विशेष लेख: विश्व नाथ त्रिपाठी
[यह
आलेख 'पत्र-सूचना
कार्यालय, भारत सरकार की वेबसाइट से लिया गया है]
बहुमुखी प्रतिभा के धनी महामना पंडित
मदन मोहन मालवीय का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक था। सन् 1861 में प्रयाग में उनका
जन्म हुआ था। वे एक महान देश भक्त, स्वतंत्रता सेनानी विधिवत्ता, संस्कृत
वाड्.मय और अंग्रेजी के विद्वान, शिक्षाविद , पत्रकार और प्रखर वक्ता थे। उस युग में 25 वर्ष की आयु में उनमें इतनी
राष्ट्रीय चेतना थी कि उन्होंने 1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे
अधिवेशन में भाग लिया और उसे संबोधित किया। वे सन् 1909, 1918, 1932 और 1933 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
के अध्यक्ष चुने गए। सन् 1931 में उन्होंने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भारत का
प्रतिनिधित्व भी किया।
राष्ट्रीय आंदोलन में अपना पूर्ण् योगदान देने के उद्देश्य से महामना ने
1909 में वकालत छोड़ दी यदयपि उस समय वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पंडित मोती
लाल नेहरू और सर सुन्दर लाल जैसे प्रथम श्रेणी के वकीलों में गिने जाते थे। लकिन
दस साल बाद उन्होंने चौरा-चौरी कांड के मृत्युदण्ड के सजायाफ्ता 156 बागी स्वतंत्रता
सेनानियों की पैरवी की और उनमें से 150 को बरी करा लिया।
यदि
कभी कोई इतिहासकार स्वतंत्रता आंदोलन का वास्तिवक मूल्यांकन करेगा तो महामना
का योगदान लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के समकक्ष आंकने को बाध्य होगा।
लेकिन इसे एक विडम्बना ही कहना चाहिए कि उस देश में उनका नाम अधिकांश लोग
केवल ‘बनारस हिन्दू विश्वविदयालय’ के संस्थापाक तथा एक महान शिक्षाविद् के रूप में ही जानते हैं। वास्तव
में महामना अपने द्वारा किये गए कार्यों का न तो स्वयं प्रचार करते थे और न
चाहते थे कि उनके द्वारा किए गए सद्कार्यों का कोई दूसरा भी प्रचार करें। वे सही
मायने में एक कर्मयोगी थे। मालवीय जी अपने द्वारा शुरू किये कार्य को किसी योग्य
व्यक्ति को सौंपकर दूसरे नए कार्य में जुट जाते थे। उनके नाम का कहीं उल्लेख न
हो इस बात पर वह इतना ध्यान देते थे कि अपने बनाए अपने
घरों के बाहर भी उन्होंने अपना नाम कभी नहीं लिखवाया।
19 वीं शताब्दी में नव जागरण और राष्ट्रीय चेतना का स्फुरण हो रहा था।
एक तरफ युवकों में राष्ट्रीय चेतना अंकुरित हो रही थी तो दूसरी तरफ मैकाले के
जोर देने पर कम्पनी सरकार ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रचार का प्रस्ताव पास
कर दिया, एतदर्थ देश में यत्र-तत्र अंग्रेजी के स्कूल
खोले जाने लगे। अब प्रश्न उठा अदालती भाषा का और स्कूलों में हिन्दी को एक
अनिवार्य विषय के रूप में रखने का। इन दोनों बातों में हिन्दी का घोर विरोध
हुआ। इस विरोध की कहानी भी बहुत रोचक है। मुगलकाल में अदालतों की भाषा फारसी चल आ
रही थी। अंग्रेजी-शासन काल में भी प्रारंभ में यही परम्परा चलती रही किन्तु
सर्वसाधारण जनता की फारसी-भाषा और उसकी लिपि सम्बन्धी कठिनाइयों को देखकर सन्
1836 में कम्पनी सरकार ने आज्ञा जारी की कि सारा अदालती काम देश की प्रचलित
भाषाओं में हुआ करे। इसके परिणाम स्वरूप संयुक्त प्राइज़ में हिन्दी खड़ी
बोली को वहां की अदालती भाषा स्वीकार कर लिया गया। सारा अदालती कार्य हिन्दी
भाषा और लिपि में होने लगा। कम्पनी सरकार भाषा संबंधी इस नीति पर चिरकाल तक न
टिक सकी। केवल एक साल के पश्चात् उत्तरी भारत के सब दफ्तरों की भाषा उर्दू कर दी गई। यह सब मुसलमानों के विरोध के कारण हुआ। इस प्रकार मान-मर्यादा
और आजीविका की दृष्टि से सबके लिये उर्दू सीखना आवश्यक हो गया और देश-भाषा के
नाम पर स्कूलों में छात्रों को उर्दू पढाई जाने लगी। इस प्रकार हिन्दी तथा अन्य
भारतीय भाषाओं के पढ़ने वालों की संख्या दिन प्रतीदिन कम होने लगे।
हिन्दी को अदालतों से बाहर निकालने के
कार्य में तो मुसलमानों को सफलता मिल चुकी थी, अब वे इसे शिक्षा क्षेत्र से बाहर निकालने में
प्रयत्नशील थे। जब सरकार स्कूलों और मदरसों में हिन्दी के अनिवार्य रूप से
पढ़ाये जाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही थीं तब प्रभावशाली मुसलमानों-सर सैय्यद
अहमद खां आदि ने उसका उ्ग्र विरोध किया। अन्तत: 1884 में सरकार को अपना विचार
छोड़ना पडा। सर सैय्यद अहमद खां का अंग्रेजों के बीच बड़ा मान था। वे हिन्दी को
एक ‘गंवारू’ भाषा समझते थे।
वे अंग्रेजी को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार कोशिश करते रहे। इसी समय राजा शिव
प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का
इस क्षेत्र में आगमन हुआ। वे भी अंग्रेजों के कृपा पात्र थे और हिन्दी के परम
पक्षपाती थे। अंत: हिन्दी की रक्षा के लिए उन्हें खड़ा होना पड़ा। वे इस कार्य
में बराबर चेष्ठाशील रहे। यह झगड़ा बीसों वर्ष तक ‘भारतेन्दु’ हरिश्चंद्र के समय तक रहा।
इस हिन्दी-उर्दू संघर्ष में राजा शिव
प्रसाद ‘सितारे हिन्द’ के समय में ही राजा लक्ष्मण सिंह भी हिन्दी के संरक्षक बन कर सामने
आये। अनेक विघ्न-बाधाओं के होने पर भी शिव प्रसाद ने हिन्दी के उद्धार-कार्य
में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्हीं के प्रयत्नों से कम्पनी सरकार को स्कूलों
में हिन्दी शिक्षा को स्थान देना पडा।
जिस प्रकार दोनों राजाओं के सप्रयत्नों
से संयुक्त प्रान्त में हिन्दी का प्रचार कार्य आरम्भ हुआ, उसी प्रकार उनके समसामयिक बाबू
नवीन चन्द्र राय ने पंजाब में समाज सुधार तथा हिन्दी-प्रचार कार्य आरम्भ किया।
बंगाल में राजा राममोहन राय वेदान्त और उपिनषदों का ज्ञान लेकर आगे आये और उन्होंने
वहां ‘ब्रह्म-समाज’ की स्थापना
की। उन्होंने वेदान्त-सूत्र का हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित कराया।
उधर उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द
सरस्वती ने वैदिक धर्म-प्रचार और ‘आर्य समाज’ की स्थापना कर
जनता को अपनी ओर आकार्षित किया। उन्होंने हिन्दुस्तान को आर्यावर्त तथा हिन्दी
को आर्य भाषा का नाम दिया तथा प्रत्येक आर्य के लिए आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक
ठहराया। स्वामी दयानन्द तथा उनके द्वारा स्थापित ‘आर्य
समाज’ ने हिन्दी भाषा के प्रचार में जो महत्वपूर्ण
कार्य किया, वह चिरस्मरणीय है।
अब देश में इस प्रकार का वातावरण बन रहा
था कि संयुक्त प्रान्त (आज के उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड) के बुद्धिजीवियों
के लिए यह बर्दाश्त करना असंभव होने लगा था कि सुसंस्कृत तथा समृद्ध भाषा हिन्दी
के होते हुए भी पराधीन होने के कारण प्रान्त की जनता को समस्त राजकीय कार्य में
विदेशी भाषा फारसी अथवा अंग्रेजी का प्रयोग करना पड़े। अंत: 19 वीं शताब्दी के
मध्य तक आते-आते अनेक स्वाभिमानी देशभक्त बुद्धिजीवियों ने इस बात का बीड़ा
उठाया कि प्रदेश में विदेशी भाषा की जगह ‘निज भाषा’ के प्रयोग की
शासकीय अनुमति मिल जाय। इस कड़ी में अत्यन्त महातवपूर्ण प्रयास राजा शिवप्रसाद
द्वारा भी सन् 1868 में किया गया जो उपर्युक्त विदशेी लिपियों के हिमायतियों
के विरोध के कारण सफल न हो सका।
राजा शिव प्रसाद की भांति बहुतों ने
अदालतों में देवनागरी लिपि के प्रवेश के लिये जब-तब छिटपुट प्रयत्न किया
लेकिन सभी असफल रहे। 1848 में प्रयाग में हिन्दी उद्धारिणी-प्रतिनिधि मध्यसभा
की स्थापना हुई। मालवीय जी ने इसमें जी खोलकर काम किया, व्यारव्यान दिए, लेख लिखे और अपने मित्रों को भी उस काम में भाग लेने के लिए उत्प्रेरित
किया। उन्होंने नए सिरे से अदालतों में नागरी के प्रवेश का प्रयन्त किया।
मालवीय जी ने इस बात पर गम्भीरता से विचार किया कि अब तक इस दिशा में क्यों
सफलता नहीं मिली। महामना ने व्यवस्थित ढंग से इस काम को हाथ में लिया। एक ओर
तो उन्होंने देवनागरी लिपि के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान की योजना शुरू की
दूसरी ओर बहुत सी सामग्री एकत्रित कर ‘कोर्ट कैरेक्टर
एण्ड प्राइमरी एजूकेशन’ नाम की पुस्तक लिखी। इसमें
हिन्दी का प्रयोग सरकारी कामकाज में क्यों किया जाय इसकी प्रचुर सामग्री थी।
इसी प्रकार आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता ‘भारतेन्दु’ हरिश्चंद्र द्वारा काशी में स्थापित ‘नागर
प्रचारिणी सभा’ भी नागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में
लगी थी। किन्तु मुचित मार्गदर्शन प्राप्त न होने के कारण उसकी स्थिति बिगड़ रही थी। मालवीय जी ने ‘नागरी प्रचारिणी
सभा’ की गतिविधियों में आरंभ से ही अत्यधिक रूचि
ली तथा ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ को भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार के कार्य में प्रगतिशील बनाकर उसे एक
प्रकार से पुनर्जीवित कर दिया।
जब मालवीय जी नागरी प्रचार आन्दोलन के मुखिया बने तब हिन्दी के सबसे
बड़े विरोधी सर सैययद अहमद खां का इन्तिकाल हो चुका था, पर मोहसुनुल मुल्क ने नागरी के विरूद्ध घनघोर आन्दोलन शुरू कर दिया।
लॉर्ड कर्जन की सरकार भी उनकी ओर झुकी जा रही थी पर मालवीय जी से टक्कर लेना भी
टेढ़ी खीर थी। दिन-रात एक करके अपनी वकालत के सुनहरे दिनों में धुन के साथ
मालवीय जी ने गहरी छानबीन के साथ नागरी के पक्ष में प्रमाण और आकड़े इकट्ठे किये।
सैकड़ों जगह डेपुटेशन भेजे गए और हिन्दी भाषा और नागरी लिपि की सुन्दरता, सहजता और उपयोगिता दिखाई गई। मालवीय जी ने वकालत करते हुए भी अपने मित्र
पंडित श्रीकृण जोशी के साथ मिलकर घोर परिश्रम किया। अपने पास से रूपये खर्च
करके उपरोक्त कोर्ट लिपि का इतिहास, विगत अधिकारियों
की सम्मतियां एकत्र करके एक बड़ी सुन्दर पुस्तक ‘कोर्ट
कैरेक्टर एण्ड प्रायमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्टर्न प्रौविन्सेज’ लिखी। यह अम्यर्थना लेख लेकर 2 मार्च सन् 1898 ई. को अयोध्या नरेश
महराजा प्रताप नारायण सिहं मांडा के राजा राम प्रसाद सिहं, आवागढ़ के राजा बलवंत, डॉ. सुन्दर लाल आदि के
साथ मालवीय जी का एक दल गवर्न्मेंट हाउस प्रयाग में छोटे लाट साहब सर एन्टोनी
मेक्डॉलेन से मिला। मालवीय जी की मेहनत सफल हो गई। उनकी सब बातें मान ली गईं।
अन्त में 18 अप्रैल सन् 1900 ई. को सर ए.पी. मैक्डॉलेन ने एक विज्ञप्ति (गवर्न्मेंन गजट) निकाली जिससे अदालतों में तथा शासकीय कार्यों में
नागरी को भी स्थान मिल गया। लेकिन देश के हिन्दी विरोधी लोगों ने इस पर खूब
ऊधम मचाया। इस आदेश के विरोध में जगह-जगह सभाएं की गई। प्रस्ताव भेजे गए कि हिन्दी
को इस प्रकार स्वीकार न किया जाय। पर मालवीय जी भी अपने अभियान में डटे रहे। हिन्दी
के पक्ष में भी सभाएं हुईं प्रस्ताव भेजे गए। अत: लाट साबह तनिक भी विचलित न
हुए और अन्त में बड़े लाट साहब की अनुमति से यह नियम बन गया कि सभी लोग अपनी
अर्जी, शिकायत की दरखास्त चाहे हिन्दी या फारसी में
दे सकते हैं। अदालतों, शासकीय कार्यालयों को निर्देश दे
दिया गया कि सभी कागजात जैसे सम्मन आदि, जो सरकार
की ओर से जनता के लिए निकाले जायेंगे वह दोनों लिपियों यानी नागरी और फारसी
में लिखे अथवा भरे होंगे। सरकार ने इसके साथ ही यह भी ऐलान कर दिया कि आगे किसी
भी व्यक्ति को तभी सरकारी नौकरी मिल सकेगी जब
वह हिन्दी भाषा का भी जानकार हो। जो कर्मचारी हिन्दी नहीं जानते थे उन्हें एक
साल के भीतर हिन्दी सीखने को कहा गया अन्यथा वे नौकरी से अलग कर दिए जायेंगे।
इस प्रकार मालवीय जी के अथक प्रयास से हिन्दी का प्रवेश संयुक्त प्रान्त के
शासकीय कार्यालयों में हुआ।
महामना हिन्दी के प्रति समर्पित थे। वे चाहते थे कि शिक्षा का माध्यम
भी हिन्दी हो। सन् 1882 ई्. में अंग्रेजों ने एक शिक्षा कमीशन बैठाया। इसका
मुख्य उद्देश्य था कि यह निधार्रित हो कि शिक्षा का माध्यम क्या हो और शिक्षा
कैसे दी जाये? इस आयोग में साक्ष्य के लिए महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तथा ‘भारतेन्दु’ हरिश्चन्द्र चुने गए थे। ‘भारतेन्दु’ अस्वस्थता के कारण आयोग के सम्मुख
उपस्थित नहीं हो पाये। उन्होंने अपना लिखित
बयान आयोग को भेजा था। परन्तु महामना आयोग के सामने उपस्थित हुए थे। उन्होंने
अपने बयान में इस बात पर जोर दिया था कि शिक्षा समस्त क्षेत्रों में दी जाय और
वह हिन्दी भाषा में हो।
महामना वर्ष 1886 ई. से कांग्रेस से जुडकर देश की राजनीति में आजादी की
लड़ाई का हिस्सा बन चुके थे। तभी से उनका सम्पर्क देश के बड़े राजनेताओं से हो
गया था। धीरे-धीरे उनको देश के बड़े राजनेता के रूप में जाना जाने लगा। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के 1909 के अधिवेशन के वह अध्यक्ष चुने गए। देश के व्यापक
भ्रमण और गहन जन सर्म्पक से उन्हें यह स्पष्ट दिखने
लगा कि अनेक भाषाओं के इस देश में भारत के स्वतंत्र होने पर किसी एक भाषा को
सम्पर्क भाषा के लिए राष्ट्रभाषा का रूप लेना पड़ेगा। उन्होंने देखा कि देश
के अधिकांश भूभाग में अधिक से अधिक लोग किसी न किसी प्रकार की हिन्दी बोलते
और समझते थे। जबकि देश की अन्य भाषाएं यद्यपि उतनी ही महत्वपूर्ण थी पर उनका
दायरा सीमित था। वे इतने विशाल जनसमुदाय के द्वारा बोली और समझी नहीं जाती थीं।
एक स्वतंत्र राष्ट्र को जोड़ने के लिए एक राष्ट्र भाषा के रूप में मालवीय जी ने
हिन्दी की महत्ता को परखा। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि देश के अहिन्दी
भाषी क्षेत्रों में लोगों को हिन्दी जानने व समझने का मौका मिलना चाहिए। अंत:
सन् 1910 ई. में महामना के प्रयासों से काशी में ‘’हिन्दी
साहित्य सम्मेलन’’ की स्थापना हुई। मालवीय जी इसके
प्रथम अध्यक्ष बने। धीरे-धीरे पूरे देश में ‘हिन्दी
साहित्य सम्मेलन’ की शाखाएं खोली गईं। इसके माध्यम
से देश के अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को हिन्दी पढ़ने व सीखने का अवसर मिला।
अपने स्वभाव के अनुरूप मालवीय जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना
करने के बाद इसे आगे चलाने के लिए बाबू पुरूषोत्तम दास टण्डन को सौंप दिया।
सन् 1918 में इन्दौर में हुए हिन्दी
साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में महात्मा गांधी इसके अध्यक्ष बने। उनके
नेतृत्व में हिन्दी के प्रचार का एक नया अध्याय शुरू हुआ। उन्होंने दक्षिण
भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी-प्रचार का काम प्रारम्भ किया। 1935 में दूसरी
बार इन्दौर में हुए सम्मेलन के अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए महात्मा गांधी
ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि ‘’मेरा क्षेत्र
दक्षिण में हिन्दी-प्रचार है। सन् 1918 में जब आपका अधिवेशन यहां हुआ था तब से
दक्षिण में हिन्दी-प्रचार के कार्य का आरम्भ हुआ है।’’ महात्मा गांधी ने मालवीय जी के हिन्दी-प्रचार की प्रशंसा करते हुए कहा
था ‘’सबसे पहला अधिवेशन सन् 1910 में हुआ था। उसके
सभापति मालवीय जी महाराज ही थे। उनसे बढ़ कर हिन्दी-प्रेमी भारत वर्ष में हमें
कहीं नहीं मिलेगा। कैसा अच्छा होता यदि वह आज भी इस पद पर होते। उनका हिन्दी
प्रचार-क्षेत्र भारतव्यापी है; उनका हिन्दी का ज्ञान
उत्कृष्ट है।’’
महात्मा गांधी मालवीय जी का बड़ा सम्मान
करते थे। वे मालवीय जी के राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्बन्धी विचारों से पूर्णत:
सहमत थे। महात्मा गांधी कहते थे कि ‘’यह भाषा का विषय बड़ा भारी और बड़ा महत्वपूर्ण है।’’
अन्तत:
हिन्दी के महत्व को सभी ने समझा। कालान्तर में कांग्रेस के अधिवेशन में हिन्दी
को ही राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव को स्वीकृति प्राप्त हुई। स्वतंत्रता
प्राप्ति के बाद 14 सितम्बर 1949 के दिन हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप
में स्वीकृत किया गया। भारतीय संविधान में राजभाषा हिन्दी के प्रबन्ध में
अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।
आज इस देश के लोगों को शायद इस बात का
अहसास भी न होगा कि भारत में हिन्दी को विश्वविदयालयों में एक विषय के रूप
में कोई भी मान्यता प्राप्त नहीं थी। मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविदयालय
में हिन्दी को सर्वप्रथम एक विषय के रूप में मान्यता दी। आज हिन्दी में पढ़ाई सारे
विश्वविदयालयों में प्रचलित है। हिन्दी साहित्य के पुरोधा आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल, पं; अयोध्या सिहं
उपाध्याय ‘हरिऔध’, आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि इसी विश्वविदयालय के हिन्दी विभाग के रत्न थे।
मालवीय जी को हिन्दी के अखबारों का जनक कहना भी अतिशयोक्ति न होगी। कालाकॉकर
(प्रतापगढ़) से ‘हिन्दुस्तान’ का संपादन करने के बाद उन्होंने प्रयाग से वर्ष 1907 में प्रकाशित ‘अभ्युदय’ और उसके बाद ‘मर्यादा’ का संपादन किया। इन समाचार पत्रों और
इनके संपादकीय को जो सफलता और लोकप्रियता मिली वह अन्य समाचार पत्रों के लिये
मार्गदर्शक बनी।
विश्व नाथ त्रिपाठी
बी-47 कौशाम्बी, गाजियाबाद-201010