प्रणाली में न्याय की भाषा ऐसी क्यों नहीं होनी चाहिए कि जो
आमजन को समझ में आए?
देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति
शरद अरविंद बोबडे ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि न्यायालय
में 80 प्रतिशत
पक्षकार अंग्रेजी नहीं जानते हैं। फिर आखिर ऐसी कौन-सी मजबूरी है जो न्याय प्रणाली
को मातृभाषा में नहीं होने देना चाहती। सामान्यतः यह बात अंग्रेजी के समर्थकों
द्वारा बार-बार उठाई जाती है कि हिंदी के शब्द बहुत ही कठिन हैं और न्यायालयों में
इनके प्रयोग में कठिनाई आती है। गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन में भी न्यायालयों में
क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता रहा है, कठिनाई पर आंदोलन
भी होते रहे हैं। महामना मालवीय जी के प्रयासों से न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग
की अनुमति गवर्नर मैकडोनेल ने खुद दी थी।
जब अंग्रेजी भाषा का प्रयोग न्यायालयों
में शुरू हुआ था, तो कितने लोगों को अंग्रेजी आती थी? लोगों
ने आवश्यकतानुसार इसे सीखा। कालांतर में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व ने हिंदी या
अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव और प्रवाह रोकने की कोशिश की। कुछ मुट्ठी भर
लोगों ने हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को कमतर करने का प्रयास शुरू कर दिया। आप
प्राय: देखते होंगे कि साइकिल, ट्रेन, टाई
इत्यादि की हिंदी एक षड्यंत्र के तहत आपको कितनी कठिन शब्दावली में बताई जाती है।
उनके षड्यंत्र का शिकार होकर लोग चटखारे लेकर इन सब चीजों को वायरल भी करते रहते
हैं।
कठिन न्यायिक शब्दों की आड़ लेकर सदैव
यह लोग बताने का प्रयत्न करते हैं कि वर्तमान में ज्यादातर विधि महाविद्यालयों में
अंग्रेजी में पढ़ाई होती है और उनको हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कार्य
करने में कठिनाई होगी। लेकिन वह भूल जाते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित लोग
आज उच्चतम न्यायालय में भी अपनी सेवा दे रहे हैं। शोध बताते हैं कि भाषा का ज्ञान
बहुत ही अल्प समय में प्राप्त किया जा सकता है लेकिन अपनी मातृभाषा में हुई शिक्षा
आपको विद्वान बनाती है।
सर्वविदित है कि हिंदी के कई शब्दों को
ऑक्सफोर्ड शब्दकोष ने भी अपनाया है। हम भी उदार मन से कुछ शब्दों को अपनी भाषा में
शामिल तो कर ही सकते हैं। न्यायालयों में भी क्षेत्रीय भाषाओं के कठिन शब्दों को
हम आसान शब्दों से परिवर्तित भी कर सकते हैं, इसमें कोई कानूनी अड़चन भी नहीं है
परंतु षड्यंत्र के अंतर्गत सदैव इसमें उलझाने का प्रयास किया जाता रहा है। आज की
आवश्यकता यही है कि सबको मिलकर यह प्रयास करना चाहिए कि सामान्य शब्दों का भी
न्यायिक प्रक्रिया में प्रयोग बढ़े। कठिन शब्दों के प्रयोग की कोई आवश्यकता भी
नहीं है।
अंग्रेजी को लूट की भाषा बनाया गया है
न्यायिक प्रक्रिया अधिवक्ता और
न्यायाधीशों के लिए नहीं बल्कि आम जनता के लिए है, ये तो निमित्त मात्र हैं। जिसके लिए
यह न्याय प्रणाली काम करती है, उसे ही न्याय न समझ में आए तो
यह तो बहुत बड़ा अन्याय है। वर्तमान परिदृश्य में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इस
देश की न्याय प्रणाली में न्याय की भाषा ऐसी क्यों नहीं होनी चाहिए कि जो आमजन को
समझ में आए? कुछ अधिवक्ता साथियों और आमजन का यह भी मानना है
कि न्यायिक व्यवस्था में अंग्रेजी को लूट के माध्यम रूप में भी प्रयोग किया जाता
है। हिंदी या मातृभाषा का प्रयोग इसलिए भी नहीं किया जा रहा है कि पक्षकार को यह
समझ में आ सकता है कि न्यायिक अधिकारी और अधिवक्ता आपस में क्या बातचीत कर रहे
हैं। उनको अपनी साख गिरने का भी डर लगा रहता है। डॉक्टर जब दवा लिखता है तो उसकी
पर्ची पर लिखी हुई दवा केवल मेडिकल वाला ही क्यों पढ़ पाता है? सामान्य जन क्यों नहीं पढ़ पाता क्योंकि डॉक्टर को डर लगा रहता है कि अगर
पढ़ लिया तो अगली बार स्वयं न आकर खुद से दवाई उपयोग करने लगे। इस प्रकार के डर ने
भी अंग्रेजी को लूट की भाषा बना रखा है।
आज सामान्य उपभोग की वस्तुओं पर भी
क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बहुत ही कम हो रहा है। आखिर क्यों? कौन-सी ऐसी मजबूरी है
जो ऐसा करने से रोकती है! जबकि उपभोक्ता कानून में स्पष्ट है कि उपभोक्ता को जानने
का अधिकार है कि वह जिन चीजों का उपभोग कर रहा है, उसे पता
चल सके कि वह चीज है क्या? फिर न्याय के पक्षकारों, जिन्होंने न्यायालय और अधिवक्ता को फीस दी है, उन्हें
यह जानने का कानूनी अधिकार क्यों नहीं है कि उसके मुकदमे में चरणबद्ध क्या-क्या
हुआ? आज समय की मांग है कि वर्तमान न्याय प्रणाली में न्याय
होता दिखना भी चाहिए। न्यायालय में क्या हो रहा है, निर्णय
किस आधार पर हो रहा है, उसके मुकदमे किस आधार पर जीते गए,
किस आधार पर वह हारा, पक्षकार को यह जानने का
पूरा अधिकार है। यह मौलिक अधिकार भी है।
जब देश स्वतंत्र हो गया, अपना तथाकथित तंत्र
स्थापित हो गया, फिर स्व के तंत्र में भी फिरंगी भाषा का
प्रयोग बढ़ता रहेगा तो निश्चित रूप से इसको परतंत्रता की ही श्रेणी में ही रखेंगे।
अगर देश स्वतंत्र है, स्व-तंत्र अपना है तो स्व-भाषा भी अपनी
होनी ही चाहिए। भारतीय भाषा अभियान को कोटिश: साधुवाद कि उसने इस विषय की गंभीरता
को समझा और देश के समक्ष इस विषय को लेकर गया। आज भारतीय भाषा अभियान के प्रयासों
से हाल ही में हरियाणा राज्य ने अपने राज्य के सभी जिला न्यायालयों में हिंदी के
प्रयोग की अनिवार्यता की है। वर्तमान न्याय व्यवस्था को देखते हुए यह भी आवश्यक
प्रतीत होता है कि नए भारत की परिकल्पना में न्याय सुधार एक महत्वपूर्ण विषय होना
चाहिए। स्वतंत्रता पश्चात तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए न्याय व्यवस्था की
उच्चतम इकाई, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में
अंग्रेजी में कार्य शुरू किया गया था लेकिन आज आवश्यकता है कि इसमें बदलाव किया
जाए। यथार्थ यही है कि जब देश के उच्च न्यायालयों में और उच्चतम न्यायालय में
भारतीय भाषाओं में कार्य होना शुरू होंगे तो विधि महाविद्यालय भी क्षेत्रीय भाषाओं
में अध्यापन कार्य को बढ़ाएंगे। अब भाषा को रोजगार से भी जोड़ने की आवश्यकता है और
देश की सरकार को इस दिशा में पहल कर निर्णय लेने की आवश्यकता है।
-आशीष राय
(लेखक उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता
हैं)