अनुवाद

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

डीआईएन (DIN) और डीपीआईएन (DPIN) में अंतर : सीमित देयता भागीदारी अधिनियम २००८


भारत सरकार एक व्यक्ति के लिए दो अलग-२ पहचान संख्या जारी करती रही है  अर्थात् एक कंपनी के निदेशक  बनने के लिए डीआईएन और एलएलपी अधिनियम 2008 तहत एक एलएलपी में नामित भागीदार बनने  डीपीआईएन (DPIN).

भारत सरकार ने इस दुहराव से बचने के लिए, 9 जुलाई २०११ से प्रभावी  आदेश के द्वारा डीपीआईएन (DPIN) और डीआईएन (DIN)  को एकीकृत करने का निर्णय लिया.  अब दोनों प्रयोजनों के लिए एक व्यक्ति को एक ही पहचान संख्या लेने की आवश्यकता होगी. 

तदनुसार:

(क).            एलएलपी में नामित भागीदार बनने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति ईफार्म: डीआईएन 1 दाखिल करके डीआईएन प्राप्त कर सकता है. उसे अलग से कोई नया डीपीआईएन (DPIN) जारी नहीं किया जाएगा. 
(ख).           डीआईएन (DIN)  को उक्त एलएलपी अधिनियम के तहत सभी प्रयोजनों के लिए डीपीआईएन (DPIN) के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा. 
(ग).            यदि किसी व्यक्ति को डीपीआईएन (DPIN) आबंटित किया गया है तो उसे सभी प्रयोजनों के लिए डीआईएन (DIN)  के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा. 
(घ).            यदि एक व्यक्ति को डीआईएन (DIN)  और डीपीआईएन (DPIN) दोनों आवंटित हुए है तो उसका डीपीआईएन (DPIN) निरस्त हो जाएगा और एलएलपी अधिनियम और अधिनियम के तहत सभी प्रयोजनों के लिए  अपने डीआईएन (DIN)  को डीआईएन (DIN)  और डीपीआईएन (DPIN) के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा .





महावीर दर्शन के माध्यम से वैश्विक चुनौतियों का हो सकता है समाधान


राष्ट्रपति भवन : 22-04-2013
Speech
मुझे महावीर जयंती के कुछ दिन पूर्व ‘महावीर दर्शन के माध्यम से वैश्विक चुनौतियों का समाधान’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी के अवसर पर आप के बीच आकर प्रसन्नता हो रही है। मैं इस अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई देता हूं।
मौजूदा समय के लिए अत्यंत प्रासंगिक विषय पर संगोष्ठी के आयोजन के लिए, मैं अहिंसा विश्व भारती को बधाई देता हूं। ऐसे समय में जब विश्व के समक्ष बहुत सी चुनौतियां मौजूद हैं और हम उनके समाधान के उपाय ढूंढ़ रहे हैं, भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित दर्शन एवं उपदेश बहुत महत्त्व रखते हैं। समय आ गया है कि हम उनके संदेशों और उपदेशों को आज की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के अपने प्रयासों में सबसे आगे रखें।
देवियो और सज्जनो, भगवान महावीर का जन्म एक शाही परिवार में राजा सिद्धार्थ तथा महारानी त्रिषला के घर में 599 ई.पू. बिहार में हुआ था और उनका नाम वर्द्धमान रखा गया था। अपने पास उपलब्ध भोग-विलास के साधनों के बावजूद वह सादा जीवन पसंद करते थे। तीस वर्ष की आयु में सांसारिक सुखों का त्याग करते हुए तथा सभी भौतिक सुखों को छोड़ते हुए वे संन्यासी बन गए।
उन्होंने सभी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए बारह वर्ष तक तपस्या की और इसके बाद उन्हें आत्मानुभूति और आध्यात्मिक ज्ञान अथवा केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने अगले तीस वर्ष पूरे देश में भ्रमण करते तथा कठोर शारीरिक कष्टों पर विजय पाते हुए शाश्वत सत्य का उपदेश दिया। उनकी सरलता तथा उच्च नैतिकता के आचरण के कारण उनके बहुत से अनुगामी हो गए। उनके उपदेश मोक्ष अथवा मुक्ति की प्राप्ति के लिए आत्मानुभूति की संकल्पना पर आधारित थे।
भगवान महावीर 24वें और अंतिम तीर्थंकर हैं। जैन परम्परानुसार तीर्थंकर ऐसा ज्ञानी जीवात्मा होता है जो कि मानव के चोले में जन्म लेकर ध्यान तथा आत्मानुभूति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। तीर्थंकरों को अरिहंत भी कहा जाता है अर्थात् जिन्होंने क्रोध, लालच अथवा अहम् जैसे आंतरिक शत्रुओं को हरा दिया।
भगवान महावीर ने मानव शरीर में एक जाग्रत जीवात्मा के रूप में देवत्व प्राप्त किया। भगवान महावीर ने जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए एक दर्शन का प्रतिपादन किया। उन्होंने दृढ़ता से कर्म के सिद्धांत का अनुपालन करते हुए कहा कि कर्म, अर्थात् हमारे कार्यों से ही हमारे भाग्य का निश्चय होता है। उनके उपदेशों में यह बताया गया है कि व्यक्ति जन्म, जीवन, पीड़ा, कष्ट तथा मृत्यु से मुक्ति पाते हुए कैसे मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्त करे।
उन्होंने उचित विश्वास अर्थात सम्यक् दर्शन, उचित ज्ञान अथवा सम्यक् ज्ञान, और उचित आचरण अथवा सम्यक् चरित्र को, निर्वाण प्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण बताया। उचित आचरण के लिए उन्होंने पांच अनिवार्य सिद्धांतों अर्थात् हिंसा का त्याग अथवा अहिंसा, सच्चाई अथवा सत्य और अनुचित सम्पत्ति से बचना अथवा अस्तेय, पवित्रता अथवा ब्रह्मचर्य तथा व्यक्ति, स्थान और सांसारिक वस्तुओं से पूर्ण अनासक्ति अथवा अपरिग्रह, का प्रतिपादन किया था।
भगवान महावीर ने धर्म को जटिल कर्मकाण्ड से मुक्त करके सरल बनाया। उन्होंने सिखाया कि मानव जीवन सर्वोच्च है और जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। उन्होंने इस बात पर बल देते हुए प्रेम के सार्वभौमिक सिद्धांत का उपदेश दिया कि सभी मनुष्य विभिन्न परिमाण, आकार और रूप के होते हुए भी समान हैं तथा वे समान रूप से प्रेम आर सम्मान के पात्र हैं।
उन्होंने अपने जीवन काल में बहुत सी सामाजिक कुरीतियों की समाप्ति और समाज सुधार के लिए सम्यक् आस्था, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण के सिद्धांतों का प्रयोग किया। उन्होंने स्त्री दासता, महिलाओं के समान दर्जे और सामाजिक समता जैसे विषयों पर सामाजिक प्रगति की शुरुआत की।
भगवान महावीर के दर्शन और उपेदश का सार्वभौमिक सत्य आधुनिक विश्व के लिए भी उपयोगी हो गया है। उनकी शिक्षाओं में पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का हृस, युद्ध और आतंकवाद के जरिए हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता तथा गरीबों के आर्थिक शोषण जैसी समसामयिक समस्याओं के समाधान पाए जा सकते हैं।
देवियो और सज्जनो, वातावरण के हृस और प्राकृतिक संसाधनों के क्षरण ने वर्तमान विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। महावीर के षट्जीवनिकाय और अहिंसा के सिद्धांत इस बढ़ते हुए संकट के समाधान के लिए सार्थक दृष्टिकोण हैं। षट्जीवनिकाय का तात्पर्य 2 से 5 इंद्रियों वाले चर जीवों सहित छह प्रकार के जीवों से है, जिनमें से एकल इन्द्रिय वाले जीव हैं जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और वनस्पति। अहिंसा मात्र मनुष्य के प्रति ही नहीं बल्कि सभी जीवों के प्रति अपनानी चाहिए।
इन संकल्पनाओं में मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में पूरी सावधानी रखने और वातावरण को प्रदूषित न करने की प्रेरणा दी गई है। भगवान महावीर ने समझदारीपूर्वक संसाधनों के प्रयोग, आत्मसंयम तथा स्थायी और अस्थायी सम्पत्तियों के स्वामित्व में सीमा के लिए संयम अपनाने की शिक्षा दी। भगवान महावीर ने हमें संयमित उपभोग का पथ भी दिखाया।
देवियो और सज्जनो, भगवान महावीर की शिक्षाएं आर्थिक असमानता को कम करने की आवश्यकता के अनुरूप हैं। उन्होंने बताया कि अभाव और अत्यधिक उपलब्धता दोनों ही हानिकारक हैं। आज के समय में धन पर कुछ ही लोगों का अधिकार बढ़ती हुई असहिष्णुता का एक कारण है।
भगवान महावीर ने स्वामित्ववादी भावना की समाप्ति और इसके स्थान पर धन के रक्षक की अवधारणा का प्रचार किया। उन्होंने स्वयं के उदाहरण द्वारा इस आदर्श की खूबियों का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का परित्याग कर दिया और सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए एकांत जीवन व्यतीत किया।
भगवान महावीर ने अनुभव किया कि व्यक्तिगत क्षमताओं और आवश्यकताओं में अन्तर होता है। इसलिए, उन्होंने अपने अनुयाइयों को अपने उत्थान पर ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए तथा दूसरों को भी यही लाभ प्राप्त करने देने के लिए उनमें करुणा, धैर्य, प्रेम और सहिष्णुता युक्त सामाजिक अहिंसा का प्रचार किया।
भगवान महावीर के उपदेश आज भी अत्यंत समीचीन और प्रासंगिक हैं। उन्होंने उपदेश दिया कि कोई भी जन्म से निर्धन अथवा धनी नहीं होता। उन्होंने कहा था कि व्यक्ति को अपने जन्म से नहीं बल्कि कार्यों द्वारा जाना जाना चाहिए। ऐसे सिद्धांत पर अमल करने से आधुनिक समाज के निर्माताओं द्वारा संकल्पित न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के आदर्श को बढ़ावा मिलेगा।
दुर्भाग्य से वर्तमान विश्व जाति, धर्म और राष्ट्रीयता में बंटा हुआ है। ऐसे भेदभाव से पैदा होने वाले अनेक द्वन्द्वों से यह स्थिति और बिगड़ गई है। भगवान महावीर ने अनेकांतवाद अथवा अनेक विचारों का सिद्धांत दिया और कहा कि सफेद और काले या धनी और निर्धन की भांति विपरीतता विद्यमान है। उन्होंने संवाद और सामाजिक अहिंसा के अनुपालन द्वारा मतभेदों और भिन्नताओं का समाधान करने की शिक्षा दी। वर्तमान संदर्भ में, इससे अधिक प्रासंगिक कुछ भी नहीं हो सकता।
देवियो और सज्जनो, भगवान महावीर के सिद्धांतों में बहुआयामी विकास का उल्लेख किया गया है। उन्होंने कहा था, ‘‘प्रसन्नता सभी जीवों का स्वभाव है। प्रत्येक जीव पीड़ा को मिटाना चाहता है ताकि वह सदैव प्रसन्न रह सके।’’ वृहत स्तर पर, एक देश या समुदाय की खुशहाली सतत् विकास, सांस्कृतिक मूल्यों के परिरक्षण और संवर्धन, प्राकृतिक वातावरण के संरक्षण तथा सुशासन की स्थापना के स्तंभों पर आधारित होती है। आज किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ये अनिवार्य लक्ष्य हैं और भगवान महावीर की शिक्षाओं का पालन करके इन्हें कार्यान्वित किए जाने की अत्यधिक क्षमताएं हैं।
भगवान महावीर के दर्शन के तीन सिद्धांत अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह बहुत सी आधुनिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकते हैं। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि आचार्य डॉ. लोकेश मुनि के मार्गदर्शन में, अहिंसा विश्व भारती द्वारा हिंसा, आतंकवाद, शोषण, निर्धनता, सांप्रदायिकता, जातिगत भेदभाव तथा अन्य सामाजिक कुप्रथाओं से मुक्त समाज के निर्माण के लिए कार्य किया जा रहा है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि आचार्य जी के अथक प्रयासों के लिए, भारत सरकार ने उन्हें 2010 में राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भावना पुरस्कार प्रदान किया है।
मुझे विश्वास है कि अहिंसा विश्व भारती देश की सामाजिक प्रगति की दिशा में कार्य करती रहेगी। मैं, इस संगठन की सफलता के लिए शुभकामनाएं देता हूं। मैं एक बार पुन: इस पावन अवसर पर अपने जैन भाइयों और बहनों को शुभकामनाएं देता हूं। भगवान महावीर का आशीर्वाद हम पर बना रहे।
धन्यवाद,
जय हिंद!

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

अश्लीलता परोसने वाले अख़बारो : शर्म करो शर्म करो

अरे अखबार वालो! शर्म करो ! वेबसाइट को काला करने कुछ नहीं होने वाला अपना काला दिमाग साफ़ करो और ज़रा भी महिलाओं के प्रति सम्मान रखते हो तो वेबसाइट से अश्लील खबरें और अश्लील तस्वीरें हटा दो.

हिट्स बढ़ाने के लिए गंदगी परोसना बंद करो. महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों के लिए तुम जैसे मीडिया वाले ही उत्तरदायी हैं. मुंह में राम बगल में छुरी. 

सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका लगेगी तो जल्दी अकल ठिकाने आयेगी उससे पहले सुधर जाओ. तुम लोगों का ये दोगुलापन ज्यादा दिन नहीं चलेगा. 
आप इन चित्रों को देखकर ही अनुमान लगा सकते हैं कि ये समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं:
इन समाचार वेबसाइटों को पॉर्न वेबसाइट कहना ज्यादा उचित होगा :
दुर्भाग्य वश  देश में कोई भी ऐसी सरकारी एजेंसी नहीं जो इस अश्लीलता पर रोक लगाये.



शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

प्रसार भारती का नाम हुआ फिरंगी प्रसार

2013/4/18


प्रति,
सचिव, राजभाषा विभाग
नई दिल्ली

विषय: प्रसार भारती द्वारा राजभाषा अधिनियम एवं संविधान के राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों की उपेक्षा एवं उल्लंघन की शिकायत 

महोदय 

मैं 30 जनवरी २०१३ से लगातार प्रसार भारती के अधिकारीगण  को राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों के उल्लंघन के सम्बन्ध में ईमेल पर लिख रहा हूँ और अब तक छह अनुस्मारक भेज चुका हूँ पर कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ है ना ही उक्त कार्यालय ने शिकायत में उठाई गई बातों पर कोई कार्यवाही की है. 

कृपया मेरी शिकायत (30 जनवरी 2013 के अधोलिखित ईमेल) को शीघ्रातिशीघ्र संज्ञान में लिया जाये और  प्रसार-भारती को आवश्यक निर्देश जारी किए जाएँ ऐसा निवेदन है. हिन्दी भारत देश की राजभाषा है इसलिए प्रसार-भारती से संबंधित सभी वेबसाइट और गतिविधियों में हिन्दी अंग्रेजी से नीचे कतई स्वीकार्य नहीं है. हिन्दी की उपेक्षा पर रोक लगाई जाए.

दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों के प्रतीक-चिन्हों में अंग्रेजी का बोलबाला है, और हिन्दी का सफाया. मूल प्रतीक-चिन्ह (जो अब दिखाई कम देता है)को छोड़कर दूरदर्शन के सभी प्रतीक चिन्ह अंग्रेजी में बनाये गए हैं। (सूची संलग्न है) इस बारे में राजभाषा विभाग का क्या कहना है?

भवदीय,
प्रवीण  कुमार 


26 मार्च 2013 3:36 pm को, प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com> ने लिखा:
22 मार्च 2013 12:53 pm को, प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com> ने लिखा:
19 मार्च 2013 3:30 pm को, प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com> ने लिखा:
15 मार्च 2013 12:48 pm को, प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com> ने लिखा:
20 फरवरी 2013 3:07 pm को, प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com> ने लिखा:
 2013/1/30 प्रवीण जैन <cs.praveenjain@gmail.com>
प्रति,
श्रीमती मृणाल पांडे 
अध्यक्षप्रसार भारती बोर्ड
2रा  तलपीटीआई भवन
संसद मार्गनई दिल्ली - 110 001

श्री जवाहर सरकार 
मुख्य कार्यकारी अधिकारी
प्रसार भारती 
2रा तल 
पीटीआई भवनसंसद मार्गनई दिल्ली - 110 001

विषय: प्रसार भारती द्वारा राजभाषा अधिनियम एवं संविधान के राजभाषा सम्बन्धी प्रावधानों की उपेक्षा एवं उल्लंघन की शिकायत 

शिकायत के मुख्य बिंदु:


१. प्रसार भारती की मूल वेबसाइट http://prasarbharati.gov.in/ का हिन्दी में उपलब्ध ना होना.

२. दूरदर्शन समाचार चैनल की http://www.ddinews.gov.in/ का हिन्दी में उपलब्ध ना होना.

३. आकाशवाणी की वेबसाइट http://allindiaradio.gov.in/ पर हिन्दी के नाम पर केवल 'मुख्यपृष्ठ' बाकी जानकारी 'रिक्त'.

४. दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों के प्रतीक-चिन्हों में अंग्रेजी का बोलबाला, हिन्दी का सफाया. मूल प्रतीक-चिन्ह (जो अब दिखाई कम देता है)को छोड़कर दूरदर्शन के सभी प्रतीक चिन्ह अंग्रेजी में बनाये गए हैं। (सूची संलग्न है)

५. आकाशवाणी समाचार की वेबसाइट http://www.newsonair.com का हिन्दी में उपलब्ध ना होना.

६. प्रसार भारती से संबद्ध जो एकमात्र  वेबसाइट हिन्दी में है, वह है http://ddindia.gov.in/.  परन्तु यह वेबसाइट अंग्रेजी वेबसाइट के साथ अद्यतन नहीं की जाती। कई बार तो कार्यक्रमों की जानकारी हिन्दी वेबसाइट पर ७-८ दिन तक अद्यतन नहीं होती. हिन्दी वेबसाइट का इस्तेमाल भी बेहद कठिन हैं, पन्ने खोलने के लिए काफी जुगत लगानी पड़ती है. कई टैब को क्लिक करने पर जानकारी अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती है. 

७. आकाशवाणी संग्रहालय से जो संगीत के संकलन (सीडी/कैसेट) आदि के रूप में जारी किये गए उनके आवरण, विज्ञापन आदि में भी राजभाषा को यथोचित स्थान नहीं दिया गया/दिया जाता. सीडी आदि के छापे गए आवरण पर अंग्रेजी को प्राथमिकता.

७. प्रसार भारती के सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया-यूट्यूब/फेसबुक) चैनलों पर केवल अंग्रेजी का वर्चस्व, हिन्दी को कोई स्थान नहीं.

९. कर्मचारी प्रशिक्षण संस्थान (तकनीक) की वेबसाइट http://stitairdd.org/ का हिन्दी में उपलब्ध ना होना.

१०. हिन्दी में प्रसारित होने वाले अधिकतर कार्यक्रमों आदि के प्रारंभ और अंत में आने वाले शीर्षक-नाम-विवरण भी अंग्रेजी में होते हैं जबकि उन्हें अनिवार्य रूप से केवल हिन्दी में लिखा/प्रदर्शित किया जाना चाहिए. इसी तरह अंग्रेजी में प्रसारित कार्यक्रमों के प्रारंभ और अंत में आने वाले शीर्षक-नाम-विवरण द्विभाषी रूप में प्रदर्शित होने चाहिए.

११. दूरदर्शन के ज़्यादातर क्षेत्रीय केन्द्रों/चैनलों की वेबसाइट केवल अंग्रेजी में बनाई गई हैं जबकि राजभाषा विभाग के निर्देशों के अनुसार दूरदर्शन की सभी वेबसाइटें हिन्दी में होना अनिवार्य है. देखें http://www.rajbhasha.nic.in/ap201213hin.pdf

आपके सकारात्मक उत्तर की प्रतीक्षा में 

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

मालवीय जी और हि‍न्‍दी

वि‍शेष लेख: वि‍श्‍व नाथ त्रि‍पाठी
[यह आलेख 'पत्र-सूचना कार्यालय, भारत सरकार की वेबसाइट से लिया गया है]
                 
बहुमुखी प्रतिभा के धनी महामना पंडि‍त मदन मोहन मालवीय का कार्य क्षेत्र बहुत व्‍यापक था। सन् 1861 में प्रयाग में उनका जन्‍म हुआ था। वे एक महान देश भक्‍त, स्‍वतंत्रता सेनानी वि‍धि‍वत्‍ता, संस्‍कृत वाड्.मय और अंग्रेजी के वि‍द्वान, शि‍क्षावि‍द , पत्रकार और प्रखर वक्‍ता थे। उस युग में 25 वर्ष की आयु में उनमें इतनी राष्‍ट्रीय चेतना थी कि‍ उन्‍होंने 1886 में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधि‍वेशन में भाग लि‍या और उसे संबोधि‍त कि‍या। वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्‍यक्ष चुने गए। सन् 1931 में उन्‍होंने दूसरे गोलमेज सम्‍मेलन में भारत का प्रतिनिधित्‍व भी कि‍या।

   
राष्‍ट्रीय आंदोलन में अपना पूर्ण्‍ योगदान देने के उद्देश्‍य से महामना ने 1909 में वकालत छोड़ दी यदयपि‍ उस समय वे इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में पंडित मोती लाल नेहरू और सर सुन्‍दर लाल जैसे प्रथम श्रेणी के वकीलों में गि‍ने जाते थे। लकि‍न दस साल बाद उन्‍होंने चौरा-चौरी कांड के मृत्‍युदण्‍ड के सजायाफ्ता 156 बागी स्‍वतंत्रता सेनानियों की पैरवी की और उनमें से 150 को बरी करा लि‍या।

   यदि‍ कभी कोई इति‍हासकार स्‍वतंत्रता आंदोलन का वास्‍ति‍वक मूल्‍यांकन करेगा तो महामना का योगदान लोकमान्‍य ति‍लक और महात्‍मा गांधी के समकक्ष आंकने को बाध्‍य होगा। लेकि‍न इसे एक वि‍डम्‍बना ही कहना चाहि‍ए कि‍ उस देश में उनका नाम अधि‍कांश लोग केवल ‘बनारस हि‍न्‍दू वि‍श्‍ववि‍दयालय’ के संस्‍थापाक तथा एक महान शि‍क्षावि‍द् के रूप में ही जानते हैं। वास्‍तव में महामना अपने द्वारा कि‍ये गए कार्यों का न तो स्‍वयं प्रचार करते थे और न चाहते थे कि उनके द्वारा किए गए सद्कार्यों का कोई दूसरा भी प्रचार करें। वे सही मायने में एक कर्मयोगी थे। मालवीय जी अपने द्वारा शुरू कि‍ये कार्य को कि‍सी योग्‍य व्‍यक्‍ति‍ को सौंपकर दूसरे नए कार्य में जुट जाते थे। उनके नाम का कहीं उल्‍लेख न हो इस बात पर वह इतना ध्‍यान देते थे कि अपने बनाए अपने घरों के बाहर भी उन्‍होंने अपना नाम कभी नहीं लि‍खवाया।

     19 वीं शताब्‍दी में नव जागरण और राष्‍ट्रीय चेतना का स्‍फुरण हो रहा था। एक तरफ युवकों में राष्‍ट्रीय चेतना अंकुरि‍त हो रही थी तो दूसरी तरफ मैकाले के जोर देने पर कम्‍पनी सरकार ने 1835 में अंग्रेजी शि‍क्षा प्रचार का प्रस्‍ताव पास कर दि‍याएतदर्थ देश में यत्र-तत्र अंग्रेजी के स्‍कूल खोले जाने लगे। अब प्रश्‍न उठा अदालती भाषा का और स्‍कूलों में हि‍न्‍दी को एक अनिवार्य वि‍षय के रूप में रखने का। इन दोनों बातों में हि‍न्‍दी का घोर वि‍रोध हुआ। इस वि‍रोध की कहानी भी बहुत रोचक है। मुगलकाल में अदालतों की भाषा फारसी चल आ रही थी। अंग्रेजी-शासन काल में भी प्रारंभ में यही परम्‍परा चलती रही कि‍न्‍तु सर्वसाधारण जनता की फारसी-भाषा और उसकी लि‍पि‍ सम्‍बन्‍धी कठि‍नाइयों को देखकर सन् 1836 में कम्‍पनी सरकार ने आज्ञा जारी की कि‍ सारा अदालती काम देश की प्रचलि‍त भाषाओं में हुआ करे। इसके परि‍णाम स्‍वरूप संयुक्‍त प्राइज़ में हि‍न्‍दी खड़ी बोली को वहां की अदालती भाषा स्‍वीकार कर लि‍या गया। सारा अदालती कार्य हि‍न्‍दी भाषा और लि‍पि‍ में होने लगा। कम्‍पनी सरकार भाषा संबंधी इस नीति‍ पर चि‍रकाल तक न टि‍क सकी। केवल एक साल के पश्‍चात् उत्‍तरी भारत के सब दफ्तरों की भाषा उर्दू  कर दी गई। यह सब मुसलमानों के वि‍रोध के कारण हुआ। इस प्रकार मान-मर्यादा और आजीवि‍का की दृष्‍टि‍ से सबके लि‍ये उर्दू सीखना आवश्‍यक हो गया और देश-भाषा के नाम पर स्‍कूलों में छात्रों को उर्दू पढाई जाने लगी। इस प्रकार हि‍न्‍दी तथा अन्‍य भारतीय भाषाओं के पढ़ने वालों की संख्‍या दि‍न प्रतीदि‍न  कम होने लगे।

हि‍न्‍दी को अदालतों से बाहर नि‍कालने के कार्य में तो मुसलमानों को सफलता मि‍ल चुकी थीअब वे इसे शि‍क्षा क्षेत्र से बाहर नि‍कालने में प्रयत्‍नशील थे। जब सरकार स्‍कूलों और मदरसों में हि‍न्‍दी के अनि‍वार्य रूप से पढ़ाये जाने के प्रस्‍ताव पर वि‍चार कर रही थीं तब प्रभावशाली मुसलमानों-सर सैय्यद अहमद खां आदि‍ ने उसका उ्ग्र वि‍रोध कि‍या। अन्‍तत: 1884 में सरकार को अपना वि‍चार छोड़ना पडा। सर सैय्यद अहमद खां का अंग्रेजों के बीच बड़ा मान था। वे हि‍न्‍दी को एक ‘गंवारू’ भाषा समझते थे। वे अंग्रेजी को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार कोशि‍श करते रहे। इसी समय राजा शि‍व प्रसाद ‘सि‍तारे हि‍न्‍द’ का इस क्षेत्र में आगमन हुआ। वे भी अंग्रेजों के कृपा पात्र थे और हि‍न्‍दी के परम पक्षपाती थे। अंत: हि‍न्‍दी की रक्षा के लि‍ए उन्‍हें खड़ा होना पड़ा। वे इस कार्य में बराबर चेष्‍ठाशील रहे। यह झगड़ा बीसों वर्ष तक ‘भारतेन्‍दु’ हरि‍श्‍चंद्र के समय तक रहा।

इस हि‍न्‍दी-उर्दू संघर्ष में राजा शि‍व प्रसाद ‘सि‍तारे हि‍न्‍द’ के समय में ही राजा लक्ष्‍मण सिंह भी हि‍न्‍दी के संरक्षक बन कर सामने आये। अनेक वि‍घ्‍न-बाधाओं के होने पर भी शि‍व प्रसाद ने हि‍न्‍दी के उद्धार-कार्य में महत्‍वपूर्ण योगदान दि‍या। इन्‍हीं के प्रयत्‍नों से कम्‍पनी सरकार को स्‍कूलों में हि‍न्‍दी शि‍क्षा को स्‍थान देना पडा।

जि‍स प्रकार दोनों राजाओं के सप्रयत्‍नों से संयुक्‍त प्रान्‍त में हि‍न्‍दी का प्रचार कार्य आरम्‍भ हुआउसी प्रकार उनके समसामयि‍क बाबू नवीन चन्‍द्र राय ने पंजाब में समाज सुधार तथा हि‍न्‍दी-प्रचार कार्य आरम्‍भ कि‍या। बंगाल में राजा राममोहन राय वेदान्‍त और उपि‍नषदों का ज्ञान लेकर आगे आये और उन्‍होंने वहां ‘ब्रह्म-समाज’ की स्‍थापना की। उन्‍होंने वेदान्‍त-सूत्र का हि‍न्‍दी में अनुवाद प्रकाशि‍त कराया।

उधर उत्‍तरी भारत में स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती ने वैदि‍क धर्म-प्रचार और ‘आर्य समाज’ की स्‍थापना कर जनता को अपनी ओर आकार्षित कि‍या। उन्‍होंने हि‍न्‍दुस्‍तान को आर्यावर्त तथा हि‍न्‍दी को आर्य भाषा का नाम दि‍या तथा प्रत्‍येक आर्य के लि‍ए आर्यभाषा का पढ़ना आवश्‍यक ठहराया। स्‍वामी दयानन्‍द तथा उनके द्वारा स्‍थापि‍त ‘आर्य समाज’ ने हि‍न्‍दी भाषा के प्रचार में जो महत्‍वपूर्ण कार्य कि‍यावह चि‍रस्‍मरणीय  है।  

अब देश में इस प्रकार का वातावरण बन रहा था कि‍ संयुक्‍त प्रान्‍त (आज के उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड) के बुद्धि‍जीवि‍यों के लि‍ए यह बर्दाश्‍त करना असंभव होने लगा था कि‍ सुसंस्‍कृत तथा समृद्ध भाषा हि‍न्‍दी के होते हुए भी पराधीन होने के कारण प्रान्‍त की जनता को समस्‍त राजकीय कार्य में विदेशी भाषा फारसी अथवा अंग्रेजी का प्रयोग करना पड़े। अंत: 19 वीं शताब्‍दी के मध्‍य तक आते-आते अनेक स्‍वाभि‍मानी देशभक्‍त बुद्धि‍जीवि‍यों ने इस बात का बीड़ा उठाया कि‍ प्रदेश में वि‍देशी भाषा की जगह ‘नि‍ज भाषा’ के प्रयोग की शासकीय अनुमति‍ मि‍ल जाय। इस कड़ी में अत्‍यन्‍त महातवपूर्ण प्रयास राजा शि‍वप्रसाद द्वारा भी सन् 1868 में कि‍या गया जो उपर्युक्‍त वि‍दशेी लि‍पि‍यों के हि‍मायति‍यों के वि‍रोध के कारण सफल न हो सका।

राजा शि‍व प्रसाद की भांति‍ बहुतों ने अदालतों में देवनागरी लि‍पि‍ के प्रवेश के लि‍ये जब-तब छि‍टपुट प्रयत्‍न कि‍या लेकि‍न सभी असफल रहे। 1848 में प्रयाग में हि‍न्‍दी उद्धारि‍णी-प्रति‍नि‍धि‍ मध्‍यसभा की स्‍थापना हुई। मालवीय जी ने इसमें जी खोलकर काम कि‍याव्‍यारव्‍यान दि‍एलेख लि‍खे और अपने मि‍त्रों को भी उस काम में भाग लेने के लि‍ए उत्‍प्रेरि‍त कि‍या। उन्‍होंने नए सि‍रे से अदालतों में नागरी के प्रवेश का प्रयन्‍त कि‍या। मालवीय जी ने इस बात पर गम्‍भीरता से वि‍चार कि‍या कि‍ अब तक इस दि‍शा में क्‍यों सफलता नहीं मि‍ली। महामना ने व्‍यवस्थि‍त ढंग से इस काम को हाथ में लि‍या। एक ओर तो उन्‍होंने देवनागरी लि‍पि‍ के पक्ष में हस्‍ताक्षर अभि‍यान की योजना शुरू की दूसरी ओर बहुत सी सामग्री एकत्रि‍त कर ‘कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्राइमरी एजूकेशन’ नाम की पुस्‍तक लि‍खी। इसमें हि‍न्‍दी का प्रयोग सरकारी कामकाज में क्‍यों कि‍या जाय इसकी प्रचुर सामग्री थी।

      इसी प्रकार आधुनि‍क हि‍न्‍दी के जन्‍मदाता ‘भारतेन्‍दु’ हरिश्‍चंद्र द्वारा काशी में स्‍थापि‍त ‘नागर प्रचारि‍णी सभा’ भी नागरी लि‍पि‍ के प्रचार-प्रसार में लगी थी। कि‍न्‍तु मुचि‍त मार्गदर्शन प्राप्‍त न होने के कारण उसकी स्‍थि‍ति‍  बि‍गड़ रही थी। मालवीय जी ने ‘नागरी प्रचारि‍णी सभा’ की गति‍वि‍धि‍यों में आरंभ से ही अत्‍यधि‍क रूचि‍ ली तथा ‘नागरी प्रचारि‍णी सभा’ को भी हि‍न्‍दी के प्रचार-प्रसार के कार्य में प्रगति‍शील बनाकर उसे एक प्रकार से पुनर्जीवि‍त कर दि‍या।

      जब मालवीय जी नागरी प्रचार आन्‍दोलन के मुखि‍या बने तब हि‍न्‍दी के सबसे बड़े वि‍रोधी सर सैययद अहमद खां का इन्‍ति‍काल हो चुका थापर मोहसुनुल मुल्‍क ने नागरी के वि‍रूद्ध घनघोर आन्‍दोलन शुरू कर दि‍या। लॉर्ड कर्जन की सरकार भी उनकी ओर झुकी जा रही थी पर मालवीय जी से टक्‍कर लेना भी टेढ़ी खीर थी। दि‍न-रात एक करके अपनी वकालत के सुनहरे दि‍नों में धुन के साथ मालवीय जी ने गहरी छानबीन के साथ नागरी के पक्ष में प्रमाण और आकड़े इकट्ठे कि‍ये। सैकड़ों जगह डेपुटेशन भेजे गए और हि‍न्‍दी भाषा और नागरी लि‍पि‍ की सुन्‍दरतासहजता और उपयोगि‍ता दि‍खाई गई। मालवीय जी ने वकालत करते हुए भी अपने मित्र पंडि‍त श्रीकृण जोशी के साथ मि‍लकर घोर परि‍श्रम कि‍या। अपने पास से रूपये खर्च करके उपरोक्‍त कोर्ट लि‍पि‍ का इति‍हासवि‍गत अधि‍कारि‍यों की सम्‍मति‍यां एकत्र करके एक बड़ी सुन्‍दर पुस्‍तक ‘कोर्ट कैरेक्‍टर एण्‍ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्‍टर्न प्रौवि‍न्‍सेज’ लि‍खी। यह अम्‍यर्थना लेख लेकर 2 मार्च सन् 1898 ई. को अयोध्‍या नरेश महराजा प्रताप नारायण सि‍हं मांडा के राजा राम प्रसाद सि‍हंआवागढ़ के राजा बलवंतडॉ. सुन्‍दर लाल आदि‍ के साथ मालवीय जी का एक दल गवर्न्‍मेंट हाउस प्रयाग में छोटे लाट साहब सर एन्‍टोनी मेक्‍डॉलेन से मि‍ला। मालवीय जी की मेहनत सफल हो गई। उनकी सब बातें मान ली गईं। अन्‍त में 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को सर ए.पी. मैक्‍डॉलेन ने एक वि‍ज्ञप्‍ति‍  (गवर्न्‍मेंन गजट) नि‍काली जि‍ससे अदालतों में तथा शासकीय कार्यों में नागरी को भी स्‍थान मि‍ल गया। लेकि‍न देश के हि‍न्‍दी वि‍रोधी लोगों ने इस पर खूब ऊधम मचाया। इस आदेश के वि‍रोध में जगह-जगह सभाएं की गई। प्रस्‍ताव भेजे गए कि‍ हि‍न्‍दी को इस प्रकार स्‍वीकार न कि‍या जाय। पर मालवीय जी भी अपने अभि‍यान में डटे रहे। हि‍न्‍दी के पक्ष में भी सभाएं हुईं प्रस्‍ताव भेजे गए। अत: लाट साबह तनि‍क भी वि‍चलि‍त न हुए और अन्‍त में बड़े लाट साहब की अनुमति‍ से यह नि‍यम बन गया कि‍ सभी लोग अपनी अर्जीशि‍कायत की दरखास्‍त चाहे हि‍न्‍दी या फारसी में दे सकते हैं। अदालतोंशासकीय कार्यालयों को निर्देश दे दि‍या गया कि‍ सभी कागजात जैसे सम्‍मन आदि‍जो सरकार की ओर से जनता के लि‍ए नि‍काले जायेंगे वह दोनों लि‍पि‍यों यानी नागरी और फारसी में लि‍खे अथवा भरे होंगे। सरकार ने इसके साथ ही यह भी ऐलान कर दि‍या कि‍ आगे कि‍सी भी व्‍यक्‍ति‍  को तभी सरकारी नौकरी मि‍ल सकेगी जब वह हि‍न्‍दी भाषा का भी जानकार हो। जो कर्मचारी हि‍न्‍दी नहीं जानते थे उन्‍हें एक साल के भीतर हि‍न्‍दी सीखने को कहा गया अन्‍यथा वे नौकरी से अलग कर दि‍ए जायेंगे। इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हि‍न्‍दी का प्रवेश संयुक्‍त प्रान्‍त के शासकीय कार्यालयों में हुआ।

      महामना हि‍न्‍दी के प्रति समर्पित थे। वे चाहते थे कि‍ शि‍क्षा का माध्‍यम भी हि‍न्‍दी हो। सन् 1882 ई्. में अंग्रेजों ने एक शि‍क्षा कमीशन बैठाया। इसका मुख्‍य उद्देश्‍य था कि‍ यह नि‍धार्रि‍त हो कि‍ शि‍क्षा का माध्‍यम क्‍या हो और शि‍क्षा कैसे दी जायेइस आयोग में साक्ष्‍य के लिए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा ‘भारतेन्‍दु’ हरि‍श्‍चन्‍द्र चुने गए थे। ‘भारतेन्‍दु’ अस्‍वस्‍थता के कारण आयोग के सम्‍मुख उपस्‍थि‍त  नहीं हो पाये। उन्‍होंने अपना लि‍खि‍त बयान आयोग को भेजा था। परन्‍तु महामना आयोग के सामने उपस्‍थि‍त हुए थे। उन्‍होंने अपने बयान में इस बात पर जोर दि‍या था कि‍ शि‍क्षा समस्‍त क्षेत्रों में दी जाय और वह हि‍न्‍दी भाषा में हो।

      महामना वर्ष 1886 ई. से कांग्रेस से जुडकर देश की राजनीति‍ में आजादी की लड़ाई का हि‍स्‍सा बन चुके थे। तभी से उनका सम्‍पर्क देश के बड़े राजनेताओं से हो गया था। धीरे-धीरे उनको देश के बड़े राजनेता के रूप में जाना जाने लगा। भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के 1909 के अधि‍वेशन के वह अध्‍यक्ष चुने गए। देश के व्‍यापक भ्रमण और गहन जन सर्म्‍पक से उन्‍हें यह स्‍पष्‍ट दि‍खने लगा कि‍ अनेक भाषाओं के इस देश में भारत के स्‍वतंत्र होने पर कि‍सी एक भाषा को सम्‍पर्क भाषा के लि‍ए राष्‍ट्रभाषा का रूप लेना पड़ेगा। उन्‍होंने देखा कि‍ देश के अधि‍कांश भूभाग में अधि‍क से अधि‍क लोग कि‍सी न कि‍सी प्रकार की हि‍न्‍दी बोलते और समझते थे। जबकि‍ देश की अन्‍य भाषाएं यद्यपि उतनी ही महत्‍वपूर्ण थी पर उनका दायरा सीमि‍त था। वे इतने वि‍शाल जनसमुदाय के द्वारा बोली और समझी नहीं जाती थीं। एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र को जोड़ने के लिए एक राष्‍ट्र भाषा के रूप में मालवीय जी ने हि‍न्‍दी की महत्‍ता को परखा। उन्‍होंने यह भी अनुभव कि‍या कि‍ देश के अहि‍न्‍दी भाषी क्षेत्रों में लोगों को हि‍न्‍दी जानने व समझने का मौका मि‍लना चाहि‍ए। अंत: सन् 1910 ई. में महामना के प्रयासों से काशी में ‘’हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन’’ की स्‍थापना हुई। मालवीय जी इसके प्रथम अध्‍यक्ष बने। धीरे-धीरे पूरे देश में ‘हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन’ की शाखाएं खोली गईं। इसके माध्‍यम से देश के अहि‍न्‍दी भाषी क्षेत्र के लोगों को हि‍न्‍दी पढ़ने व सीखने का अवसर मि‍ला। अपने स्‍वभाव के अनुरूप मालवीय जी ने हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन की स्‍थापना करने के बाद इसे आगे चलाने के लि‍ए बाबू पुरूषोत्‍तम दास टण्‍डन को सौंप दि‍या।

सन् 1918 में इन्‍दौर में हुए हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य सम्‍मेलन के अधि‍वेशन में महात्‍मा गांधी इसके अध्‍यक्ष बने। उनके नेतृत्‍व में हि‍न्‍दी के प्रचार का एक नया अध्‍याय शुरू  हुआ। उन्‍होंने दक्षि‍ण भारत में राष्‍ट्रभाषा हि‍न्‍दी-प्रचार का काम प्रारम्‍भ कि‍या। 1935 में दूसरी बार इन्‍दौर में हुए सम्‍मेलन के अधि‍वेशन को सम्‍बोधित करते हुए महात्‍मा गांधी ने अपने अध्‍यक्षीय भाषण में कहा कि‍ ‘’मेरा क्षेत्र दक्षि‍ण में हि‍न्‍दी-प्रचार है। सन् 1918 में जब आपका अधि‍वेशन यहां हुआ था तब से दक्षि‍ण में हि‍न्‍दी-प्रचार के कार्य का आरम्‍भ हुआ है।’’ महात्मा गांधी ने मालवीय जी के हि‍न्‍दी-प्रचार की प्रशंसा करते हुए कहा था ‘’सबसे पहला अधि‍वेशन सन् 1910 में हुआ था। उसके सभापति‍ मालवीय जी महाराज ही थे। उनसे बढ़ कर हि‍न्‍दी-प्रेमी भारत वर्ष में हमें कहीं नहीं मि‍लेगा। कैसा अच्‍छा होता यदि‍ वह आज भी इस पद पर होते। उनका हि‍न्‍दी प्रचार-क्षेत्र भारतव्‍यापी हैउनका हि‍न्‍दी का ज्ञान उत्‍कृष्‍ट है।’’

महात्‍मा गांधी मालवीय जी का बड़ा सम्‍मान करते थे। वे मालवीय जी के राष्‍ट्रभाषा हि‍न्‍दी सम्‍बन्‍धी वि‍चारों से पूर्णत: सहमत थे। महात्‍मा गांधी कहते थे कि‍ ‘’यह भाषा का वि‍षय बड़ा भारी और बड़ा महत्‍वपूर्ण है।’’

   अन्‍तत: हि‍न्‍दी के महत्‍व को सभी ने समझा। कालान्‍तर में कांग्रेस के अधि‍वेशन में हि‍न्‍दी को ही राष्‍ट्रभाषा बनाने के प्रस्‍ताव को स्‍वीकृति‍ प्राप्‍त हुई। स्‍वतंत्रता प्राप्‍ति‍ के बाद 14 सि‍तम्‍बर 1949 के दि‍न हि‍न्‍दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्‍वीकृत कि‍या गया। भारतीय संवि‍धान में राजभाषा हि‍न्‍दी के प्रबन्‍ध में अनुच्‍छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हि‍न्‍दी और लि‍पि‍ देवनागरी होगी।

आज इस देश के लोगों को शायद इस बात का अहसास भी न होगा कि‍ भारत में हि‍न्‍दी को वि‍श्‍ववि‍दयालयों में एक वि‍षय के रूप में कोई भी मान्‍यता प्राप्‍त नहीं थी। मालवीय जी ने बनारस हि‍न्‍दू वि‍श्‍ववि‍दयालय में हि‍न्‍दी को सर्वप्रथम एक वि‍षय के रूप में मान्‍यता दी। आज  हि‍न्‍दी में पढ़ाई सारे वि‍श्‍ववि‍दयालयों में प्रचलि‍त है। हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य के पुरोधा आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍लपंअयोध्‍या सि‍हं उपाध्‍याय ‘हरि‍औध’, आचार्य हजारी प्रसाद द्वि‍वेदी आदि‍ इसी वि‍श्‍ववि‍दयालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग के रत्‍न थे। मालवीय जी को हि‍न्‍दी के अखबारों का जनक कहना भी अति‍शयोक्‍ति‍ न होगी। कालाकॉकर (प्रतापगढ़) से ‘हि‍न्‍दुस्‍तान’ का संपादन करने के बाद उन्‍होंने प्रयाग से वर्ष 1907 में प्रकाशि‍त ‘अभ्‍युदय’ और उसके बाद ‘मर्यादा’ का संपादन कि‍या। इन समाचार पत्रों और इनके संपादकीय को जो सफलता और लोकप्रि‍यता मि‍ली वह अन्‍य समाचार पत्रों के लि‍ये मार्गदर्शक बनी।

वि‍श्‍व नाथ त्रि‍पाठी
बी-47 कौशाम्‍बीगाजि‍याबाद-201010

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

कौन हैं श्यामरुद्र पाठक : क्यों माँग रहे तमिल भाषा में न्याय

रिहा होते ही पाठक पहुंच जाते हैं सत्याग्रह करने 10 जनपथ 

नई दिल्ली। १ अप्रैल २०१३ 
आईआईटी की भाषा को बदल चुके श्याम रुद्र पाठक अब कानून की भाषा को बदलने के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं। कोर्ट की भाषा देश की भाषा हो, इसके लिए वे 4 दिसंबर २०१२ से लगातार यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास 10 जनपथ के सामने धरना देने पहुंचते हैं, जहां से तुगलक रोड थाने की पुलिस उन्हें हिरासत में लेकर थाने पहुंचा देती है। इस प्रकार ११४ दिन से पुलिस पाठक को हिरासत में ले रही है और 23 घंटे बाद रिहा कर दे रही है। रिहा होने के बाद वे फिर लौटकर 10 जनपथ धरना देने पहुंच जा रहे हैं। श्याम रुद्र पाठक वह शख्सियत हैं जिन्होंने दिल्ली आईआईटी में अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिन्दी भाषा में लिखी थी, जिसे संस्थान द्वारा स्वीकार नहीं किया जा रहा था। 

भगवत झा आजाद द्वारा यह मामला संसद में उठाया गया। इसके बाद पाठक की प्रोजेक्ट रिपोर्ट स्वीकार की गयी और आईआईटी में अंग्रेजी के अलावा हिन्दी भाषा में भी प्रोजेक्ट रिपार्ट लिखने का कानूनी हक छात्रों को मिल गया। पाठक के आंदोलन की देन है कि आईआईटी की प्रवेश परीक्षा या प्रश्नपत्र से अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता खत्म हो गई और वर्ष 1990 से अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी भाषा में भी प्रश्नपत्र जारी होने लगा। अभियांत्रिकी में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता को खत्म करा चुके पाठक अब कानून की भाषा को बदलने के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं। 

अपने दो साथियों विनोद कुमार पांडेय और गीता मिश्रा के साथ तुगलक रोड थाने से रिहा होने के बाद सोनिया गांधी के निवास, 10 जनपथ धरना देने पहुंचने पर श्याम रुद्र पाठक को हर दिन पुलिस ने हिरासत में ले लेती है । औपचारिक बातचीत के दौरान पाठक ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद-348 में न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है। 

वे न्यायालय की भाषा अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कराने के लिए सत्याग्रह कर रहे हैं और सरकार से संविधान में संशोधन की मांग कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं को अदालती कामकाज की भाषा बनाया जाए। जिससे वकीलों को अपनी भाषा में जिरह करने की छूट मिल सके और मुवक्किल को भी निर्णय की प्रति उसकी भाषा में मिल सके। ध्यातव्य है कि सत्याग्रह शुरू करने से पहले श्याम रुद्र पाठक तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी, लोकसभा अध्यक्ष, भाजपा अध्यक्ष समेत 30 जनप्रतिनिधियों को पत्र लिखकर इस हेतु अवगत करा चुके हैं। 

21 सितम्बर २०१२ को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आस्कर फर्नांडीस ने श्री पाठक को फोन कर बातचीत के लिए कांग्रेस मुख्यालय बुलाया था। इसके बाद 23 से 30 अक्टूबर के बीच पांच दौर की बातचीत कांग्रेस मुख्यालय में हुई। इस दौरान आस्कर ने बताया कि उन्होंने सोनिया गांधी को रिपोर्ट सौंप दी है। इसके अलावा तत्कालीन विधिमंत्री सलमान खुर्शीद को भी रिपोर्ट सौंपी जा चुकी है।

बहरहाल कैबिनेट में संविधान संशोधन के लिए विधेयक लाया जाएगा या नहीं, इसको लेकर कोई आश्वासन नहीं मिला। पाठक ने फिर 14 नवम्बर को सोनिया गांधी को पत्र लिखकर ध्यान आकर्षित किया। लेकिन जवाब नहीं मिलने पर 28 नवम्बर को उन्होंने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के अलावा आला नेताओं को पत्र लिखकर 4 दिसंबर २०१२ से सत्याग्रह करने का ऐलान कर दिया। न्याय एवं विकास अभियान संस्था के बैनर तले 4 दिसंबर २०१२ से वह लगातार अपने दो साथियों के साथ सोनिया गांधी के निवास के सामने धरना देने पहुंचते हैं और तुगलक रोड थाने की पुलिस उन्हें हिरासत में ले लेती है। महिला होने के नाते गीता मिश्रा को देर रात पुलिस अपनी जिप्सी में बैठाकर उनके घर छोड़ देती है और वह सुबह होते ही तुगलक रोड थाने आ जाती हैं।

चूंकि 24 घंटे तक पुलिस उन्हें कानूनी तौर पर थाने में नहीं रख सकती, लिहाजा 23 घंटे बाद रिहा कर दिया जाता है। मात्र तीन सत्याग्रही होने के नाते धारा 144 का उल्लंघन भी नहीं हो रहा है। ऐसे में पुलिस गिरफ्तार भी नहीं कर पा रही है। पाठक ने कहा कि उनका सत्याग्रह तब तक जारी रहेगा जब तक सरकार ठोस आश्वासन नहीं दे देती। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी हमारे ऊपर शासन करने वाले विदेशियों की भाषा है। अभिजात्य वर्ग की इस भाषा को खत्म करने के लिए उनका सत्याग्रह चलता रहेगा।