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रविवार, 23 नवंबर 2025

‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ जैसे अपमानजनक व औपनिवेशिक घोषणापत्रों पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में रिजर्व बैंक को मेरा पत्र

 दिनांक: 27.06.2025


सेवा में,
माननीय गवर्नर
भारतीय रिज़र्व बैंक
केंद्रीय कार्यालय भवन
शहीद भगत सिंह मार्ग
फोर्ट, मुंबई – ४००००१

विषय: बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों एवं क्रेडिट कार्ड कंपनियों द्वारा ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ जैसे अपमानजनक, औपनिवेशिक तथा असंवैधानिक घोषणापत्रों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में।

महोदय,

सविनय निवेदन है कि वर्तमान में भारत के लगभग सभी सार्वजनिक, निजी तथा सहकारी बैंक, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ तथा क्रेडिट कार्ड प्रदाता संस्थाएँ अपने ग्राहकों को ऋण, खाता, अनुबंध, आवेदन-पत्र, वचन-पत्र आदि सभी दस्तावेज़ केवल अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध कराती हैं।

यदि कोई ग्राहक इन दस्तावेज़ों पर हिन्दी, तमिल, मराठी, तेलुगु, बांग्ला आदि भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करता है, तो उससे ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ नामक एक औपचारिक शपथपत्र पर हस्ताक्षर करवाया जाता है, जिसकी भाषा भी केवल अंग्रेज़ी होती है। यह संपूर्ण प्रक्रिया न केवल असंवैधानिक, अपमानजनक व भेदभावपूर्ण है, बल्कि विधिक रूप से त्रुटिपूर्ण भी है।

१. संविधान की राजभाषा व्यवस्था का उल्लंघन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक भाग १७ में यह स्पष्ट किया गया है कि संघ की राजभाषा हिन्दी होगी तथा भारतीय भाषाओं को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। अंग्रेज़ी को केवल सहायक भाषा के रूप में सीमित अवधि हेतु स्वीकृत किया गया था। अतः यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में किए गए हस्ताक्षरों को कमतर मानकर अंग्रेज़ी में अतिरिक्त प्रमाण (घोषणापत्र) माँगा जाता है, जो कि संविधान की मूल भावना का स्पष्ट अपमान है।

२. अनुच्छेद १४ एवं १९(१)(क) का उल्लंघन

इस प्रकार की व्यवस्था, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वालों से कोई अतिरिक्त औपचारिकता नहीं माँगी जाती, किन्तु भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले ग्राहक से अलग से प्रमाणपत्र लिया जाता है, स्पष्टतः समानता के अधिकार (अनु. १४) एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनु. १९(१)(क)) का घोर उल्लंघन है।

३. ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ की भाषा स्वयं अंग्रेज़ी होना – विधिक धोखा

जिस व्यक्ति को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसी से यह घोषणापत्र अंग्रेज़ी में भरवाया जाता है, जिसमें यह लिखवाया जाता है कि "मैंने दस्तावेज़ पढ़े और समझे तथा अपनी इच्छा से हस्ताक्षर किए"। यह कथन सूचित सहमति (इनफॉर्म्ड कन्सेन्ट) के सिद्धांत की अवहेलना करता है। ऐसी स्थिति में सहमति विधिक रूप से अमान्य या खंडनीय (वॉयडेबल) मानी जाती है।  जिस व्यक्ति को अंग्रेजी नहीं आती है, उसी से अंग्रेजी में छपी हुई घोषणा पर हस्ताक्षर करवाना एक हद दर्जे की धोखेबाजी व जालसाजी है जिसे भारत के केंद्रीय बैंक ने आज तक रोका नहीं है, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

४. ‘‘वर्नाक्युलर’’ शब्द स्वयं औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक

ब्रिटिश शासन के दौरान ‘वर्नाक्युलर’ शब्द का प्रयोग भारतीय भाषाओं को हीन, असभ्य और अनुपयोगी सिद्ध करने हेतु किया गया था (जैसे – ‘‘वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, १८७८’’)। स्वतंत्र भारत में आज भी बैंकों द्वारा ग्राहकों से इस प्रकार के अपमानजनक शीर्षक वाले प्रपत्र भरवाना उनकी भाषिक गरिमा और सांविधिक अस्मिता के विरुद्ध है। बैंकों व वित्तीय संस्थाओं द्वारा वर्नाक्युलर शब्द का प्रयोग करने पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए, इसके स्थान पर भारतीय भाषा या स्टेट लैंग्वेज शब्द प्रयोग किए जाने चाहिए।

५. ग्राहक अधिकार संहिता का उल्लंघन

भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा दिनांक ३ दिसम्बर २०१४ को जारी ग्राहक अधिकार संहिता में यह स्पष्ट किया गया है कि:

  *   प्रत्येक ग्राहक को सम्मानजनक व्यवहार मिलना चाहिए (उचित व्यवहार का अधिकार)।
  *   ग्राहक को उत्पाद, शर्तें व जानकारी स्पष्ट एवं समझने योग्य भाषा में दी जानी चाहिए (सूचना का अधिकार)। एक विदेशी भाषा में दी गई जानकारी केवल धोखेबाजी है जिसके कारण करोड़ों लोग वित्तीय धोखाधड़ी में फँसते रहते हैं।
  *   सेवा ग्राहक की आवश्यकताओं एवं भाषिक उपयुक्तता के आधार पर दी जानी चाहिए (उपयुक्तता का अधिकार)।

‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ इस संहिता की मूल भावना का प्रत्यक्ष विरोध करता है।

६. अन्य लोकतांत्रिक देशों में ऐसी व्यवस्था नहीं

विश्व के कोई भी विकसित राष्ट्र – जैसे जर्मनी, जापान, फ्रांस, चीन आदि – अपने नागरिकों से यह नहीं लिखवाते कि ‘‘मैं अपनी भाषा में हस्ताक्षर कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती।’’ यह केवल भारत में ही होता है, जहाँ नागरिक को उसकी अपनी भाषिक अस्मिता के लिए घोषणापत्र के माध्यम से क्षमा याचना करवाई जाती है।

७. भाषा प्रौद्योगिकी व भारतीय भाषाओं में सेवा की उपेक्षा

भारत के बैंक, एनबीएफसी एवं क्रेडिट कार्ड कंपनियाँ प्रत्येक वर्ष हजारों करोड़ रुपये का लाभ अर्जित करती हैं। तथापि वे—

  *   आवेदन, वचन-पत्र, ऋण अनुबंध आदि केवल अंग्रेज़ी में देती हैं
  *   मोबाइल ऐप, वेबसाइट, एसएमएस सेवा, ग्राहक सहायता केवल अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं
  *   ग्राहक यदि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा में हस्ताक्षर करे, तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है

जबकि आज के युग में अत्यल्प लागत पर बहुभाषिक सेवा, अनुवाद, एसएमएस, ऑडियो-विज़ुअल व्याख्या, मोबाइल ऐप आदि भारत की २२ अनुसूचित भाषाओं में उपलब्ध कराए जा सकते हैं। यदि ये संस्थाएँ अपने वार्षिक लाभ का केवल ०.१% भी भाषा प्रौद्योगिकी पर व्यय करें तो प्रत्येक ग्राहक को उसकी भाषा में संपूर्ण सेवा दी जा सकती है। इस सुविधा का न दिया जाना सिर्फ़ उपेक्षा नहीं, बल्कि ग्राहक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

"जो वित्तीय संस्थाएँ हर वर्ष करोड़ों-अरबों का लाभ कमा रही हैं, वे यदि ग्राहक की भाषा में आवेदन-पत्र, ऋण समझौते, एसएमएस और सहायता उपलब्ध कराने हेतु नाममात्र की धनराशि भी नहीं लगातीं, तो यह आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक व प्रशासनिक उपेक्षा का विषय है — और यह स्थिति नियामकीय हस्तक्षेप की माँग करती है।”

आपसे सविनय अनुरोध है कि निम्नलिखित दिशा-निर्देश समस्त बैंकों, एनबीएफसी एवं वित्तीय संस्थाओं हेतु अनिवार्य रूप से जारी किए जाएँ—

  1.  "वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन" जैसे औपनिवेशिक एवं भेदभावपूर्ण घोषणापत्रों पर तत्काल रोक लगाई जाए।
  2.  प्रत्येक ग्राहक को सेवा प्रारंभ होते ही अपनी पसंद की भारतीय भाषा चुनने का विकल्प दिया जाए।
  3.  सभी आवेदन-पत्र, ऋण अनुबंध, प्रपत्र, मोबाइल ऐप, वेबसाइट, एसएमएस, ईमेल एवं ग्राहक सेवा हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराना अनिवार्य किया जाए।
  4.  भाषिक आधार पर कोई अतिरिक्त औपचारिकता थोपना या सेवा में देरी करना उत्पीड़न की श्रेणी में माना जाए।
  5.  भारतीय रिज़र्व बैंक एक "भाषिक अनुपालन लेखा परीक्षण" (लैंग्वेज कॉम्प्लायंस ऑडिट) प्रत्येक वित्तीय संस्था पर वार्षिक रूप से लागू करे।

आपसे निवेदन है कि इस विषय में शीघ्र हस्तक्षेप कर उचित निर्देश जारी कराए जाएँ जिससे भारत के करोड़ों ग्राहकों की भाषिक गरिमा, सूचना का अधिकार तथा न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित हो सके।

"जो वित्तीय संस्थाएँ अपने ग्राहकों से प्रति वर्ष करोड़ों-अरबों का लाभ कमा रही हैं, क्या वे अपने ग्राहकों की भाषिक गरिमा, समझ, अधिकार और संवैधानिक सम्मान हेतु नाममात्र की राशि भी भाषा प्रौद्योगिकी, अनुवाद, व बहुभाषिक डिजिटल सेवाओं पर नहीं खर्च कर सकतीं? यह न केवल ग्राहकों के साथ पक्षपात है, बल्कि भारतीय भाषाओं के साथ भी अन्याय है।"

भवदीय,

प्रवीण कुमार जैन (एम कॉम, एफसीएस, एलएलबी)

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