अनुवाद

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

श्री अटलबिहारी वाजपेयी यांची एक प्रसिद्ध कविता : ‘क़दम मिला कर चलना होगा’


बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।


हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्य बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

- अटलबिहारी वाजपेयी
[सौजन्य : कविता कोष]

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

क्या आपको अपनी भाषा से कोई लगाव है? मेरी सहायता कीजिए

आदरणीय मान्यवर/ 
प्रिय मित्र


नमस्कार/जयहिंद/प्रणाम/सलाम/शत श्री अकाल/जयश्रीराम/जय जिनेंद्र .

जैसा कि आप जानते हैं, हम हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं के उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं. देशभर से हामरे ईमेल पर अनेक लोगों ने सहयोग का भरोसा दिलाया है. हम आप सभी के अत्यंत आभारी हैं. अब आपको पहला कार्य करना है.

आप सभी से अनुरोध है कि मेरे निम्नलिखित ईमेल का अवलोकन करें और उसमें अपने अनुसार परिवर्तन करते हुए, बिना देर किए डाक से अथवा ईमेल [secy-ol@nic.in] से राजभाषा सचिव को पत्र भेजें.संसदीय राजभाषा समिति के प्रतिवेदन के खण्ड - 9 पर राष्ट्रपति महोदय के आदेश शीघ्र ही जारी होने वाले हैं और राजभाषा सचिव उनको अंतिम रूप दे रहे है. ईमेल भेजने से पहले मेरा नाम पता अवश्य हटा दें.

ईमेल की गुप्त-प्रति (बीसीसी) में मेरा ईमेल आईडी अवश्य डालें ताकि मैं आवेदनों की संख्या के आधार पर आगे सचिव महोदय से बात कर सकूँ. हमें कम से कम एक हज़ार ईमेल की आवश्यकता है. क्या आप इस यज्ञ को सफल बनाएँगे.

आपका विनम्र आभारी :
प्रवीण 


---------- अग्रेषित संदेश ----------
प्रेषक: प्रवीण कुमार Praveen <cs.praveenjain@gmail.com>
दिनांक: 17 दिसंबर 2013 को 12:20 am
विषय: संसदीय राजभाषा समिति के प्रतिवेदन के खण्ड - 9 पर राष्ट्रपति महोदय के आदेश निर्गत किए जाने के सम्बन्ध में
प्रति: secy-ol@nic.in


प्रति,
श्री अरुण कुमार जैन 
सचिव महोदय
राजभाषा विभागगृह मंत्रालय
एनडीसीसी-II (नई दिल्ली सिटी सैंटर) भवन'बी' विंग
चौथा तलजय सिंह रोड,
नई दिल्ली - 110001

विषय: संसदीय राजभाषा समिति के प्रतिवेदन (खण्ड -9) में राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों के उल्लंघन पर दंडात्मक प्रावधान 

सन्दर्भ : संसदीय राजभाषा समिति प्रतिवेदन (खण्ड -9)  पृष्ठ 442 अनुशंसा क्रमांक: 110


महोदय,

भारत की स्वतंत्रता को आज सड़सठ वर्ष बीत गए हैं और हिन्दी आज भी भारत सरकार के कामकाज की भाषा नहीं बन पाई है, इन सड़सठ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है पर हिन्दी की स्थिति नहीं बदली बल्कि उसका ह्रास ही हुआ है.

भारत सरकार के ज़्यादातर कार्यालयों में हिन्दी के नाम पर केवल दिखावा चल रहा है, यह एक कड़वी सच्चाई है जिसे शायद भारत सरकार कभी भी स्वीकार नहीं करेगी और यही हमारे देश एवं देश के नागरिकों की सबसे बड़ी त्रासदी है क्योंकि यदि भारत ने अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त होकर भारतीय भाषाओं को अपनाया होता तो आज भारत भी चीन, जापान, कोरिया, जर्मनी, फ्रांस आदि स्वभाषा के दम पर विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा होता.

इससे अधिक शर्मनाक क्या होगा कि आज भी भारत के नागरिकों के द्वारा हिन्दी में लिखे पत्रों, अभ्यावेदनों एवं सूचना का अधिकार अधिनियम के अधीन लगाए गए आवेदनों के उत्तर अंग्रेजी में भेजे जा रहे हैं  और नागरिक इसकी शिकायतें राजभाषा विभाग को कर रहे हैं. ऐसी शिकायतों का ना तो कोई समाधान हो पाता है और होता भी है तो वह क्षणिक होता है. जो अधिकारी हिन्दी में आवेदन पढ़कर समझ सकता है क्या वह उसका उत्तर हिन्दी में नहीं दे सकता? ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या इसका अभी अंत होगा?

इन शिकायतों का अंत अगली कई सदियों तक भी नहीं हो पाएगा क्योंकि राजभाषा कानून में दंड का कोई प्रावधान नहीं है. दंड के बिना यह कानून प्रभावहीन है. यदि बिना दंड के कानून लागू हो पाता तो कम से कम सड़सठ सालों का इतना लंबा समय नहीं लगता और लक्ष्य दशकों पहले प्राप्त कर लिए जाते. दुनिया में कहीं भी बिना दंड के कानून की अवधारणा देखने में नहीं आई है क्योंकि बिना भय के बालक भी पिता की बात नहीं  मानता.

भारत के नागरिकों को उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय में न्याय आज भी एक विदेशी भाषा में दिया जा रहा है और सरकार ने इस कुप्रथा को रोकने की दिशा में सड़सठ वर्षों में कोई कदम उठाना तो दूर उसपर विचार तक नहीं किया, श्यामरुद्र पाठक जैसे आंदोलनकारियों द्वारा नौ-नौ महीनों भूख-प्यास में धरना दिया जाता है और उन्हें प्रतिदिन जेल भेजा जाता है.

संविधान निर्माताओं की आत्माएँ हिन्दी की वर्तमान स्थिति देखकर कितना दुखी होती होंगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती. 

देश के करोड़ों नागरिकों की ओर से सुझाव:
  1. महोदय, आपके पास अवसर है और हमें आपसे आशा है कि अनुशंसा 110 को यथावत रखा जाएगा और सूचना कानून की भांति राजभाषा अधिनियम में भी 'क' एवं 'ख' क्षेत्र के लिए दंड का प्रावधान किया जाए ताकि हिन्दी के साथ हो रही घोर उपेक्षा, अनादर और उल्लंघन का अंतहीन सिलसिला रुक जाए. आपसे आशा है कि इस बार आप कोई कोर कसर शेष नहीं रखेंगे और इस प्रावधान पर राष्ट्रपति महोदय आदेश को लागू करवाएंगे. 
  2. हिन्दी में लिखे पत्रों, अभ्यावेदनों एवं सूचना का अधिकार अधिनियम के अधीन लगाए गए आवेदनों के उत्तर अंग्रेजी में देने वाले अधिकारियों पर अर्थदंड का प्रावधान किया जाए.
  3. भारत के नागरिकों को सभी उच्च न्यायालयों में संबंधित प्रादेशिक भाषाओं में एवं उच्चतम न्यायालय में हिन्दी में याचिकाएँ लगाने एवं न्याय पाने का अधिकार दिया जाए और  हर दस्तावेज का अंग्रेजी अनुवाद दाखिल करने की क़ानूनी बाध्यता को हटाया जाए. संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन किया जाए. 
  4. पासपोर्ट की भांति 'पैनकार्ड'/वाहन चालन अनुज्ञा (ड्राइविंग लाइसेंस)/वाहन पंजीयन पत्रक (व्हीकल रजिस्ट्रेशन कार्ड)/मतदाता पहचान-पत्र को पूर्णरूपेण द्विभाषी बनाने हेतु आयकर विभाग/राजमार्ग परिवहन मंत्रालय/भारत निर्वाचन आयोग को निर्देशित किया जाए कि इनमें नाम/पिता का नाम/ निगम/कम्पनी का नाम अथवा उम्र/पता आदि की प्रविष्टियों को भी हिन्दी में लिखा जाए. 'पैनकार्ड'/वाहन चालन अनुज्ञा (ड्राइविंग लाइसेंस)/वाहन पंजीयन पत्रक (व्हीकल रजिस्ट्रेशन कार्ड) आदि फिलहाल केवल अंग्रेजी में स्मार्टकार्ड रूप में बनाए जा रहे हैं और गैरहिन्दी भाषी राज्यों हेतु मतदाता पहचान-पत्र प्रादेशिक भाषा एवं अंग्रेजी में बनाए जा रहे हैं उनमें हिन्दी कोई कोई भी स्थान नहीं है. (पारपत्र की द्विभाषिकता पर संसदीय राजभाषा समिति के प्रतिवेदन के खण्ड - 8 पर राष्ट्रपति महोदय के आदेश क्रम संख्या 77 आदेश दिनांक 2 जुलाई 2008 को देखें)
  5. भारत सरकार के सभी स्मार्ट कार्ड अनिवार्य रूप से 100% द्विभाषी रूप में तैयार हों. भारत सरकार के ऑनलाइन फॉर्म/पीडीएफ़ फॉर्म अनिवार्य रूप से 100% द्विभाषी रूप में तैयार हों और उनमें एकसाथ दोनों भाषाएँ प्रदर्शित हों. उपयोगकर्ता को भाषा चुनने का विकल्प नहीं दिया जाना चाहिए जैसा कि कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय ने कर रखा है. पीडीएफ़ फॉर्म/ऑनलाइन फॉर्म में हिन्दी को अंग्रेजी से आगे/ऊपर रखा जाना चाहिए.
  6. भारत सरकार की सभी वेबसाइटें राजभाषा विभाग की वेबसाइट की तरह 100% द्विभाषी बनाई जाएँ अथवा दायें (अंग्रेजी) और बायें (हिन्दी) को रखते हुए 100% द्विभाषी रूप में तैयार हों ना कि हिन्दी-अंग्रेजी की अलग -२ वेबसाइटें. भारत सरकार की लगभग सभी वेबसाइटें पूर्व निर्धारित रूप से अंग्रेजी को प्राथमिकता देते हुए अंग्रेजी में खुलती हैं जो संविधान एवं सन 1992 के आदेश का उल्लंघन है.
  7. आयकर विभाग/ केन्द्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क विभाग के सभी ऑनलाइन फॉर्म एकसाथ 100%द्विभाषी बनाए जाना का प्रबंध किया जाए और करदाताओं को भेजे जाने वाले सभी निश्चित ईमेल 100%द्विभाषी रूप में जारी किए जाएँ.
  8. राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों के उल्लंघन के लिए भारत सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों/सरकारी बैंकों/आयोगों आदि में 'राजभाषा शिकायत अधिकारी' नामित किए जाएँ और शिकायतों के निपटारे के लिए समय-सीमा तय की जाए. और उसकी जानकारी हर वेबसाइट पर उपलब्ध करवाई जाए.
  9. सभी सरकारी बैंकों को तीन महीने के भीतर ऑनलाइन नया खाता खोलना,ऑनलाइन शिकायत, नेटबैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, मोबाइल अनुप्रयोग 100%द्विभाषी रूप में बनाने हेतु निर्देशित किया जाए, उक्त सेवाएँ अभी केवल 100 % अंग्रेजी में हैं
आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी.

भवदीय 
प्रवीण जैन 
वाशी, नवी मुम्बई - ४००७०३
ईमेल: cs.praveenjain@gmail.com

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

तो क्या हिंग्लिश हिन्दी को समाप्त कर देगी?

रोमन में हिन्दी बनाम
हिन्दी पर अंतिम हमला /फायनल असाल्ट ऑन हिन्दी
-प्रभु जोशी
सातवें दाक के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित ल्विन टाॅफलर की पुस्तक तीसरी लहर के अध्याय बड़े राष्ट्रों के विघटन को पढ़ते हुए किसी को भी कोई कल्पना तक नहीं थी कि एक दिन रूस में गोर्बाचोव नामक एक करिमाई नेता प्रकट होगा और पेरोस्त्रोइका तथा ग्लासनोस्त जैसी अवधारणा के नाम से अधिरचना के बजाय आधार में परिवर्तन की नीतियां लागू करेगा और सत्तर वर्षों से महाशक्ति के रूप में खड़े देश के सोलह टुकड़े हो जायेंगे। अलबत्ता राजनीतिक टिप्पणीकारों द्वारा उस अध्याय की व्याख्या बौद्धिक अतिरेक से उपजी भय की स्वैर-कल्पना की तरह की गयी थी। लेकिन लगभग स्वैर-कल्पना सी जान पड़ने वाली वह भविष्योक्ति मात्र दस वर्षों के भीतर ही सत्य सिद्ध हो गयी। बताया जाता है कि उन क्रांतिकारी अवधारणाओं के जनक अब एक बहुराष्ट्रीय निगम से सम्बद्ध हैं।

हमारे यहां भी नब्बे के दशक में आधार में परिवर्तन को उदारीकरण जैसे पद के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में उलटफेर करते हुए बहुराष्ट्रीय निगमों तथा उनकी अपार पूंजी के प्रवाह के लिए जगह बनाना शुरू कर दी गयी। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी निगमें और उनकी पूंजी विकसित राष्ट्रों के नव-उपनिवेशवादी मंसूबों को पूरा करने के अपराजेय और अचूक शक्ति केन्द्र हैं जिसका सर्वाधिक कारगर हथियार है कल्चरल इकोनाॅमी और जिसके अन्तर्गत वे सूचना संचार फिल्म-संगीत और साहित्य के जरिये अधोरचना में सेंध लगाते हैं। और फिर धीरे-धीरे उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं। नव उपनिवेश के शिल्पकार कहते हैं नाऊ वी डोण्ट एण्टर अ कण्ट्री विथ गनबोट्स रादर विथ लैंग्विज एण्ड कल्चर। 

पहले वे अफ्रीकी राष्ट्रों में उनको सभ्य बनाने के उद्घोष के साथ गये और उनकी तमाम भाषाएँ नष्ट कर दीं। वी आर द नेशन विथ लैंग्विज व्हेयरज दे आर ट्राइब्स विथ डायलेक्ट्स। लेकिन भारत में वे इस बार उदारीकरण के बहाने उसे सम्पन्न बनाने के प्रस्ताव के साथ आये हैं। उनको पता था कि हजारों वर्षों के व्याकरण-सम्मत आधार पर खड़ी भारतीय भाषाओं को नष्ट करना थोड़ा कठिन है। पिछली बार वे अपनी भाषा को भाषा की तरह प्रचारित करके तथा भाषा को शिक्षा-समस्या के आवरण में रखकर भी भारतीय भाषाओं के नष्ट नहीं कर पाये थे। उल्टे उनका अनुभव रहा कि भारतीयों ने व्याकरण के ज़रिये एक किताबी भाषा अंग्रेजी) सीखी। 

ज्ञान अर्जित किया लेकिन उसे अपने जीवन से बाहर ही रख छोड़ा। उन्होंने देखा चिकित्सा-शिक्षा का छात्र स्वर्ण-पदक से उत्तीर्ण होकर श्रेष्ठ शल्य-चिकित्सक बन जाता है लेकिन उनकी भद्र-भाषा उसके जीवन के भीतर नहीं उतर पाती है। तब यह तय किया गया कि अंग्रेजी भारत में तभी अपना भाषिक साम्राज्य खड़ा कर पायेगी जब वह कल्चर के साथ जायेगी। नतीज़तन अब प्रथमतः सारा जोर केवल भाषा नहीं बल्कि सम्पूर्ण कल्चरल-इकोनामी पर एकाग्र कर दिया गया। इस तरह उन्होंने भाषा के प्रचार को इस बार लिंग्विसिज्म कहा जिसका सबसे पहला और अंतिम शिकार भारतीय युवा को बनाया जाना कूटनीतिक रूप से सुनिचित किया गया।

बहरहाल भारत में अफ्रीकी राष्ट्रों की तर्ज पर सबसे पहले एफ.एम. रेडियो के जरिये यूथ-कल्चर का एक आकर्षक राष्ट्रव्यापी मिथ खड़ा किया गया जिसका अभीष्ट युवा पीढ़ी में अंग्रेजी के प्रति अदम्य उन्माद तथा पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग की फूहड़ता से निकली यूरो-ट्रैा किस्म की रूचि के अमेरिकाना मिक्स से बनने वाली लाइफ स्टाइल‘ (जीवनशैली) को यूथ-कल्चर की तरह ऐसा प्रतिमानीकरण करना कि वह अपनी देशज भाषा और सामाजिक-परम्परा को निर्ममता से खारिज करने लगे। यहां पुरानी राॅयल चार्टर वाली सावधानी नहीं थी दे शुड नाॅट रिजेक्ट ब्रिटिश कल्चर इन फेवर आॅफ देअर ट्रेडिशनल वेल्यूज।

खात्मा जरूरी है लेकिन विथ सिम्पैथेटिक प्रिसिशन आॅव देयर कल्चर।इट मस्ट बी लाइक अ डिवाइन इन्टरवेशन। नतीजतन अब सिद्धान्तिकी डायरेक्ट इनवेजन की है। देयर स्ट्रांग डहरेंस टू मदरटंग्स हेज टु बी रप्चर्ड थ्रू दि प्रोसेस आॅव क्रियोलाइजेशन‘ (जिसे वे रि-लिंग्विफिकेशन आॅव नेटिव लैंग्विजेसेस कहते हैं)।

क्रियोलीकरण का अर्थ सबसे पहले उस देशज भाषा से उसका व्याकरण छीनो फिर उसमें डिस्लोकेशन आॅव वक्युब्लरि के जरिए उसके मूल शब्दों का वर्चस्ववादी भाषा के शब्दों से विस्थापन इस सीमा तक करो कि वाक्य में केवल फंकनल वर्डस् (कारक) भर रह जायें। तब भाषा का ये रूप बनेगा। यूनिवर्सिटी द्वारा अभी तक स्टूडेण्ट्स को मार्कशीट इश्यू न किये जाने को लेकर कैम्पस में वी.सी. के अगेंस्ट जो प्रोटेस्ट हुआ उससे ला एण्ड आर्डर की क्रिटिकल सिचुएशन बन गई (इसे वे फ्रेश-लिंग्विस्टिक लाइफ कहते हैं)।

उनका कहना है कि भाषा के इस रूप तक पहुंचा देने का अर्थ यह है कि नाऊ द लैंग्विज इज रेडी फार स्मूथ ट्रांजिशन। बाद इसके अंतिम पायदान है-फायनल असाल्ट आॅन लैंग्विज। अर्थात् इस क्रियोल बन चुकी स्थानीय भाषा को रोमन में लिखने की शुरूआत कर दी जाये। यह भाषा के खात्मे की अंतिम घोषणा होगी और मात्र एक ही पीढ़ी के भीतर।

बहरहाल हिन्दी का क्रियोलाइजेशन' (हिंग्लिाशीकरण) हमारे यहां सर्वप्रथम एफ.एम. ब्राॅडकास्ट के जरिये शुरू हुआ और यह फार्मूला तुरन्त देश भर के तमाम हिन्दी के अखबारों में (जनसत्ता को छोड़कर) सम्पादकों नहीं युवा मालिकों के कठोर निर्देशों पर लागू कर दिया गया। सन् 1998 में मैंने इसके विरूद्ध लिखा भारत में हिन्दी के विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका जिस प्रेस ने निभायी थी आज वही प्रेस उसके विनाश के अभियान में कमरकस के भिड़ गयी है। जैसे उसने हिन्दी की हत्या की सुपारी ले रखी हो। और इसकी अंतिम परिणति में देवनागरी से रोमन करने का मुद्दा उठाया जायेगा। क्योंकि यह फार्मूला भाषिक उपनिवेावाद (लिंग्विस्टिक इम्पीयरिलिज्म) वाली ताकतें अफ्रीकी राष्ट्रों की भाषाओं के खात्मे में सफलता से आजमा चुकी हैं। आज रोमन लिपि को बहस में लाया जा रहा है। अब बारी भारतीय भाषाओं की आमतौर पर लेकिन हिन्दी की खासतौर पर है। हिन्दी के क्रियोलीकरण की निःशुल्क सलाह देने वाले लोगों की तर्कों के तीरों से लैस एक पूरी फौज भारत के भीतर अलग-अलग मुखौटे लगाये काम कर रही है जो वल्र्ड बैंक आई.एम.एफ. ब्रिटिश कौंसिल, बी.बी.सी. डब्ल्यू.टी.ओ., फोर्ड फाउण्डेान जैसी संस्थाओं के हितों के लिए निरापद राजमार्ग बना रही हैं।

नव उपनिवेावादी ताकतें चाहती हैं रोल आॅव गव्हमेण्ट आर्गेनाइजेशस शुड बी इन्क्रीज्ड इन प्रमोटिंग डाॅमिनेण्ट लैंग्विज। हमारा ज्ञान आयोग पूरी निर्लज्जता के साथ उनकी इच्छापूर्ति के लि पूरे देा के प्राथमिक विद्यालयों से ही अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य करना चाहता है। यह भाषा का विखण्डन नहीं बल्कि नहीं संभल सके तो निचय ही यह क दूरगामी विराट विखण्डन की पूर्व पीठिका होगी। इसे केवल भाषा भर का मामला मान लेने या कहने वाला कोई निपट मूर्ख व्यक्ति हो सकता है ेतिहासिक-समझ वाला व्यक्ति तो कतई नहीं।

अंत में मुझे नेहरू की याद आती है जिन्होंने जान ग्रालबे्रथ के समक्ष अपने भीतर की पीड़ा और पश्चाताप को प्रकट करते हुए गहरी ग्लानि के साथ कहा था आयम द लास्ट इंग्लिश प्राइममिनिस्टर आॅव इंडिया। निचय ही आने वाला समय उनकी ग्लानि के विसर्जन का समय होगा। क्योंकि आने वाले समय में पूरा देश इंगलिश और अमेरिकन होगा। पता नहीं हर जगह सिर्फ अंग्रेजी में उद्बोधन देने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह प्रसन्नता का कारण होगा या कि नहीं लेकिन निश्चय ही वे दरवाजों को धड़ाधड़ खोलने के उत्साह से भरे पगड़ी में गोर्बाचोव तो नहीं ही होंगे। अंग्रेजी उनका मोह है या विवशता यह वे खुद ही बता सकते हैं।

यहां संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों की तुलना में देवनागरी लिपि की स्वयंसिद्ध श्रेष्ठता के बखान की जरूरत नहीं है। और हिन्दी की लिपि के संदर्भ में फैसला आजादी के समय हो चुका है। रोमन की तो बात करना ही देश और समाज के साथ धोखा होगा। अब तो बात रोमन लिपि की वकालत के षड्यंत्र के विरूद्ध घरों से बाहर आकर एकजुट होने की है- वर्ना हम इस लांछन के साथ इस संसार से विदा होंगे कि हमारी भाषा का गला हमारे सामने ही निर्ममता से घोंटा जा रहा था और हम अपनी अश्लील चुप्पी के आवरण में मुंह छुपाये वह जघन्य घटना बगैर उत्तेजित हुए चुपचाप देखते रहे।

(सीमित शब्द संख्या के बंधन के कारण अंग्रेजी शब्दों और वाक्यांशों का हिन्दी रूपांतर नहीं दिया जा रहा है।)

                                    प्रभु जोशी
                                          समग्र 4 संवाद नगर
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