रोमन में हिन्दी बनाम
हिन्दी पर अंतिम हमला
/‘फायनल असाल्ट ऑन
हिन्दी‘
-प्रभु जोशी
सातवें दाक के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित ल्विन टाॅफलर की पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ के अध्याय ‘बड़े राष्ट्रों के विघटन‘ को पढ़ते हुए किसी को भी कोई कल्पना
तक नहीं थी कि एक दिन रूस में गोर्बाचोव नामक एक करिमाई नेता प्रकट होगा और ‘पेरोस्त्रोइका‘ तथा ‘ग्लासनोस्त‘
जैसी अवधारणा के नाम से ‘अधिरचना‘ के बजाय ‘आधार‘ में परिवर्तन की नीतियां लागू करेगा
और सत्तर वर्षों से महाशक्ति के रूप में खड़े देश के सोलह टुकड़े हो जायेंगे। अलबत्ता राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा उस
अध्याय की व्याख्या ‘बौद्धिक अतिरेक‘
से उपजी भय की ‘स्वैर-कल्पना‘ की तरह की गयी थी। लेकिन लगभग ‘स्वैर-कल्पना‘ सी जान पड़ने वाली वह ‘भविष्योक्ति‘ मात्र दस वर्षों के भीतर ही सत्य
सिद्ध हो गयी। बताया जाता है कि उन ‘क्रांतिकारी‘
अवधारणाओं के जनक अब एक बहुराष्ट्रीय
निगम से सम्बद्ध हैं।
हमारे यहां भी नब्बे के दशक में ‘आधार‘ में परिवर्तन को ‘उदारीकरण‘ जैसे पद के अन्तर्गत ‘अर्थव्यवस्था‘ में उलटफेर करते हुए बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी अपार
पूंजी के प्रवाह के लिए जगह बनाना शुरू कर दी गयी। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी निगमें
और उनकी पूंजी विकसित राष्ट्रों के नव-उपनिवेशवादी मंसूबों को पूरा करने के अपराजेय
और अचूक शक्ति केन्द्र हैं
जिसका सर्वाधिक कारगर हथियार है ‘कल्चरल इकोनाॅमी‘ और जिसके अन्तर्गत वे ‘सूचना‘ ‘संचार‘ ‘फिल्म-संगीत‘ और ‘साहित्य‘
के जरिये ‘अधोरचना‘ में सेंध लगाते हैं। और फिर धीरे-धीरे
उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं। नव उपनिवेश के शिल्पकार कहते हैं ‘नाऊ वी डोण्ट एण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर‘।
पहले वे अफ्रीकी राष्ट्रों में
उनको ‘सभ्य‘ बनाने के उद्घोष के साथ गये और उनकी
तमाम भाषाएँ नष्ट कर दीं। ‘वी आर द नेशन विथ लैंग्विज व्हेयरज
दे आर ट्राइब्स विथ डायलेक्ट्स‘। लेकिन भारत में वे इस बार ‘उदारीकरण‘ के बहाने उसे ‘सम्पन्न‘ बनाने के प्रस्ताव के साथ आये हैं।
उनको पता था कि हजारों वर्षों के ‘व्याकरण-सम्मत‘
आधार पर खड़ी ‘भारतीय भाषाओं‘ को नष्ट करना थोड़ा कठिन है। पिछली
बार
वे अपनी ‘भाषा को भाषा‘ की तरह प्रचारित करके तथा ‘भाषा को शिक्षा-समस्या‘ के आवरण में रखकर भी भारतीय भाषाओं के नष्ट नहीं कर पाये
थे। उल्टे उनका अनुभव रहा कि भारतीयों ने ‘व्याकरण‘
के ज़रिये एक ‘किताबी भाषा‘ अंग्रेजी) सीखी।
ज्ञान अर्जित किया लेकिन उसे अपने जीवन से बाहर ही रख
छोड़ा। उन्होंने देखा
चिकित्सा-शिक्षा का छात्र स्वर्ण-पदक
से उत्तीर्ण होकर श्रेष्ठ ‘शल्य-चिकित्सक‘
बन जाता है लेकिन ‘उनकी‘ भद्र-भाषा उसके जीवन के भीतर नहीं
उतर पाती है। तब यह तय किया गया कि ‘अंग्रेजी‘
भारत में तभी अपना ‘भाषिक साम्राज्य‘ खड़ा कर पायेगी जब वह ‘कल्चर‘ के साथ जायेगी। नतीज़तन अब प्रथमतः सारा जोर केवल ‘भाषा‘ नहीं बल्कि सम्पूर्ण ‘कल्चरल-इकोनामी‘ पर एकाग्र कर दिया गया। इस तरह उन्होंने
भाषा के प्रचार को इस बार
‘लिंग्विसिज्म‘ कहा जिसका
सबसे पहला और अंतिम शिकार भारतीय
‘युवा‘ को बनाया जाना कूटनीतिक रूप से सुनिचित किया गया।
बहरहाल
भारत में अफ्रीकी राष्ट्रों की तर्ज
पर सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के जरिये ‘यूथ-कल्चर‘
का एक आकर्षक राष्ट्रव्यापी ‘मिथ‘ खड़ा किया गया जिसका अभीष्ट युवा पीढ़ी में अंग्रेजी
के प्रति अदम्य उन्माद तथा पश्चिम के ‘सांस्कृतिक उद्योग‘
की फूहड़ता से निकली ‘यूरो-ट्रैा‘ किस्म की रूचि के ‘अमेरिकाना मिक्स‘ से बनने वाली ‘लाइफ स्टाइल‘ (जीवनशैली) को ‘यूथ-कल्चर‘ की तरह ऐसा प्रतिमानीकरण करना कि
वह अपनी ‘देशज भाषा‘ और ‘सामाजिक-परम्परा‘
को निर्ममता से खारिज करने लगे। यहां
पुरानी ‘राॅयल चार्टर‘ वाली सावधानी नहीं थी ‘दे शुड नाॅट रिजेक्ट ‘ब्रिटिश कल्चर‘
इन फेवर आॅफ देअर ट्रेडिशनल वेल्यूज।
‘
खात्मा जरूरी है लेकिन ‘विथ सिम्पैथेटिक प्रिसिशन आॅव देयर कल्चर।‘इट मस्ट बी लाइक अ डिवाइन इन्टरवेशन।
नतीजतन
अब सिद्धान्तिकी ‘डायरेक्ट इनवेजन‘ की है। ‘देयर स्ट्रांग डहरेंस टू मदरटंग्स‘ हेज टु बी रप्चर्ड थ्रू दि प्रोसेस
आॅव ‘क्रियोलाइजेशन‘ (जिसे वे रि-लिंग्विफिकेशन आॅव नेटिव
लैंग्विजेसेस‘ कहते हैं)।
क्रियोलीकरण का अर्थ
सबसे पहले उस देशज भाषा से उसका व्याकरण
छीनो फिर उसमें ‘डिस्लोकेशन आॅव वक्युब्लरि‘ के जरिए उसके ‘मूल‘ शब्दों का ‘वर्चस्ववादी‘
भाषा के शब्दों से विस्थापन इस सीमा
तक करो कि वाक्य में केवल ‘फंकनल वर्डस् (कारक) भर रह जायें। तब भाषा का ये
रूप बनेगा। ‘यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट जो प्रोटेस्ट हुआ उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचुएशन
बन गई (इसे वे फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ कहते हैं)।
उनका कहना है कि भाषा के इस रूप तक पहुंचा देने का अर्थ यह है कि नाऊ द लैंग्विज
इज रेडी फार स्मूथ ट्रांजिशन। ‘बाद इसके अंतिम पायदान है-‘फायनल असाल्ट आॅन लैंग्विज।‘ अर्थात् इस ‘क्रियोल‘ बन चुकी स्थानीय भाषा को रोमन में
लिखने की शुरूआत कर दी जाये। यह भाषा के खात्मे की अंतिम घोषणा होगी और मात्र एक ही
पीढ़ी के भीतर।
बहरहाल
हिन्दी का ‘क्रियोलाइजेशन' (हिंग्लिाशीकरण) हमारे यहां सर्वप्रथम एफ.एम. ब्राॅडकास्ट के जरिये शुरू हुआ और यह फार्मूला तुरन्त देश भर के तमाम हिन्दी के
अखबारों में (जनसत्ता को छोड़कर) सम्पादकों नहीं युवा मालिकों के कठोर निर्देशों पर लागू कर दिया गया। सन् 1998 में मैंने इसके विरूद्ध लिखा ‘भारत में हिन्दी के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका जिस प्रेस ने निभायी
थी आज वही प्रेस उसके विनाश के अभियान
में कमरकस के भिड़ गयी है। जैसे उसने हिन्दी की हत्या की सुपारी ले रखी हो। और इसकी अंतिम परिणति में ‘देवनागरी‘ से ‘रोमन‘ करने का मुद्दा उठाया जायेगा। क्योंकि यह फार्मूला भाषिक उपनिवेावाद (‘लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म) वाली ताकतें अफ्रीकी राष्ट्रों की
भाषाओं के खात्मे में सफलता से आजमा चुकी हैं। आज ‘रोमन लिपि‘
को बहस में लाया जा रहा है। अब बारी
भारतीय भाषाओं की आमतौर पर लेकिन हिन्दी की खासतौर पर है। हिन्दी के क्रियोलीकरण की
निःशुल्क सलाह देने वाले लोगों की तर्कों के तीरों से लैस एक पूरी फौज भारत के भीतर
अलग-अलग मुखौटे लगाये काम कर रही है
जो वल्र्ड बैंक आई.एम.एफ. ब्रिटिश कौंसिल, बी.बी.सी. डब्ल्यू.टी.ओ., फोर्ड फाउण्डेान जैसी संस्थाओं के
हितों के लिए निरापद राजमार्ग बना रही हैं।
नव उपनिवेावादी ताकतें चाहती हैं ‘रोल आॅव गव्हमेण्ट आर्गेनाइजेशस
शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोटिंग डाॅमिनेण्ट लैंग्विज। हमारा ज्ञान आयोग पूरी निर्लज्जता
के साथ उनकी इच्छापूर्ति के लि पूरे देा के प्राथमिक विद्यालयों से ही अंग्रेजी की
पढ़ाई अनिवार्य करना चाहता है। यह भाषा का विखण्डन नहीं बल्कि नहीं संभल सके तो निचय ही यह
क दूरगामी विराट विखण्डन की पूर्व पीठिका होगी। इसे केवल ‘भाषा भर का मामला‘ मान लेने या कहने वाला कोई निपट मूर्ख
व्यक्ति हो सकता है ेतिहासिक-समझ वाला व्यक्ति तो कतई नहीं।
अंत में मुझे नेहरू की याद आती है जिन्होंने जान ग्रालबे्रथ के समक्ष अपने भीतर की पीड़ा और पश्चाताप को प्रकट करते
हुए गहरी ग्लानि के साथ कहा था ‘आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइममिनिस्टर
आॅव इंडिया। निचय ही आने वाला समय उनकी ग्लानि
के विसर्जन का समय होगा। क्योंकि
आने वाले समय में पूरा देश ‘इंगलिश‘ और ‘अमेरिकन‘
होगा। पता नहीं हर जगह सिर्फ अंग्रेजी में उद्बोधन
देने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह प्रसन्नता का कारण होगा या कि नहीं लेकिन निश्चय ही वे दरवाजों को धड़ाधड़
खोलने के उत्साह से भरे पगड़ी में गोर्बाचोव तो नहीं ही होंगे। अंग्रेजी उनका मोह है या विवशता यह वे खुद
ही बता सकते हैं।
यहां संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की स्वयंसिद्ध
श्रेष्ठता के बखान की जरूरत नहीं है। और हिन्दी की लिपि के संदर्भ में फैसला आजादी
के समय हो चुका है। रोमन की तो बात करना ही देश और समाज के साथ धोखा होगा। अब तो बात
रोमन लिपि की वकालत के षड्यंत्र के विरूद्ध घरों से बाहर आकर एकजुट होने की है- वर्ना हम इस लांछन के साथ इस संसार से विदा होंगे कि हमारी भाषा का गला हमारे सामने
ही निर्ममता से घोंटा जा रहा था और हम अपनी अश्लील चुप्पी के आवरण में मुंह छुपाये वह
जघन्य घटना बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप देखते रहे।
(सीमित शब्द संख्या के बंधन के कारण अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों का हिन्दी
रूपांतर नहीं दिया जा रहा है।)
नवलखा इन्दौर (म.प्र.) 452 001
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