अनुवाद

शनिवार, 17 जनवरी 2015

अदालतों से अंग्रेजी कब विदा होगी?

दैनिक भास्कर १७ जनवरी २०१५ :  भारत के उच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाएं आखिर कब चलेंगीउनसे अंग्रेजी कब विदा होगीदेश को आजाद हुए 67 साल से भी ज्यादा हो गए,लेकिन हमारी ऊंची अदालतों में अंग्रेजों की गुलामी ज्यों की त्यों बरकरार है। हमारे सारे कानून और अध्यादेश आदि भी अंग्रेजी में ही बनते हैं। हमारी अदालतों और संसद में गुलामी का यह दौर अभी तक क्यों जारी हैइसलिए जारी है कि संविधान की धारा 348 कहती है कि सर्वोच्च न्यायालय और सभी उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही रहेगी। न तो न्यायाधीश अपने निर्णय हिंदी में या किसी भारतीय भाषा में दे सकेंगे और न ही वकील भारतीय भाषाओं में बहस कर सकेंगे। उन्हें अपना सारा काम-काज अंग्रेजी में करना होगा। यदि कोई जज या वकील किसी भारतीय भाषा का प्रयोग करना चाहे तो उसे अनुमति नहीं मिलेगी। 


भारत की ऊंची अदालतों में भारतीय भाषाओं पर प्रतिबंध है। इससे बढ़कर शर्मनाक बात भारत के लिए क्या हो सकती हैलेकिन हमारे विद्वान जज और वकील इस अपमान को बर्दाश्त करते रहते हैं। उनकी मजबूरी हैक्योंकि उन्होंने कानून की पढ़ाई अंग्रेजी में की है और भारत में वही कानून लागू हैजो अंग्रेजों का बनाया हुआ है। पिछले 67 साल में जो भी नए कानून बने हैं,वे हमने अपनी संसद में जरूर बनाए हैंलेकिन वे भी अंग्रेजी में बनाए हैं। ये कानून बिल्कुल उसी गड्‌डमड्‌ड शैली में लिखे जाते हैंजो अंग्रेजों की औपनिवेशिक शैली थी। अच्छी अंग्रेजी जानने वालों को भी ये कानून पल्ले नहीं पड़ते। खुद जजों और वकीलों को अंग्रेजी इतना छकाती है कि साधारण मुकदमे भी बरसों-बरस अधर में लटके रहते हैं।

अभी तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे अदालतों के सिर पर सवार हैं। जजों और वकीलों का सारा समय अंग्रेजी शब्दों की बाल की खाल उखाड़ने में खर्च हो जाता है। जाॅन स्टुअर्ट मिल ने क्या खूब कहा है, ‘देरी से किया गया न्यायअन्याय है।’ ये कानूनइन पर होने वाली बहस और इन पर दिए जाने वाले फैसले आम आदमी के लिए जादू-टोना बनकर रह जाते हैं। इसी जादू टोने के विरुद्ध एक वकील ने सर्वोच्च न्यायालय में एक यािचका लगा दी। उसने मांग की है कि धारा 348 में संशोधन किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय की आधिकारिक भाषा हिंदी को बनाया जाए और प्रादेशिक उच्च न्यायालयों में हिंदी तथा उनकी अपनी प्रादेशिक भाषाओं के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए। 

यह मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन हैलेकिन हाल ही में एक अजूबा हो गया है। न्यायालय ने भारत सरकार के राजभाषा विभाग से इस मुद्‌दे पर उसकी राय मांगी। राजभाषा विभागजिसका काम राज-काज में हिंदी को बढ़ावा देना हैवह न्यायालय से कहता है कि आप जजों और वकीलों पर उनकी इच्छा के विरुद्ध हिंदी मत थोपिए। ऊंची अदालतों में अंग्रेजी थुपी रहने दीजिए। यहां यह विचार भी मन में आता है कि हमने आजादी की लड़ाई भी क्यों लड़ीजैसे हम पर अंग्रेजी थुपी हुई हैवैसे ही अंग्रेज भी थुपे रहते। सरकार से मैं पूछता हूं कि आपका यह राजभाषा विभाग है या अंग्रेजी की गुलामी का विभाग हैउसने सर्वोच्च न्यायालय को जो राय दी हैउससे उसकी मूढ़ता तो प्रकट होती ही हैवह राय नरेंद्र मोदी की सरकार के माथे पर कलंक का टीका है। मोदी ने हिंदी के प्रयोग पर जोर देकर अब तक जो अपूर्व शाबाशी और लोकप्रियता अर्जित की हैउस पर राजभाषा विभाग ने पानी फेर दिया है। यदि अपने राजभाषा विभाग के विरुद्ध प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तुरंत कोई कार्रवाई नहीं करेंगे तो आम जनता की नज़र में भाजपा सरकार का राष्ट्रवाद फर्जी राष्ट्रवाद की शक्ल धारण कर लेगा। भाजपा के लाखों निष्ठावान कार्यकर्ता और संघ के स्वयंसेवकजो अब तक हिंदी और हिंदुस्तान के नारे पर पलते रहे हैंउनका इस सरकार से मोह-भंग हो जाएगा। माना जाएगा कि मोदी भी भेड़चाल वाले प्रधानमंत्री हैं। जैसे पिछले 67 साल में सभी सरकारें अंग्रेजी की गुलामी करती रहीं और नौकरशाही के आगे नाक रगड़ती रहींवैसा ही यह स्पष्ट बहुमत वाली भाजपा की सरकार भी कर रही है। इसे स्पष्ट बहुमत देकर जनता को क्या हासिल हुआइसका नेतृत्व भी कांग्रेस के नेतृत्व की तरह लूला-लंगड़ा है। सत्ता ने इसके होश गुम कर दिए हैं। यह सरकार भाषा के सवाल पर अपना घोषणा-पत्र ही भूल गई है। आप संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को जरूर बिठाइएलेकिन पहले उसे स्वदेश में अंग्रेजी के बूटों तले रौंदे जाने से बचाइए। 

दुनिया के सभी देशों मेंजो महाशक्ति कहलाते हैंउनकी अदालतों में अपनी भाषा चलती है। सिर्फ भारत जैसे कुछ भूतपूर्व गुलाम देशों में विदेशी भाषा चलती है। यूरोपीय देशों में ज्यों-ज्यों शिक्षा बढ़ीसंपन्नता बढ़ीआधुनिकता बढ़ीस्वाभिमान बढ़ाउन्होंने ग्रीक और लैटिन को त्यागा और पूरी तरह स्वभाषा को अपनाया। फ्रांस ने 1539 में लैटिन को अपने न्यायालयों से बिदा किया। जर्मनी ने 18वीं सदी में लैटिन से पिंड छुड़ाया। इंग्लैंड की अदालतें तो इतनी अधिक जर्मन और फ्रांसीसी भाषाओं की गुलामी में डूबी हुई थीं कि उनमें अगर कोई अंग्रेजी बोल पड़ता था तो उस पर कई पाउंड का जुर्माना ठोक दिया जाता थालेकिन 1362 में अंग्रेजी को ब्रिटेन की अदालतों की आधिकारिक भाषा बनाया गया। इसी प्रकार पिछले लगभग 100 वर्ष से रूसी अदालतों में रूसी भाषा और चीन में चीनी भाषा का प्रयोग होता है। कई यूरोपीय देशों की अदालतों में अंग्रेजी के प्रयोग पर प्रतिबंध है। 

महाशक्तियों की ये ऊंची अदालतें अंग्रेजी या अन्य किसी विदेशी भाषा को इसलिए भी पसंद नहीं करतीं कि उनके प्रयोग से मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है। जिस बहस और फैसले को वादी-प्रतिवादी समझ ही न सकेंवह न्याय नहींअन्याय है। मुट्‌ठीभर लोग उसे समझ पाएंयह न्याय नहींषड्यंत्र है। यह लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। आज न्याय इतना मंहगा क्यों हो गया हैवह आम आदमी की पहुंच के बाहर क्यों हो गया हैइसीलिए कि वह एक विदेशी भाषा में होता है। 

नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवादी सरकार से हमें अपेक्षा है कि वह विधि आयोग के यथास्थितिवादी और थोथे तर्कों को दरकिनार करे और राजभाषा संसदीय सलाहकार समिति की सिफारिशों के मुताबिक संसद के अगले सत्र में अविलंब एक संविधान संशोधन विधेयक लाएजिसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की आधिकारिक भाषा हिंदी घोषित की जाए और समस्त 24 उच्च न्यायालयों को प्रांतीय भाषाओं में काम-काज की सुविधा हो। जिन वकीलों और जजों के लिए अंग्रेजी की मजबूरी हैउन्हें अगले पांच साल तक छूट दी जाए। उसके बाद अंग्रेजी के प्रयोग पर जुर्माना ठोका जाए। यह नियम संसदीय कानून निर्माण पर भी लागू किया जाए। यह जनाभिमुख कार्रवाई सफल होइसके लिए यह भी जरूरी है कि कानून की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में ज़रा जोर-शोर से की जाए। यह न्याय की दिशा में बड़ा कदम होगा।

वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति
परिषद के अध्यक्ष
dr.vaidik@gmail.com

रविवार, 11 जनवरी 2015

भारत का स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय अभी भी अंग्रेजों के अधीन है!

शीर्षक पढ़कर आपको आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि देखा जाए तो भारत आज भी स्वतंत्र नहीं हुआ है, जबकि पूरी भारत सरकार ही अंग्रेजी दासता से ग्रस्त है जिसका नाम है गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया. जिस शासन का नाम भी ६८ वर्षों बाद अंग्रेजी में हो वहाँ आप कैसी स्वतंत्रता की कल्पना करेंगे? १५ अगस्त १९४७ के बाद बस बदलाव इतना आया है कि पहले ब्रिटेन से आए हुए शासक हम पर शासन करते थे और अब भारत में जन्मे अंग्रेज हम पर शासन कर रहे हैं.

पिछले तीन वर्षों से मैं और देश के अनेक भाषा-प्रेमी स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में राजभाषा का प्रयोग ना किए जाने और जनता से  जुड़ी सभी ऑनलाइन सुविधाएँ सिर्फ अंग्रेजी में थोपने की कई बार शिकायतें कर चुके हैं, कई बार आर टी आई आवेदन भी लगा चुके हैं पर क्या करें हम लोगों के सारे प्रयास व्यर्थ जा रहे हैं, हिन्दी के लिए आवाज उठाने वालों की सुनता भी कौन है? 

शायद मंत्रालय में एक भी ऐसा अधिकारी नहीं है जो आम जनता की सुविधा/उनके दुःख-कष्ट समझने को लेकर गंभीर हो, अन्यथा इस मंत्रालय का कामकाज राजभाषा/जनभाषा #हिन्दी में हो रहा होता, ऑनलाइन सेवाएँ हिन्दी/अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में होतीं, मंत्रालय की वेबसाइटों पर हिन्दी में जानकारी, नियम, नीतियाँ, आदेश, अधिनियम आदि उपलब्ध होते, हिन्दी में ऑनलाइन शिकायतें दर्ज करवाने के विकल्प उपलब्ध होते. पर  ऐसा नहीं हुआ. ये अधिकारी अपने अंग्रेजी कामकाज के पीछे एक ही तर्क लेते हैं कि संविधान ने अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया है और भारत की जनता पर विशेष रूप से दक्षिण की जनता पर हिन्दी लागू करने से देश के टुकड़े हो जाएँगे, राजनीतिक अराजकता फ़ैल जाएगी पर वे भूल जाते हैं कि वे देश सत्तानवे प्रतिशत नागरिकों  पर बलात अंग्रेजी थोप रहे हैं! उनके हिसाब से अंग्रेजी में काम करना बहुत आसान है और अंग्रेजी में कामकाज होने से देश के सत्तानवे प्रतिशत लोग कभी समझ ही नहीं पाते कि हो क्या रहा है इसलिए वे इन अधिकारियों के कामकाज पर ऊँगली नहीं उठा पाते हैं, सरकारी अधिकारी ऐसा करके स्वयं का भला करे हैं, यदि यही काम हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में किया गया तो उनको अप्रिय प्रश्नों का सामना करना होगा. दूसरी बात, इन अधिकारियों को आम नागरिकों की सुविधा की तनिक भी चिंता नहीं है इसलिए सारे नियम, अधिनियम, दिशा-निर्देश, नीतियाँ केवल अंग्रेजी में ही तैयार किए जाते हैं और उन्हें अंग्रेजी में ही जनता के सुझावों के लिए जारी कर दिया जाता है. अब जब नीतियाँ-नियम अंग्रेजी में जारी होंगे तो उन पर सुझाव कौन दे सकेगा? अरे भई, वही आदमी दे सकेगा जो अंग्रेजी पढ़ सकता हो, उसे समझ सकता हो और पढ़-समझने के बाद अपना सुझाव अंग्रेजी में लिख सकने की योग्यता रखता हो. मेरे विचार में भारत में अंग्रेजी के ऐसे निष्णात विद्वानों की संख्या २-३ प्रतिशत से अधिक नहीं है. ऐसा सरकारी अधिकारी इसलिए करते हैं ताकि देश की आम जनता किसी भी प्रकार से नीति-नियम के निर्माण में भाग ना ले सके, इस देश में जो अंग्रेजी ना समझ सकता हो वह तीसरे दर्जे का आदमी है, उसकी क्या हैसियत कि वो आईएएस अधिकारियों को अपनी मातृभाषाओं में सुझाव देने की जुर्रत करे?

तो देश में २-३ प्रतिशत लोगों की सुविधा के अनुसार नीतियाँ और कानून बनाए जाते हैं और उन्हें देश के 100% लोगों पर लागू कर दिया जाता है. अभी २-३ दिन पहले स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' का प्रारूपण अपनी वेबसाइट पर अंग्रेजी में डाला है और इस पर ऑनलाइन सुझाव देने की व्यवस्था भी अंग्रेजी में शुरू की है. (लिंक: http://www.mohfw.nic.in/index1.php?lang=1&level=1&sublinkid=4883&lid=3013 ) क्या यही लोकतंत्र है जहाँ राजभाषा का प्रयोग ना किया जाए, जहाँ  नीति निर्माण से  देश की सत्तानवे प्रतिशत जनता हो सिर्फ इसलिए अलग रखा जाए क्योंकि वह जनता अंग्रेजी नहीं जानती है? भारत सरकार का आम जनता से जुड़ा हर कामकाज एक ऐसी भाषा में किया जा रहा है जिसे देश की सत्तानवे प्रतिशत जनता समझ भी नहीं सकती है. 

पिछले तीन वर्षों से मैंने निम्न बिंदु उठाए:
  1. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की मुख्य वेबसाइट पूर्ण रूप से हिन्दी में बनाई जाए.
  2. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की अधीनस्थ सभी वेबसाइटों को हिन्दी में बनाया जाए.
  3. आयुष विभाग की हिन्दी वेबसाइट पर हिन्दी में जानकारी डाली जाए.
  4. 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' का प्रारूपण अविलम्ब हिन्दी में उपलब्ध हो, ऑनलाइन सुझाव की सुविधा हिंदी में शुरू की जाए. आगे हमेशा जनता के सुझाव चाहने वाले सभी मसौदों को हिन्दी में जारी किया जाए.
  5. मंत्रालय की सभी ऑनलाइन सेवाएँ अनिवार्य रूप से द्विभाषी हों.
  6. मंत्रालय द्वारा सभी प्रारूप/मुहरें/पत्रशीर्ष/लिफ़ाफ़े अनिवार्य रूप से द्विभाषी छपाए जाएँ.
  7. मंत्रालय की अधीनस्थ कंपनियों के उत्पादों पर जानकारी हिन्दी में भी छापी जाए.
  8. मंत्रालय द्वारा विज्ञप्तियाँ हिंदी में जारी की जाएँ/आमंत्रण/कार्यक्रमों के बैनर/पोस्टर/नामपट/बैज आदि द्विभाषी छपवाए जाएं. (एक-दो अपवाद छोड़ हमेशा अंग्रेजी में होते हैं)
  9. मंत्रालय एवं अधीनस्थ कार्यालयों के द्वारा जारी होने वाले लाइसेंस/प्रमाण-पत्र/पंजीयन -पत्र आदि अनिवार्य रूप से द्विभाषी जारी किए जाएँ.
  10. भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) की वेबसाइट एवं ऑनलाइन लाइसेंस/पंजीयन सुविधा हिन्दी में शुरू करवाई जाए.

आप देखेंगे कि उक्त दस बिन्दुओं में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा राजभाषा अधिनियम, राजभाषा नियमावली, निर्देश अथवा संसदीय राजभाषा समिति की अनुशंसाओं पर जारी हुए राष्ट्रपति जी के अनेक आदेशों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है. 

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

योजना आयोग का नया नाम: राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान या फिर राष्ट्रीय भारत रूपान्तरण संस्थान

कल १ जनवरी २०१५ को भारत सरकार ने योजना आयोग के स्थान पर एक नए संस्थान का गठन किया है जिसका नाम 'नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रान्सफॉर्मिंग इण्डिया' [National Institution for Transforming India]' रखा गया है।  जिसे नीति आयोग भी कहा जा सकेगा ऐसा समाचार -पत्रों से ज्ञात हुआ। इसी मूल अंग्रेजी नाम में प्रयुक्त अंग्रेजी शब्दों के प्रथमाक्षरों से NITI शब्द लिया गया है, जैसा कि भारत में सर्वव्यापी परंपरा है कि राष्ट्रीय/निजी संस्थानों /व्यापारिक घरानों के नाम मूल रूप से अंग्रेजी में ही रखे जाते हैं सो इस संस्थान के नामकरण में भी उसी परतंत्र मानसिकतावादी अवधारणा को आगे बढ़ाया गया है, नया कुछ भी नहीं है। अब तक इस देश में मैकाले के संकल्प को डिगाने वाला व्यक्ति शासक नहीं बन सका है इसलिए हमारे संस्कारों में, विचारों में मैकाले की छाप बहुत अमिट हो चुकी है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी और गहराती जा रही है। हम आज भी विश्व को अपने देश का नाम 'भारत' नहीं बता सकते हैं जो कि इस देश का मूल और सार्वभौमिक नाम था। विश्व हमें इण्डिया के नाम से ही जानता है जो अंग्रेजों ने दिया था. पर मैं ये सब बातें क्यों कर रहा हूँ यह सभी बातें तो स्वतंत्रता के ६७ वर्षों से चल रही हैं और आशा है आगे भी चलती रहेंगी। मैकाले का संकल्प इतना सुदृढ़ था कि उसे भारत कभी भी हिला नहीं सकेगा, भाषाओं और संस्कृति के नाम पर रोना-गाना भले ही निरंतर चलता रहे। 

हाँ तो हम बात कर रहे थे 'नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रान्सफॉर्मिंग इण्डिया'। भारत सरकार की राजभाषा #हिन्दी केवल अनुवाद की भाषा बन कर रह गई है। विश्व में #हिन्दी ही एक ऐसी राजभाषा है जिसका प्रयोग सरकार के अंग्रेजी में किए गए मूल कामकाज के अनुवाद के लिए किया जाता है अर्थात देश की अघोषित राजभाषा तो अंग्रेजी है पर जब कुछ लोग हो-हल्ला करें तो अंग्रेजी में किए गए कामकाज का अनुवाद हिन्दी में कर दिया जाता है।

'नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रान्सफॉर्मिंग इण्डिया' का भी अनुवाद किया गया है और पत्र-सूचना कार्यालय की वेबसाइट पर 'राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान' बताया गया है। कुछ हिन्दी (हिंग्लिश?) समाचार पत्रों ने इसका संस्थान का नाम "भारत परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय संस्था" लिखा है, कुछ अति-आधुनिक हिंदी अख़बारों ने तो National Institution for Transforming India ही लिखा है अर्थात सरकार ने अपनी विज्ञप्ति में हिन्दी नाम का खुलासा नहीं किया होगा (यह मेरा अनुमान है) और इसलिए सभी स्वतंत्र हैं इस संस्थान के नाम का अनुवाद अपने तरीके से करने के लिए। 

अब आप ही बताएँ कि क्या यह अनुवाद सही है? क्या सचमुच उस बैठक में इस संस्थान के अनूदित #हिन्दी नाम पर चर्चा हुई होगी? मेरे विचार में वहाँ इस तरह की कोई चर्चा नहीं हुई होगी। वैसे भी सरकारी अधिकारी हिन्दी में बैठकें करने लगे तो उनकी शिक्षा का अपमान ना हो जाएगा। भारत यदि हुई होती तो एक दिन में ही इतने नाम प्रकट ना होते। तो एक बात तो निश्चित हुई कि हिन्दी भारत की आधिकारिक अनुवाद भाषा तो है पर किसी शब्द का आधिकारिक अनुवाद क्या हो, इसका निर्णय ६७ वर्षों बाद भी नहीं हो पाया है। 

एक संस्थान के नाम के लिए 'ट्रान्सफॉर्मिंग' शब्द का अनुवाद 'परिवर्तन' हो सकता है यह बात मुझ से अभी भी नहीं पच रही है। चूँकि भारत सरकार ने कोई आधिकारिक अनूदित #हिन्दी नाम जारी नहीं किया है इसलिए मेरे अनुसार इसका अनूदित नाम 'राष्ट्रीय भारत रूपान्तरण संस्थान' होना चाहिए। एक ऐसा संस्थान जो पूरे देश का रूपांतरण कर दे, मूल भावना  शायद यही रही होगी। मैं भी भारत का नागरिक हूँ और भारत की आधिकारिक अनुवाद भाषा का प्रयोग करने लिए स्वतंत्र हूँ जैसा कि भारत सरकार के कार्यालयों में बैठे अनुवादकगण अपने हिसाब से अनुवाद करने के लिए स्वतंत्र हैं। 

- प्रवीण जैन