अनुवाद

शनिवार, 20 सितंबर 2014

हिन्दी के भविष्य में आस्था जगाता सम्मेलन: बालेन्दु शर्मा दाधीच

मुम्बई में गत दिनों आयोजित वैश्विक हिन्दी  सम्मेलन के दौरान हिन्दी  भाषा के चहुंमुखी विकास और प्रसार के संदर्भ में गंभीर विचार-विमर्श किया गया। देश विदेश से जुटे विद्वानों,विशेषज्ञों और हिन्दी  प्रेमियों ने हिन्दी  का उज्ज्वल वर्तमान और भविष्य सुनिश्चित करने के लिए कई त्वरित तथा दीर्घकालीन कदम सुझाए। आम सम्मेलनों की तुलना में मुम्बई  सम्मेलन का रुझान सकारात्मक प्रतीत हुआ और दिन भर की मंत्रणा के बाद यह आयोजन हिन्दी  की सामर्थ्य तथा समृद्धि के प्रति आश्वस्ति का उद्घोष करते हुए संपन्न हुआ। दक्षिण अफ्रीका से आए हिन्दी  प्रेमियों की उपस्थिति सम्मेलन के दौरान खास तौर पर आकर्षण का केंद्र थीजो पूरे उत्साह के साथ बड़ी संख्या में शामिल हुए। वैश्विक हिन्दी  सम्मेलन का उद्घाटन गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा ने किया।

उद्घाटन एवं हिन्दी सेवियों का सम्मान:



सम्मेलन के दौरान गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा के हाथों प्रभासाक्षी.कॉम के समूह संपादक बालेन्दु शर्मा दाधीच को 'भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी सम्मानसे अलंकृत किया गया। उनके अतिरिक्त मालती रामबली (दक्षिण अफ्रीका) को वैश्विक हिन्दी सेवा सम्मानप्रवीण जैन को भारतीय भाषा सक्रिय सेवा सम्मान एवं डॉ. सुधाकर मिश्र को आजीवन हिन्दी साहित्य सेवा सम्मान से विभूषित किया गया।

उद्घाटन गोवा की मुख्य सूचना आयुक्त लीना महेंदलेहिन्दी  शिक्षा संघ (दक्षिण अफ्रीका) की अध्यक्ष मालती रामबलीमहाराष्ट्र के अपर पुलिस महानिदेशक एस.पी. गुप्ताबीएसएनएल के मुख्य महाप्रबंधक एम.के. जैनसेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के फील्ड महाप्रबंधक राजकिरण राय और हिंदुस्तानी प्रचार सभा के सचिव फिरोज पैच आदि की मौजूदगी में हुआ। श्रीमती मृदुला सिन्हाजो कि स्वयं भी हिन्दी  की प्रसिद्ध साहित्यकार हैंने रुचिकर अंदाज में कहा कि हिन्दी  की लोकप्रियता का दौर लौट रहा है। भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं है बल्कि हमारे संस्कारों और संस्कृति का भी अभिन्न हिस्सा है।

लीना महेंदले ने कहा कि रोमन पद्धति से हिन्दी  में टाइप करने की तकनीक (ट्रांसलिटरेशन) हिन्दी  भाषा के अनुकूल नहीं है। वह हमारे सोचने-समझने के तरीके को प्रभावित कर रही है। हिन्दी  तथा अन्य भारतीय भाषाओं में काम करने के लिए इनस्क्रिप्ट नामक मानक कीबोर्ड पद्धति का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मालती रामबली ने कहा कि दक्षिण अफ्रीका में कई पीढ़ियों पूर्व पहुँचे परिवार भी हिन्दी  के साथ जुड़े हुए हैं। वे अपनी नई पीढ़ियों को इस भाषा के साथ जोड़ने की निरंतर कोशिश कर रहे हैं जो भारतीय संस्कृति के साथ उनके संपर्क की बेहद मजबूत कड़ी है। उन्होंने कहा कि हिन्दी  का भविष्य उज्ज्वल हैहालाँकि इसे लोकप्रिय बनाने के लिए देश-विदेश में फैले हिन्दी -प्रेमियों को नए जोश के साथ जुट जाने की जरूरत है। वैश्विक हिन्दी  सम्मेलन संस्था के अध्यक्ष डॉ. एम.एल.गुप्ता ने सम्मेलन का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि हिन्दी व भारतीय भाषाओं का प्रयोग व प्रसार बढ़ाने के लिए भाषा-टैक्नोलोजी को अपनाते हुए शिक्षा,साहित्यमीडियामनोरंजनव्यवसाय व उद्योग जगत सहित सभी देशवासियों को साथ आना होगा । सभी के सहयोग से ही हिन्दी  की गाड़ी आगे बढ़ेगी। उन्होंने कहा कि सम्मेलन का उद्देश्य हिन्दी  तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार के कार्य को आगे बढ़ाने के उपायों पर विचार - विमर्श करना है।

पहला सत्र: भाषा प्रौद्योगिकी एवं जन सूचनाएँ:

सम्मेलन के 'भाषा प्रौद्योगिकी' पर आधारित प्रथम सत्र में बालेंदु शर्मा दाधीच ने कहा कि तकनीकी संदर्भों में हिन्दी  प्रयोक्ता लंबे समय तक इसी बात पर आपत्ति प्रकट करता रहा है कि उसके पास इस भाषा के अनुकूल तकनीकी युक्तियाँ और टेक्स्ट इनपुट की सुविधाएँ मौजूद नहीं हैं। अब जबकि यूनिकोड की लोकप्रियता के साथ ही देवनागरी में टेक्स्ट इनपुट की समस्या लगभग समाप्त हो गई हैहमें उस कार्य की ओर बढ़ने की जरूरत हैजिसके लिए हम इन सीमाओं का जिक्र करते रहे हैं। यह कार्य है- हिन्दी में विषय-सामग्री (कंटेंट)तकनीकी सेवाओं,संचार सुविधाओंई-शिक्षाई-प्रशासन आदि से संबंधित कदम उठाने का। उन्होंने एंड्रोइड मोबाइल फोन पर देवनागरी में टाइप करने के लिए उपलब्ध कराई गई सुविधा का मंच पर प्रदर्शन किया और उपस्थित लोगों को उसके प्रयोग का तरीका सिखाया। श्री दाधीच ने कहा कि अब हमारे पास ऐसा कोई बहाना नहीं रह गया है जिसकी आड में हम हिन्दी  में तकनीकी माध्यमों पर काम करने से बचें। देवनागरी में न जाने कितने तरीकों से टाइप करना संभव है तो बोलकर टाइप करनेअपनी हस्तलिपि में लिखी हुई इबारत को कंप्यूटर पाठ में बदलनेछपी हुई किताबों को ओसीआर के माध्यम से टाइप किए गए संपादन-योग्य पाठ में बदलना और विभिन्न भाषाओं के बीच मशीनी अनुवाद संभव हो गया है। ये सभी हिन्दी  में टेक्स्ट इनपुट के तरीके हैं। ऐसे में टाइपिंग की बुनियादी समस्या से आगे बढ़कर काम में जुटने की जरूरत है। हिन्दी  के तकनीकी अभियानों का लक्ष्य महज टाइपिंग तक ही अटक कर नहीं रह जाना चाहिए।

प्रौद्योगिकीविद् नरेन्द्र नायक ने ऐसे कुछ अनुप्रयोगों का प्रदर्शन कियाजिनका विकास अंग्रेजी वेबसाइटों का हिन्दी  इंटरफेस उपलब्ध कराने के लिए किया गया है। हिन्दी सेवी और कम्पनी सचिव प्रवीण जैन ने कहा कि हिन्दी  भाषियों को चाहिए कि न सिर्फ सामान्य जनजीवन में हिन्दी  का प्रचुरता से प्रयोग करें बल्कि प्रशासन के विभिन्न स्तंभों में हिन्दी सामग्री की मांग करें। सूचनाओं को हिन्दी  में मांगें और तब तक चुप न बैठें जब तक कि संबंधित विभाग या संस्थान ऐसा न करे। उन्होंने सम्मेलन में मौजूद लोगों को एक संकल्प भी करवाया कि हम अपने दैनिक जीवन में हिन्दी का प्रधानता से प्रयोग करेंगे। सत्र का संचालन जवाहर कर्नावट ने किया।

दूसरा सत्र शिक्षा व रोजगार में हिन्दी  व अन्य भारतीय भाषाएं:

दूसरे सत्र में शिक्षा व रोजगार में हिन्दी  व अन्य भारतीय भाषाएं पर बाल विश्वविद्यालयगांधी नगर (गुजरात) के कुलपति हर्षद शाह ने कहा कि हिन्दी  देश को जोड़ने वाली भाषा है। इंदौर से आईं पूर्व जिलाधीश विजयलक्ष्मी जैन ने भारतीय भाषाओं की पुनर्स्थापना के लिए राष्ट्र-राज्य एवं जिला स्तर पर ठोस कार्ययोजना का खाका रखा ताकि हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के नाम पर पिछले 67 सालों जारी जुबानी-जमाखर्च बंद हो और सच्चे अर्थों में देश में भारतीय भाषाओं की स्थापना हो सके। उन्होंने कहा कि हिन्दी  को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसी तरह के आंदोलन की जरूरत हैजैसा अन्ना हजारे ने चलाया था। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अतुल कोठारी ने भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार को रोकने हेतु चल रहे कुत्सित षड्यंत्र के प्रति सभी को आगाह किया और कहा कि सभी देशी भाषाएँ सहेलियों जैसी हैं और हिन्दी के दक्षिण में होने वाले राजनैतिक विरोध को रेखांकित किया. उन्होंने ऐसे झूठे विरोध का जमकर खंडन किया और शिक्षा-न्याय एवं शासन प्रशासन में भारतीय भाषाओं के लिए राष्ट्रव्यापी वैचारिक आन्दोलन पर बल दिया।

राजू श्रीवास्तव ने गुदगुदाया 
सम्मेलन के मुख्य समन्वयक संजीव निगम के संचालन में मीडिया व मनोरंजन में हिन्दी  व अन्य भारतीय भाषाएं पर आयोजित तृतीय सत्र में दोपहर का सामना के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल ने कहा कि मीडिया में आज सूचनाअपराध व मनोरंजन का बोलबाला है उसका प्रमुख कारक श्रोता व दर्शक है। उन्होने कहा कि हिन्दी टीवी धारावाहिकों के कारण हिन्दी का विकास काफी हुआ है। हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव ने हलके फुलके अंदाज में लोगों को हिन्दी  का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि हिन्दी को जितना सुगम बनाया जाएगा उतना ही उसका विकास होगा और आम आदमी उसका प्रयोग करना पसंद करेंगे। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा कि इन दिनों मीडिया में जो हिन्दी  छायी हुई है वो अत्यंत प्रभावी तरीके से लोगों को प्रभावित कर रही है और अपनी ओर खींच रही है। मीडिया और मनोरंजन की वजह इस हिन्दी का स्वरूप अब पूरी तरह से वैश्विक हो गया है।

अफ्रीकी भाषा प्रेमियों ने प्रेरित किया:
विश्व में हिन्दी का प्रयोग व प्रसार पर आयोजित चतुर्थ सत्र में दक्षिण अफ्रीका के हिन्दी शिक्षा संघ की अध्यक्षा मालती रामबलीउपाध्यक्ष प्रो. उषा शुक्लासमन्वयक डॉ. वीना लक्ष्मण तथा एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय की पूर्व निदेशक व साहित्यकार डॉ. माधुरी छेड़ा ने अपने विचार रखे। सत्र का संचालन करते हुए “प्रवासी संसार” पत्रिका के संपादक राकेश पांडे ने कहा कि विदेशों में हिन्दी  का प्रचार-प्रसार बड़ी तेजी से हो रहा है। इस संदर्भ में हमें दो बातों का ध्यान रखना होगा-पहला हिन्दी  का विकास कैसे हो और दूसरा विकास की हिन्दी  कैसी हो। 

र्चा के मंच पर भारतीय रिजर्व बैंक के महाप्रबंधक (राजभाषा) डॉ. रमाकांत गुप्ताहिन्दी  शिक्षण मंडल के अध्यक्ष डॉ. एस.पी. दुबे भी उपस्थित थे। इस अवसर पर अतुल अग्रवाल लिखित पुस्तक “बैल का दूध” तथा महावीर प्रसाद शर्मा द्वारा संपादित मासिक पत्रिका “मानव निर्माण” का विमोचन किया गया। साथ हीसंस्थाओं तथा कार्यालयों की गृह पत्रिकाओं की ई-प्रदर्शनी भी प्रस्तुत की गई।

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

मुम्बई में संपन्न हुआ वैश्विक हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी सेवी हुए राज्यपाल के द्वारा पुरस्कृत

मुम्बई, १० सितम्बर २०१४. 
देश भर में सितम्बर आते आते हिन्दी के नाम पर तमाम सारे आयोजन किये जाते हैं, इनमें सबसे अग्रणी भूमिका सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों और सरकारी विभागों की रहती है. ये संगठन पूरा  साल तो अंग्रेजी में सोचने, समझने और कामकाज करने में  निकाल देते हैं,  बस  हिन्दी दिवस पर , जो कि संयोग से पितृपक्ष में में ही आता है, समारोह करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. लेकिन आज विले पार्ले स्थित सेण्ट्रल बैंक के प्रांगण में वैश्विक हिन्दी सम्मलेन का आयोजन किया गया वह कई मायने में भिन्न था. यह कार्यक्रम विदेश के लोगों को भाषा के सेतु से जोड़ने की कोशिश थी, साथ ही एक सार्थक पहल भी थी कि हिन्दी भाषा को कैसे आगे बढ़ाया जाए?
सम्मेलन का प्रमुख उद्बोधन हिन्दी की जानीमानी  साहित्यकार श्रीमती मृदुला सिन्हा ने किया, जिन्हे हाल ही में गोवा की राज्यपाल बनाया गया है. उन्होंने कहा कि  अपनी भाषा दिलों को जोड़ती है इसके उन्होंने अपने विदेश प्रवास के कई वाकये सुनाये, जब केवल अपनी भाषा बोलने मात्र से अजनबी लोग अपने जैसे हो गए. उन्होंने यह भी कहा कि अगर सब लोग मिल कर प्रयास करें तो  भाषा को वो सम्मान मिल सकेगा जिसकी वह अधिकारी है.
इस अवसर पर गोवा की मुख्य सूचना आयुक्त श्रीमती लीना मेहंदळे ने भी कई पते की बातें कहीं।  उनका कहना था कि जब तक हम “राम” को लिखने से पहले अंग्रेजी के आरएएम की जगह मन में “र आ म” नहीं सोचेंगे तब तक हिन्दी के माध्यम से सोचने की प्रवृति नहीं विकसित हो सकेगी. उनका यह भी कहना था कि राजभाषा विभाग एवं इसके कामकाज से जुड़े लोग गैरहिन्दी भाषी प्रदेशों में स्थानीय भाषाओं के साथ पुल का काम नहीं करेंगे तब तक हिन्दी  को वह स्वीकार्यता नहीं मिलेगी, जिसकी वह अधिकारिणी है. उन्होंने कहा कि संगणक पर हिन्दी टंकण हेतु इन्स्क्रिप्ट प्रणाली सीखना वर्तमान समय में अपरिहार्य हो गया, इसके लिए व्यापक जन अभियान चलाया जाना चाहिए.

सम्मेलन में सबसे भावनात्मक और प्रभावशाली वक्तव्य सुश्री मालती रामबली का रहा जो हिन्दी शिक्षण की मशाल दक्षिण अफ्रीका में जलाये हुए हैं. मालती और उनका दक्षिण अफ्रीका से आया हुआ दल सम्मेलन के सहभागियों के लिए प्रेरणास्रोत रहा.   

सम्मेलन के अवसर पर माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला, हर्षद शाह,  कुलपति, बाल विश्वविद्यालय (राजकोट), प्रेम शुक्ल, संपादक  दोपहर का  सामना, हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव, माधुरी छेड़ा, पूर्व निदेशक, एसएनडीटी विश्विद्यालय, एसपी गुप्ता, अतिरिक्त पुलिस आयुक्त,  रमाकांत  गुप्ता, महाप्रबन्धक, भारतीय रिजर्व बैंक, डॉ. एस. पी. दुबे, मुंबई विश्विद्यालय, जयन्ती बेन  मेहता, पूर्व केंद्रीय मंत्री, वी. सी. गुप्ता, महामना मदन मोहन मालवीय मिशन, शंकर केजरीवाल, अध्यक्ष-परोपकार, अतुल कोठारी, राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास एवं शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति, ब्र. विजयलक्ष्मी जैन, भूतपूर्व डिप्टी कलेक्टर, प्रवीण जैन, कम्पनी सचिव एवं युवा हिन्दी सेवी, राजू ठक्कर, पीआईएल कार्यकर्त्ता, बालेन्दु दाधीच, प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ,  प्रदीप गुप्ता, सोशल मीडिया विशेषज्ञविनोद टिबड़ेवाल, शिक्षा एक्टिविस्ट, सुश्री शक्ति मुंशी, जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र, मो. आफताब आलम, पत्रकारिता कोष, कृष्णमोहन मिश्रचंद्रकांत जोशी, जीटीवी, संजीव निगम, हिंदुस्तानी प्रचार सभा, नन्द किशोर नौटियाल, वरिष्ष्ठ पत्रकार, संजय  वर्मा, संगीत विशेषज्ञ, बी. एन. श्रीवास्तव, सकाल मीडिया, संगीता कारिया, टेरो रीडर जैसे हिन्दी अनुरागी इस सम्मेलन मौजूद थे. सुबह १० बजे से सायं ६ बजे तक चले इस सम्मेलन में तकनीक, प्रचार, प्रसार, वैश्वीकरण आदि से जुड़े मुद्दों पर जम कर संवाद-परिसंवाद हुआ जिसने श्रोताओं को पूरे समय बांधे रखा.


इंदौर से पधारीं ब्र. विजयलक्ष्मी जैन ने भारतीय भाषाओं की पुनर्स्थापना के लिए राष्ट्र-राज्य एवं जिला स्तर पर ठोस कार्ययोजना का खाका रखा ताकि हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के नाम पर पिछले ६७ सालों जारी जुबानी-जमाखर्च बंद हो और सच्चे अर्थों में देश में भारतीय भाषाओं की स्थापना हो सके. शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के अतुल कोठारी ने भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार को रोकने हेतु चल रहे कुत्सित षड्यंत्र के प्रति सभी को आगाह किया और कहा कि सभी देशी भाषाएँ सहेलियों जैसी हैं और हिन्दी के दक्षिण में होने वाले राजनैतिक विरोध को रेखांकित किया. उन्होंने ऐसे झूठे विरोध का जमकर खंडन किया और शिक्षा-न्याय एवं शासन प्रशासन में भारतीय भाषाओं के लिए राष्ट्रव्यापी वैचारिक आन्दोलन पर बल दिया.

सम्मेलन में राज्यपाल महोदया श्रीमती मृदुला सिन्हा ने श्रीमती मालती रामबली (दक्षिण अफ्रीका) को वैश्विक हिन्दी सेवा सम्मान, बालेन्दु शर्मा दाधीच को भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी सम्मान, सीएस प्रवीण जैन को भारतीय भाषा सक्रिय सेवा सम्मान एवं डॉ. सुधाकर मिश्र को आजीवन हिन्दी साहित्य सेवा सम्मान से विभूषित किया गया. सभी पुरस्कार प्राप्तकर्त्ताओं को दुशाला-श्रीफल, प्रशस्ति-पत्र, शील्ड एवं नगद राशि प्रदान की गई.

इस अवसर पर कवि अतुल अग्रवाल, जो नई मुंबई के जाने माने भवन निर्माता हैंकी पुस्तक बैल का दूध का विमोचन भी हुआ. साथ ही ‘मानव निर्माण’ नामक मासिक पत्रिका का भी विमोचन हुआ.




सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. एम. एल. गुप्ता ने अपने उद्बोधन में हिन्दी भाषा को ऊंचाई पर ले जाने का आह्वान किया.

रिपोर्ट: प्रदीप गुप्ता  

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

भारत में देसी भाषाओं की नहीं कोई इज्ज़त

गणपत तेली
जनसत्ता 1 सितंबर, 2014: भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा और दोयम दर्जे के व्यवहार का मुद्दा कुछ समय से बराबर उठता रहा है। संघ लोक सेवा आयोग की प्रशासनिक सेवाओं के अतिरिक्त भी अधिकतर प्रतियोगी परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं की स्थिति ऐसी ही है। प्रश्नपत्रों पर यह स्पष्ट लिखा रहता है कि प्रश्नों के पाठ में भिन्नता होने पर अंग्रेजी  वाला पाठ मान्य होगा और कई प्रश्नपत्रों में तो यह भी लिखा नहीं होता है, जबकि अक्सर हिन्दी पाठ अबूझ और कई बार गलत तक होता है। यह बात विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा से लेकर सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं तक में देखी जा सकती है। इन आंदोलनकारियों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने भारतीय भाषाओं की इस उपेक्षा को फिर से बहस में ला दिया।

यह कोई प्रशासनिक सेवाओं का अलग-थलग मसला नहीं है, बल्कि हमारे देश की उस अकादमिक व्यवस्था का एक विस्तार है, जहां भारतीय भाषाओं की इसी तरह की उपेक्षा होती है और जो इन भाषाओं के पठन-पाठन की गतिविधियों और इनके विद्यार्थियों के लिए अकादमिक और पेशेगत अवसरों को सीमित करती है। अगर हम उच्च शिक्षा की स्थिति पर एक नजर डालें तो स्पष्ट हो जाएगा कि सरकारी नीतियां इस असमान व्यवस्था को प्रोत्साहित करती हैं। 

आजादी के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने महसूस किया कि अन्य विकासमूलक मानकों पर विकसित देशों की बराबरी करने में हमें वक्त लगेगा, तकनीक और विज्ञान का क्षेत्र ऐसा है जिसमें और जिसके जरिए हम तत्काल विकसित देशों की पंक्ति में जा खड़े होंगे। फलत: हमारी सरकारें (चाहे किसी भी पार्टी की हों) तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देती हैं, उसके बाद ही सामाजिक विज्ञान के अनुशासनों का स्थान आता है। और अंत में, भाषा और साहित्य जैसे मानविकी के विषय रह जाते हैं। 

अभी हमारे देश में सोलह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (भाप्रौस -आइआइटी) हैं, जिनमें छह-सात काफी प्रतिष्ठित हैं और अन्य अभी आकार ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त तीस राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (राप्रौस -एनआइटी) हैं। विज्ञान-शिक्षा के क्षेत्र में पांच भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (भाविशिअस-आइआइएसइआर) हैं। साथ ही, भारतीय विज्ञान संस्थान बंगलुरु, भारतीय प्रतिरक्षा संस्थान, नई दिल्ली के अलावा भी विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के लिए कई संस्थान और परिषदें हैं। 
समाज विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसी कई संस्थाएं हैं- टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (मुंबई और हैदराबाद), गोखले अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान संस्थान (पुणे), कलिंग सामाजिक विज्ञान संस्थान (भुवनेश्वर), मद्रास विकास अध्ययन संस्थान, विकास अध्ययन संस्थान कोलकाता जैसी कई संस्थाएं हैं। लेकिन भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारतीय भाषा संस्थान मैसूर, केंद्रीय हिन्दी संस्थान, केन्द्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान अथवा सेंट्रल इंस्टीट्यूट आन क्लासिकल तमिल जैसी गिनी-चुनी संस्थाओं के अलावा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय ही हैं। 

इसी तरह उच्च शिक्षा में शोध के लिए वैज्ञानिक एवं औद्योगिक शोध परिषद (वैऔशोप-सीएसआइआर), वैज्ञानिक एवं अभियांत्रिकी शोध परिषद (वैअशोप-एसइआरसी) जैसी संस्थाएं वैज्ञानिक शोध को प्रोत्साहित करती हैं। समाजविज्ञान के क्षेत्र में इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च अकादमिक शोध को बढ़ावा देती है। इसके अलावा समाजविज्ञान के विभिन्न अनुशासनों में भी कई संस्थान हैं। इतिहास के क्षेत्र में ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद और दर्शनशास्त्र के लिए इंडियन काउंसिल फॉर फिलोसोफिकल रिसर्च ऐसी ही परिषदें हैं। इसी तरह नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय आधुनिक भारत के इतिहास से जुड़े विभिन्न प्रसंगों पर शोध को बढ़ावा देता है। 

ये  परिषदें और संस्थाएं न केवल शोध के लिए विभिन्न शोधवृत्तियां देती हैं, बल्कि फील्ड वर्क को भी प्रोत्साहित करती हैं। यही नहीं, ये संस्थाएं संबंधित क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्राय: देश के अलग-अलग हिस्सों में शोध पद्धति की कार्यशालाओं का आयोजन करती हैं, जिनमें युवा संकाय सदस्य और शोधार्थी भाग लेते हैं। उक्त सरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त कई गैर-सरकारी संस्थाएं भी सामाजिक विज्ञान और विज्ञान के क्षेत्रों में कार्यरत हैं। ये सभी अपने-अपने क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने का काम करती हैं। साथ ही साथ, ये अपनी परियोजनाओं और कार्यक्रमों के जरिए रोजगार के अवसर भी मुहैया कराती हैं।
वहीं अगर हम भाषा और साहित्य की तरफ नजर डालें तो भारतीय भाषाओं की साहित्य अकादमियों के अलावा कुछ खास है नहीं। उक्त साहित्य अकादमियां और अन्य निजी न्यास या संस्थान भी साहित्यिक पुरस्कारों पर ज्यादा ध्यान देते हैं, नए शोध के लिए शोधवृत्तियां प्राय: नहीं देते और न ही शोध से संबंधित गतिविधियां आयोजित करते हैं। हालांकि इन अकादमियों और निजी न्यासों का दायरा उच्च शिक्षा नहीं है, फिर भी ये पुरस्कारों की स्थापना के साथ कुछ शोधवृत्तियां स्थापित करेंगे तो उस भाषा और साहित्य का शैक्षणिक विस्तार ही होगा। इसलिए ऐसा किया जाना चाहिए। 

हम इस तरह देखते हैं कि सरकारें भारतीय भाषाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देती हैं। हां, इन भाषाओं के तकनीकी विकास पर अवश्य ध्यान दिया जा रहा है, जिसके तहत प्रगत संगणन विकास केंद्रों (सीडैक), केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में बहुत-सी अकादमिक गतिविधियां चल रही हैं। इस पूरी परिघटना की सबसे बड़ी विडंबना है कि भाषा और साहित्य जैसे मानविकी विषयों को रोजगारमूलक शिक्षा के नाम पर नजरअंदाज किया जा रहा है, जबकि बेरोजगारी तो बढ़ ही रही है। सही है कि रोजगार एक आवश्यक तत्त्व है, लेकिन शिक्षा महज रोजगार के लिए नहीं हो सकती। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को अपने समाज, राजनीति और संस्कृति के यथार्थ से रूबरू कराना भी होता है। 

अपने समाज और परिवेश से विद्यार्थियों को जोड़ने और संपूर्ण शिक्षा देने के इसी उद्देश्य से आइआइटी, एनआइटी जैसी तकनीकी संस्थाओं में सामाजिक विज्ञान और मानविकी विभाग भी स्थापित किए गए। उच्च शिक्षा के लिए बनाई गई यशपाल समिति की रिपोर्ट में भी यह एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश थी। लेकिन यह फलीभूत नहीं हुई, क्योंकि शायद ही किसी संस्थान में हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा को स्थान मिला हो। इन सभी संस्थानों के मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभागों में सामाजिक विज्ञान के कुछ विषय पढ़ाए जाते हैं, जबकि साहित्य और भाषा के नाम पर अंग्रेजी  पढ़ाई जाती है, हिन्दी या अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं। यही स्थिति राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की है। एक-दो अपवाद और हिन्दी दिवस जैसी औपचारिकताओं को छोड़ दें तो भारतीय भाषा संबंधी गतिविधियां प्राय: इन संस्थानों में नहीं होतीं। भारतीय प्रबंधन संस्थान तो इस मामले में और भी पीछे हैं।

यही हाल उन निजी विश्वविद्यालयों का है, जो पिछले कुछ वर्षों में धूमधाम से खुले हैं। अधिकतर निजी विश्वविद्यालय विज्ञान, तकनीक, प्रबंधन आदि अध्ययन के लिए ही हैं, जिनमें भाषा-साहित्य के नाम पर बस अंग्रेजी  है। लेकिन जो निजी विश्वविद्यालय सामाजिक विज्ञान और मानविकी को बराबर स्थान देने का दावा करते हैं, वहां भी प्राय: भारतीय भाषाओं को कोई स्थान नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए, एमिटी विश्वविद्यालय में जर्मन, स्पेनिश, फ्रांसीसी और अंग्रेजी  में स्नातक की पढ़ाई होती है, लेकिन भारतीय भाषाओं में सिर्फ संस्कृत को यह स्थान देता है। जोधपुर नेशनल यूनिवर्सिटी जैसे कुछ ही विश्वविद्यालय भारतीय भाषाओं के पाठ्यक्रम प्रस्तावित करते हैं। 

इन अपवादों को छोड़ दें, तो ऐसे निजी विश्वविद्यालयों की फेहरिस्त लंबी है, जहां भारतीय भाषाओं का अस्तित्व ही नहीं है और उनमें साहित्य के नाम पर अंग्रेजी  साहित्य या कहीं-कहीं तुलनात्मक साहित्य पढ़ाया जाता है। कई सरकारी विश्वविद्यालय भी तुलनात्मक साहित्य के अध्यापकों के लिए योग्यता तुलनात्मक साहित्य या अंग्रेजी  (अन्य किसी भाषा में नहीं) में एमए निर्धारित करते हैं। अंग्रेजी  साहित्य पढ़ाए जाने से कोई समस्या नहीं है, लेकिन भारतीय भाषाओं का साहित्य भी इन्हें अवश्य पढ़ाना चाहिए। अगर अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया जा सकता है, तो हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, बांग्ला, मराठी, असमी, मलयालम, तमिल, तेलुगू, ओड़िया, गुजराती आदि भाषाओं का साहित्य क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता!

निजी विश्वविद्यालय संबंधित राज्य की विधानसभा द्वारा पारित अधिनियम के तहत स्थापित किए जाते हैं और इन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी मान्यता देता है, तो क्यों नहीं इन२के लिए यह आवश्यक किया जाए कि ये कम से कम उस राज्य की भाषा और उसके साहित्य के कुछ पाठ्यक्रम प्रस्तावित करें। यही बात आइआइटी और आइआइएम पर भी लागू होनी चाहिए। कितना अच्छा हो, अगर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थित इन संस्थानों में अलग-अलग भारतीय भाषाएं भी पढ़ाई जाएं। इसके विपरीत वर्तमान व्यवस्था के कारण अधिकतर छात्र-छात्राओं की पढ़ाई की भाषा व्यवहार की भाषा से अलग हो जाती है। जब उनकी ज्ञान की प्रक्रिया से ही इन भाषाओं को काट दिया गया है, तो फिर यह शिकायत कहां से जायज है कि अमुक अनुशासन भारतीय भाषाओं में नहीं पढ़ाए जा सकते! यह एक सर्वविदित तथ्य है कि हमारे देश में प्राय: उच्च शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं नहीं हैं। कुछ राज्यों के विश्वविद्यायलों में अवश्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पठन-पाठन होता है, लेकिन इसके लिए उन्हें दोयम दर्जे की पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर रहना पड़ता है। फलस्वरूप, अक्सर वे उस विषय में पारंगत होने और आगे की पढ़ाई से वंचित हो जाते हैं। इसके अलावा भारतीय भाषाओं के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की विशेष वित्तीय सहायता से संचालित कार्यक्रम या पुस्तकालय भी प्राय: नहीं दिखाई देते। 

अब जरा उस शिकायत पर भी नजर डालते हैं, जो भारतीय भाषाओं, खासकर हिन्दी के लेखक-प्रकाशक करते हैं कि साहित्य को पाठक नहीं मिल रहे हैं। मिलेंगे कहां से, जब संभावित पाठकों की पूरी पीढ़ी को ही व्यवस्थित तरीके से उसके साहित्य, भाषा और समाज से दूर कर दिया जाता है। यह स्थिति अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिन्दी में ज्यादा विकट है।


यह मुद्दा चाहे सीधे रूप से प्रतियोगी परीक्षाओं से न जुड़ता हो, इससे अलहदा नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक परिदृश्य से संबद्ध है, जहां भारतीय भाषाएं उपेक्षित हैं और जहां यह माना जाता है कि वे अंग्रेजी  से पिछड़ी हुई हैं, ज्ञान का माध्यम नहीं बन सकती हैं और संवाद-कौशल या व्यक्तित्व-विकास का पर्याय तो अंग्रेजी  ही है। एक बार यह मान लेने के बाद अकादमिक संसाधनों का असमान वितरण आम स्वीकृति पा जाता है, जो भारतीय भाषाओं को और हाशिये पर धकेल देता है। इसलिए इन भाषाओं के इस मसले को समग्रता में देखा जाना चाहिए

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भारत में सभी भर्ती परीक्षाएँ भारतीय भाषाओं में करवाई जाएँ

नौकरी की भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी का वर्चस्व मिटाने के जुनून के साथ काम कर रहे मुकेश जैन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (भाप्रौस) अथवा आईआईटी रूड़की से धातु कर्म अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) में स्नातक हैं। बचपन में तीसरी कक्षा में अंग्रेजी के प्रति प्रेम उमड़ने के बाद जैन को सातवीं कक्षा तक आते-आते स्वत: ही हिन्दी के प्रति अगाध लगाव हो गया। 

और लगाव भी ऎसा हुआ कि उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी को उसकी गरिमा वापस लौटाने के लिए कमरकस प्रयास शुरू कर दिए। मुकेश जैन देश के ऎसे पहले विद्यार्थी हैं जिन्होंने अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग)  स्नातक की परीक्षा हिन्दी में पास की। आज वे राष्ट्रीय स्तर पर अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच बनाकर भारतीय भाषाओं के पक्ष में आवाज बुलन्द कर रहे हैं। 


1962 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर (शामली) में जन्मे जैन को विश्वास है कि भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए तो राष्ट्रभाषा और सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं का गौरव स्वत: लौट आएगा। 


हाल ही में #संलोसेआ की सी-सैट परीक्षा के विरूद्ध आन्दोलन खड़ा करने के जनक के रूप में जैन की पहचान बनी है। प्रस्तुत है, जैन से राष्ट्रभाषा #हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के सम्मान के लिए उनके प्रयासों को लेकर पत्रिका की विशेष बातचीत –


आप में राष्ट्रभाषा #हिन्दी को आगे बढ़ाने का जुनून कब और कैसे आया ?

उत्तर- यह मेरे स्कूल समय की बात है, जब छठी कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी। सातवीं कक्षा में आते ही मेरे मन में राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्मान को लेकर भाव पैदा हुआ जिससे मेरे जीवन में बदलाव आया और अंग्रेजी  भाषा के खिलाफ प्रेरणा जगी। मेरा मानना है कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है। हमें इसका तिरस्कार करना है। यह भाषा देश की उन्नति में सबसे बड़ी बाधक है।  इस कटु सत्य को सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा हूं बल्कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र सरीखे महापुरूषों ने यह बात कही है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा था कि निज भाषा की उन्नति ही सर्व उन्नति की मूल है। वेद वाक्य भी यही कहते हैं। वेद के अनुसार राष्ट्र ऎश्वर्य की प्राप्ति अपनी भाषा के द्वारा ही करता है। 

आपके मंच का उद्देश्य क्या है?

उत्तर- हमारे अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रभाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिलाना है। हमारा मानना है कि भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का विकल्प समाप्त किया जाना चाहिए। जब नौकरी के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और अपनी भाषाओं का प्रचलन बढ़ेगा तो लोग खुद ही राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाएंगे। भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी  की समाप्ति के बाद ही भारतीय भाषाओं का प्रसार सम्भव है इसीलिए हमारा जोर भर्ती परीक्षाओ से अंग्रेजी को समाप्त करने का है।

देश में आखिर अंग्रेजी  का इतना प्रचलन क्यों है और इसका प्रसार-प्रसार क्यों है? या यूं कहें कि हमारी हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएं क्यों पिछड़ रही हैं?
उत्तर- देखिए, अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह रोजगार भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का बोलबाला होना है। लोग चिकित्सा और अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) सरीखे क्षेत्रों में अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हैं। 

यदि भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए तो इसका बोलबाला भी खत्म हो जाएगा। यदि राष्ट्रीय स्तर की नौकरियों की परीक्षा सिर्फ हिन्दी और क्षेत्रीय स्तर की परीक्षा सिर्फ क्षेत्रीय भाषाओं में होने लगे तो अंग्रेजी  का प्रचलन स्वत: कमजोर पड़ जाएगा।


आपको नहीं लगता कि कहीं न कहीं अंग्रेजी के आगे बढ़ने में शासन और सत्ता की भी मजबूरी या कमजोरी है?
उत्तर- हां, यह बात सही है कि भारतीय भाषाओं के पिछड़ने के लिए हमारी शासन व्यवस्था और सरकारें भी जिम्मेदार हैं। लेकिन भारतीय भाषाओं के विकास में सबसे बड़े बाधक सरकारी नौकरशाह हैं। भारतीय भाषाओं के प्रसार और संरक्षण के लिए नियम और कानून बने हुए हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है जिसके लिए नौकरशाही ज्यादा जिम्मेदार है। अब यह सब केंद्र सरकार की नाक के नीचे राजधानी दिल्ली मे भी चल रहा है।

संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना संघ का कर्तव्य होगा और अनुच्छेद 344 के अनुसार अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने और अंग्रेजी के प्रयोग पर बंधन लगाने का भी खुला विरोध किया गया है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में 18 जनवरी 1968 को एक संसदीय संकल्प पारित किया गया जिसका पालन करना अनिवार्य है। सरकार की नाक के नीचे ही इस कानून की धज्जियाँ उड़ रही हैं। संसदीय संकल्प का पालन कड़ाई से होना चाहिए। कानूनों का पालन न करना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है जिसके लिए कठोर सजा हो सकती है। शासन को इस बात का अहसास कराने की जरूरत है।


हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए आप सरकार से क्या चाहते हैं?
उत्तर- देखिए, जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने योजना आयोग को खत्म करने की बात की है, उसी तरह से हमारी मांग है कि वर्तमान संलोसेआ को खत्म किया जाए। भर्ती परीक्षा हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाओं में हो। ऎसा अनिवार्य किया जाए। 

अंग्रेजी का विकल्प समाप्त होना चाहिए। केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें। सबको 18 जनवरी 1968 के संसदीय संकल्प का पालन करना चाहिए जो हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देता है। संलोसेआ  की सी-सैट परीक्षा का हमारा विरोध इसी के तहत था हालांकि अभी अल्प सफलता हासिल हुई है। 

पूरा परिणाम आने में समय लगेगा। राज्य सरकारों को भी निर्णय लेना होगा कि वे अंग्रेजी को हतोत्साहित करें और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग पर जोर दें। उच्चतम न्यायालय से भी हमारी मांग है कि वे अपने यहां हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा दें। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने बीते दिनों सरकार को नोटिस भेजा है कि वो अनुच्छेद 348 में बदलाव कर न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करे। हमारी केंद्र और कई राज्य सरकारों से बातचीत लगातार जारी है।

हम चाहते हैं कि भर्तियों में हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के 98 प्रतिशत छात्र आएं। राष्ट्रभाषा और राजभाषा की अनदेखी देश के लिए शर्मनाक है। और जो सरकार इसे सहन कर रही है तो मानिए कि वह राजद्रोह को सहन कर रही है।


क्या हिन्दी को फलने-फूलने से रोकने में बाहरी ताकतों का भी हाथ है?
उत्तर- नि:संदेह। कई विदेशी ताकतें भारत में अंग्रेजी को बढ़ावा देने में सक्रिय हैं। इसे रोकने के लिए समाज और सरकार दोनों को ही मिलकर व्यापक रणनीति बनानी होगी।

आपका आन्दोलन सी-सैट के मामले में थोड़ा उग्र हो गया था क्या आपके आंदोलन की यही तासीर है?
उत्तर- नहीं, हम चाहते हैं कि बातचीत से आगे बढ़ें और आन्दोलन का हमारा स्वरूप भी ऎसा ही है। मैंने 1979 में अंग्रेजी  विरोधी संस्था बनाई। 1980 में आईआईटी रूड़की में दाखिला लेने के बाद 1982 मे उसका नाम बदलकर अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच बनाया जिसकी व्यापकता को पूरे राष्ट्र मे पहुंचाया। 


यदि हमारा सिद्धान्त उग्र होता तो इतने लम्बे समय तक हम बड़े- बड़े अभियान नहीं चला सकते थे। हमारा लक्ष्य सिर्फ नौकरी की भर्ती परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करना है और हम अपने अभियान को शांति से चला रहे हैं। 


सी-सैट आन्दोलन के समय जरूर मानता हूं कि कुछ असामाजिक तत्व, जो किसी खास राजनीतिक दल से ताल्लुक रखते थे, हमारे आन्दोलन में घुस आए थे।


प्रस्तुति- संजय मिश्र