भारत के संविधान ने 14 सितंबर 1949 को देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया, जैसा कि अनुच्छेद 343 में निहित है। यह निर्णय एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान और बहुसंख्यक जनता की भाषा के प्रति सम्मान का प्रतीक था। स्वतंतत्रता के 75 वर्षों बाद भी, राजभाषा हिन्दी की प्रशासनिक उपेक्षा एक गहरा सत्य है जो देश के भाषाई और लोकतांत्रिक परिदृश्य पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। यह चिंता सिर्फ़ एक भाषा के भविष्य की नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक गणराज्य में बहुसंख्यक जनता के अधिकारों और शासन में उनकी भागीदारी की है।
*राजकाज और न्यायपालिका में अंग्रेज़ी का स्थायी वर्चस्व*
यह विडंबना है कि जिस भाषा को राजकाज की मुख्य भाषा घोषित किया गया, वह आज भी नौकरानी की भूमिका में है। अधिकांश सरकारी वार्तालाप और महत्वपूर्ण दस्तावेज़, विधेयक, अधिनियम और धारा 3(3) के अंतर्गत आने वाले सभी 14 दस्तावेज़ मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में तैयार किए जाते हैं। विधिक समझौतों, ज्ञापनों आदि के हिन्दी अनुवाद को प्रायः एक औपचारिकता मानकर, अस्पष्टता की स्थिति में मूल अंग्रेज़ी पाठ को ही प्रभावी मानने की अस्वीकृति के साथ प्रकाशित किया जाता है। यह अस्वीकृति स्वयं में राजभाषा की उपेक्षा, अपमान और उसकी द्वितीयक स्थिति का सबसे बड़ा प्रमाण है। क्या कोई स्वाभिमानी देश इसे स्वीकार कर सकता है।
न्याय के क्षेत्र में यह विसंगति और भी मुखर है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में वादी-प्रतिवादी के लिए अपनी भाषा (राजभाषा हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएँ) में न्याय की मांगना आज भी प्रतिबंधित है। न्यायाधीशों द्वारा राजभाषा में बात करने पर अवमानना की कार्रवाई की धमकी देना दिखाता है कि न्याय के मंदिर में भाषा की दीवार कितनी ऊँची खड़ी है। देश के कानून आज भी मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में ही तैयार होकर राष्ट्रपति की सम्मति के लिए भेजे जाते हैं और उनकी अधिसूचना भी अंग्रेज़ी में ही जारी होती है।
*हिंग्लिश का सुनियोजित प्रवेश: हिन्दी को कमज़ोर करने का षड्यंत्र*
2007 के बाद से सरकारी गलियारों में एक नया और खतरनाक चलन शुरू हुआ है। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के आधिकारिक भाषणों तथा सरकारी दस्तावेज़ों में हिंग्लिश को शनैःशनैः हिन्दी के नाम पर थोपा जा रहा है। यह प्रवृत्ति मूल हिन्दी को राजभाषा के रूप में कमजोर करने का एक दीर्घकालिक और सुनियोजित षड्यंत्र है। 2010 में राजभाषा विभाग ने परिपत्र जारी कर आधिकारिक रूप से अंग्रेजी शब्दावली व रोमन लिपि का जोरदार समर्थन किया था।
इस षड्यंत्र की जड़ें गहरी हैं:
1. *सरकारी दस्तावेज़ों में मिलावट*: हिंग्लिश के माध्यम से आधिकारिक हिन्दी से तत्सम और शुद्ध शब्दों को बाहर कर दिया जाता है, जिससे हिन्दी का प्रशासनिक शब्दकोश अंग्रेज़ी शब्दों पर निर्भर होता जा रहा है। हिन्दी के शब्दों को बार-2 कठिन कहकर दुष्प्रचार किया जा रहा है, यह हिन्दी के प्रशासनिक स्वरूप को खोखला कर रहा है।
2. *मीडिया द्वारा सामान्यीकरण*: सरकारी चैनल दूरदर्शन भी इस प्रवृत्ति में शामिल है, जो लगातार हिंग्लिश को 'आम जनता की भाषा' या 'युवाओं की भाषा' कहकर थोप रहा है। यह एक कृत्रिम आवश्यकता उत्पन्न करता है, जिससे लोग अपनी शुद्ध भाषा के प्रयोग के प्रति लज्जित अनुभव करने लगें, शुद्ध भाषा के नाम को भी अब गाली बना दिया गया है। यही काम हिन्दी फिल्मों ने किया, उर्दू व अरबी शब्दों को इतना लोकप्रिय बना गया और हिन्दी को उपहास व हँसी का पात्र बनाया गया। आप हिन्दी फिल्मों में समय (वक्त), परीक्षा(इम्तेहान), युद्ध (जंग), न्यायालय (अदालत), धारा(दफा), भारतीय दंड संहिता (ताजीराते हिन्द), सेना (फौज), दुर्घटना (हादसा), तिथि (तारीख), गति (ऱफ्तार) जैसे हजारों शब्द कभी सुन ही नहीं सकते क्योंकि सुनियोजित दीर्घकालिक योजना के अंतर्गत ऐसे शब्दों को संवादों से बाहर रखा गया। रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने दर्शकों को मूल हिन्दी से पुनः परिचित करवाया था। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों ने बची खुची कसर पूरी कर दी है अब हिन्दी फिल्म जगत उर्दू फारसी से आगे बढ़कर अंग्रेजी के आगे नतसमस्तक हो चला है।
3. *शैक्षिक घुसपैठ*: विद्यालयीन पाठ्यक्रम में भी हिन्दी के नाम पर हिंग्लिश थोपने के प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं। यदि बच्चे अपनी भाषा का शुद्ध रूप प्राथमिक स्तर पर नहीं सीखेंगे, तो अगली पीढ़ी के लिए हिंग्लिश ही 'सामान्य' हिन्दी बन जाएगी, जो भाषा के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। छात्रों से हिन्दी की गिनती तो पहले ही छीन ली गई, आज बच्चे तीस, चालीस और पचास क्या होता है, नहीं समझ सकते हैं।
*मीडिया में भाषा की पवित्रता का हनन*
निजी समाचार चैनलों और समाचार-पत्रों में भाषा की शुद्धता को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी गई है। संपादकों और संस्था मालिकों द्वारा स्पष्ट निर्देश दिए जाते हैं कि हर समाचार में 30 प्रतिशत तक अंग्रेज़ी और उर्दू के शब्द तथा 5-10 प्रतिशत तक रोमन लिपि का प्रयोग करना है। आज देश में हिन्दी में छपने वाला एक भी समाचार-पत्र नहीं बचा है, जो शुद्ध देवनागरी लिपि और मानक हिन्दी का प्रयोग करता हो। सभी अलग दिखने, 'आधुनिक' दिखने या एक विशिष्ट वर्ग को आकर्षित करने के नाम पर अंग्रेज़ी और रोमन लिपि की चरण वंदना कर रहे हैं। आटे में नमक तो अच्छा लगता है पर अब लोगों को नमक में आटा परोसा जा रहा है और कहा जा रहा है कि यही आपके स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है और डराया जा रहा है कि नमक में आटा नहीं खाओगे तो बच नहीं पाओगे।
यह केवल भाषाई मिश्रण नहीं है, बल्कि हिन्दी के सांस्कृतिक आत्म-सम्मान पर हमला है। हिन्दी की अपनी देवनागरी लिपि है, जो पूर्णतः वैज्ञानिक है, फिर भी रोमन लिपि को अनावश्यक रूप से थोपना हिन्दीभाषी पाठकों की समझ और उनकी भाषा की पहचान पर आघात है।
*डिजिटल अभिशासन और नागरिक भागीदारी से बहिष्कार*
डिजिटल युग में भी, हिन्दी को वह स्थान नहीं मिल पाया है जिसकी वह अधिकारी है। जुलाई 1997 में प्रधानमंत्री द्वारा केंद्र सरकार की वेबसाइटों को हिन्दी में बनाने के आदेश के बावजूद, 28 वर्षों बाद भी केंद्र सरकार की ऐसी कोई वेबसाइट नहीं है जो पूरी तरह से हिन्दी में हो।
इससे भी गंभीर बात यह है कि सरकार विभिन्न नीतियों और कानूनों के प्रारूपों पर जनता के सुझाव केवल अंग्रेज़ी में मांगती है। यह प्रक्रिया देश की बहुसंख्यक आबादी को नीति निर्माण की प्रक्रिया से बाहर कर देती है। बैंकों द्वारा अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर न करने वाले नागरिकों से एक 'वर्नाक्युलर घोषणा' (देशी भाषा की घोषणा) पर हस्ताक्षर करवाना, जिसमें उन्हें 'अनपढ़' की श्रेणी में रखा जाता है, अत्यंत निंदनीय है। यह भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का सीधा अपमान है।
*आत्म-सम्मान और जागरण की आवश्यकता*
हिन्दी को प्रशासनिक, शैक्षिक और मीडिया के स्तर पर जानबूझकर कमजोर किया जा रहा है। समस्या भाषा की अक्षमता में नहीं है, बल्कि यह शासन की इच्छाशक्ति की कमी और अंग्रेज़ी-परस्त वर्ग विशेष की मानसिकता में निहित है, जो औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है।
राजभाषा हिन्दी को उसका संवैधानिक स्थान और हिंग्लिश के इस षड्यंत्र से मुक्ति दिलाने के लिए केवल सरकारी आदेशों की नहीं, बल्कि एक व्यापक जन-जागरण और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यह तभी संभव होगा जब आम नागरिक अपनी भाषा में प्रशासन, न्याय, शिक्षा और रोज़गार की मांग करना शुरू करेगा। हिन्दी को 'कागज़ों तक सिमटने' से रोकने और 'हिंग्लिश' के खतरे से बचाने के लिए, हमें इसे वास्तव में जन-जन की राजभाषा बनाना होगा, जो प्रशासनिक और कानूनी रूप से भी सर्वोपरि हो।
*प्रवीण कुमार जैन*
(लेखक मुंबई में रहते हैं, सक्रिय भाषासेवी व कारपोरेट सलाहकार हैं)
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