अनुवाद

रविवार, 23 नवंबर 2025

'वर्नाक्युलर घोषणा': भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का अपमान

भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ दर्ज हैं। इन भाषाओं में हस्ताक्षर करना, बोलना और लिखना प्रत्येक भारतीय नागरिक का मूलभूत अधिकार और उसकी सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। परंतु, स्वतंत्रता के 78 वर्षों बाद भी, भारत की आर्थिक व्यवस्था और वित्तीय संस्थाएँ एक ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता को ढो रही हैं जो भारतीय भाषाओं को हीन और उनके उपयोगकर्ताओं को 'अनपढ़' मानती है। बैंक और वित्तीय संस्थाओं द्वारा हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों से कराई जाने वाली क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’ (वर्नाक्युलर घोषणा) इसी निंदनीय मानसिकता का स्पष्ट प्रमाण है। यह प्रथा न केवल भाषाई भेदभाव है, बल्कि करोड़ों नागरिकों के आत्म-सम्मान पर सीधा आघात है।

*क्या है ‘क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’?*

वर्नाक्युलर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'किसी क्षेत्र की स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा'। वित्तीय संस्थाओं, विशेषकर बैंकों, में यह घोषणा-पत्र उन ग्राहकों से भरवाया जाता है जो अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर नहीं करते हैं, बल्कि हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, या किसी भी अन्य भारतीय भाषा (जिसे वे 'क्षेत्रीय भाषा' (वर्नाक्युलर लैंग्वेज) कहते हैं) में हस्ताक्षर करते हैं। इस घोषणा पर हस्ताक्षर करके ग्राहक एक तरह से यह स्वीकार करता है कि:

  • वह अंग्रेज़ी नहीं जानता है।
  • उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की सामग्री को समझने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता है।
  • कुछ मामलों में, इसे सीधे तौर पर 'अनपढ़' या ‘अंगूठा लगाने वाले’ व्यक्ति की श्रेणी में रखा जाता है।

यह प्रावधान मूल रूप से अंग्रेज़ी शासन के दौरान उन ग्रामीण और अनपढ़ नागरिकों के लिए बनाया गया था, जो किसी भी भाषा में पढ़ने या हस्ताक्षर करने में सक्षम नहीं थे, और उन्हें धोखाधड़ी से बचाने के लिए किसी शिक्षित गवाह की आवश्यकता होती थी। यह अत्यंत खेदजनक है कि भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले साक्षर नागरिकों को भी आज उसी श्रेणी में रखा जा रहा है।

*साक्षरता और भाषा की भ्रामक पहचान*

इस घोषणा का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि यह साक्षरता को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़कर देखता है। भारत में करोड़ों नागरिक उच्च शिक्षित हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से पूरी की है और वे अपनी भाषा में लिखने-पढ़ने में पूर्णतः सक्षम हैं। एक डॉक्टर, इंजीनियर, या सरकारी अधिकारी भी, जो अपनी पहचान और सम्मान के लिए हिन्दी या तमिल में हस्ताक्षर करता है, उसे इस घोषणा के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से 'अशिक्षित' या 'समझ से कम' मान लिया जाता है।

यह न केवल भाषाई रूढ़िवादिता है, बल्कि राष्ट्र के संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। संविधान की राजभाषा हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने पर यदि बैंक किसी नागरिक से यह घोषणा करवाते हैं कि 'मेरे सामने पढ़ा गया और मैंने समझा', तो यह स्पष्ट करता है कि बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली आज भी मानती है कि ज्ञान का एकमात्र पैमाना अंग्रेज़ी भाषा ही है।

*अधिकारों का हनन और गोपनीयता का उल्लंघन*

जब किसी ग्राहक को यह घोषणापत्र भरना पड़ता है, तो उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की गोपनीयता बनाए रखने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति (साक्षी) पर निर्भर रहना पड़ता है। यह ग्राहक की व्यक्तिगत वित्तीय जानकारी और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन है। यदि ग्राहक अपनी भाषा में दस्तावेज़ पढ़ और समझ सकता है, तो उसे किसी तीसरे व्यक्ति की क्या आवश्यकता है? यह प्रक्रिया अनावश्यक रूप से ग्राहक की वित्तीय प्रक्रिया को जटिल बनाती है और उसे एक हीन भावना से भर देती है।

*भारतीय रिज़र्व बैंक को पत्र और नियामक का हस्तक्षेप*

इस अपमानजनक प्रथा को समाप्त करने के लिए लेखक ने दिनांक 27 जून 2025 को एक विस्तृत पत्र भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर तथा वित्त मंत्रालय को भेजा था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि "वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन" न केवल असंवैधानिक (अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन) है, बल्कि जिस ग्राहक को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसी से यह घोषणापत्र अंग्रेज़ी में भरवाना एक "हद दर्जे की धोखेबाजी व जालसाजी" है।

पत्र में यह भी तर्क दिया गया था कि यह प्रावधान आरबीआई की ग्राहक अधिकार संहिता का उल्लंघन है, जिसमें ग्राहक को समझने योग्य भाषा में सूचना प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।

*आरबीआई की प्रतिक्रिया (दिनांक 11 अगस्त 2025):*

आरबीआई ने अपने उत्तर में स्वीकार किया कि उनके द्वारा जारी विभिन्न मास्टर निदेश और परिपत्र यह सुनिश्चित करते हैं कि:

  1. उधारकर्ता के लिए सभी संसूचना स्थानीय भाषा अथवा उधारकर्ता द्वारा समझी जानी वाली भाषा में होनी चाहिए।
  2. ऋणों और अग्रिमों के लिए मुख्य तथ्य विवरण (केएफसी) उधारकर्ता द्वारा समझी जाने वाली भाषा में लिखा जाएगा।
  3. बैंकों को खाता खोलने के फॉर्म, पास-बुक आदि सहित ग्राहकों द्वारा उपयोग में लाई जानेवाली सभी मुद्रित सामग्री को त्रैभाषिक रूप से (संबंधित क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी व अंग्रेज़ी) में उपलब्ध कराना चाहिए।

आरबीआई ने स्वयं द्वारा जारी किए गए इन नियमों का उल्लेख करते हुए, इस मामले की गंभीरता को स्वीकार किया और सूचित किया कि इस विषय से संबंधित ईमेल को "निरीक्षण विभाग को उचित कार्यवाही के लिए अग्रेषित किया गया है।"

आरबीआई के अपने नियम स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि ग्राहकों को उनकी भाषा में संसूचना मिलनी चाहिए। ऐसे में, किसी साक्षर नागरिक से उसकी अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर, उसे अतिरिक्त और अपमानजनक 'वर्नाक्युलर घोषणा' करने के लिए बाध्य करना नियामक के ही निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। यह तथ्य कि एक नागरिक की शिकायत पर केंद्रीय बैंक ने मामले को निरीक्षण के लिए भेजा है, यह दर्शाता है कि यह औपनिवेशिक प्रथा अब नियामकीय जाँच के दायरे में आ चुकी है।

*आत्म-सम्मान की बहाली आवश्यक*

'क्षेत्रीय भाषा की घोषणा' केवल एक कागज़ी औपचारिकता नहीं है; यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक संस्थागत पूर्वाग्रह है। आरबीआई द्वारा अपने ही नियमों का हवाला देने और मामले को निरीक्षण विभाग को भेजने के बाद, अब वित्तीय संस्थाओं को इस प्रथा को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।

बैंकिंग प्रणाली को यह स्वीकार करना होगा कि साक्षरता का अर्थ अंग्रेज़ी साक्षरता नहीं है। यदि किसी नागरिक का खाताधारक पहचान पत्र (केवाईसी) साक्षरता प्रमाणित करता है, तो उसे अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर अतिरिक्त और अपमानजनक घोषणा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।

यह समय है कि भारत की वित्तीय संस्थाएँ भाषाई आत्म-सम्मान को प्राथमिकता दें और अपनी ही भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले देश के करोड़ों साक्षर नागरिकों को 'अनपढ़' की श्रेणी से बाहर निकालें। यह सुनिश्चित करना अब भारतीय रिज़र्व बैंक के निरीक्षण विभाग की ज़िम्मेदारी है, ताकि हमारा बैंकिंग तंत्र समावेशी और वास्तव में भारतीय कहलाए।

 

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