अनुवाद

रविवार, 23 नवंबर 2025

'वर्नाक्युलर घोषणा': भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का अपमान

भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, जहाँ संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएँ दर्ज हैं। इन भाषाओं में हस्ताक्षर करना, बोलना और लिखना प्रत्येक भारतीय नागरिक का मूलभूत अधिकार और उसकी सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है। परंतु, स्वतंत्रता के 78 वर्षों बाद भी, भारत की आर्थिक व्यवस्था और वित्तीय संस्थाएँ एक ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता को ढो रही हैं जो भारतीय भाषाओं को हीन और उनके उपयोगकर्ताओं को 'अनपढ़' मानती है। बैंक और वित्तीय संस्थाओं द्वारा हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों से कराई जाने वाली क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’ (वर्नाक्युलर घोषणा) इसी निंदनीय मानसिकता का स्पष्ट प्रमाण है। यह प्रथा न केवल भाषाई भेदभाव है, बल्कि करोड़ों नागरिकों के आत्म-सम्मान पर सीधा आघात है।

*क्या है ‘क्षेत्रीय भाषा की घोषणा’?*

वर्नाक्युलर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'किसी क्षेत्र की स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा'। वित्तीय संस्थाओं, विशेषकर बैंकों, में यह घोषणा-पत्र उन ग्राहकों से भरवाया जाता है जो अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर नहीं करते हैं, बल्कि हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, या किसी भी अन्य भारतीय भाषा (जिसे वे 'क्षेत्रीय भाषा' (वर्नाक्युलर लैंग्वेज) कहते हैं) में हस्ताक्षर करते हैं। इस घोषणा पर हस्ताक्षर करके ग्राहक एक तरह से यह स्वीकार करता है कि:

  • वह अंग्रेज़ी नहीं जानता है।
  • उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की सामग्री को समझने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता है।
  • कुछ मामलों में, इसे सीधे तौर पर 'अनपढ़' या ‘अंगूठा लगाने वाले’ व्यक्ति की श्रेणी में रखा जाता है।

यह प्रावधान मूल रूप से अंग्रेज़ी शासन के दौरान उन ग्रामीण और अनपढ़ नागरिकों के लिए बनाया गया था, जो किसी भी भाषा में पढ़ने या हस्ताक्षर करने में सक्षम नहीं थे, और उन्हें धोखाधड़ी से बचाने के लिए किसी शिक्षित गवाह की आवश्यकता होती थी। यह अत्यंत खेदजनक है कि भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले साक्षर नागरिकों को भी आज उसी श्रेणी में रखा जा रहा है।

*साक्षरता और भाषा की भ्रामक पहचान*

इस घोषणा का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि यह साक्षरता को अंग्रेज़ी भाषा से जोड़कर देखता है। भारत में करोड़ों नागरिक उच्च शिक्षित हैं, जिन्होंने अपनी शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से पूरी की है और वे अपनी भाषा में लिखने-पढ़ने में पूर्णतः सक्षम हैं। एक डॉक्टर, इंजीनियर, या सरकारी अधिकारी भी, जो अपनी पहचान और सम्मान के लिए हिन्दी या तमिल में हस्ताक्षर करता है, उसे इस घोषणा के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से 'अशिक्षित' या 'समझ से कम' मान लिया जाता है।

यह न केवल भाषाई रूढ़िवादिता है, बल्कि राष्ट्र के संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है। संविधान की राजभाषा हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने पर यदि बैंक किसी नागरिक से यह घोषणा करवाते हैं कि 'मेरे सामने पढ़ा गया और मैंने समझा', तो यह स्पष्ट करता है कि बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली आज भी मानती है कि ज्ञान का एकमात्र पैमाना अंग्रेज़ी भाषा ही है।

*अधिकारों का हनन और गोपनीयता का उल्लंघन*

जब किसी ग्राहक को यह घोषणापत्र भरना पड़ता है, तो उसे बैंकिंग दस्तावेज़ों की गोपनीयता बनाए रखने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति (साक्षी) पर निर्भर रहना पड़ता है। यह ग्राहक की व्यक्तिगत वित्तीय जानकारी और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन है। यदि ग्राहक अपनी भाषा में दस्तावेज़ पढ़ और समझ सकता है, तो उसे किसी तीसरे व्यक्ति की क्या आवश्यकता है? यह प्रक्रिया अनावश्यक रूप से ग्राहक की वित्तीय प्रक्रिया को जटिल बनाती है और उसे एक हीन भावना से भर देती है।

*भारतीय रिज़र्व बैंक को पत्र और नियामक का हस्तक्षेप*

इस अपमानजनक प्रथा को समाप्त करने के लिए लेखक ने दिनांक 27 जून 2025 को एक विस्तृत पत्र भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर तथा वित्त मंत्रालय को भेजा था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि "वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन" न केवल असंवैधानिक (अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन) है, बल्कि जिस ग्राहक को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसी से यह घोषणापत्र अंग्रेज़ी में भरवाना एक "हद दर्जे की धोखेबाजी व जालसाजी" है।

पत्र में यह भी तर्क दिया गया था कि यह प्रावधान आरबीआई की ग्राहक अधिकार संहिता का उल्लंघन है, जिसमें ग्राहक को समझने योग्य भाषा में सूचना प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।

*आरबीआई की प्रतिक्रिया (दिनांक 11 अगस्त 2025):*

आरबीआई ने अपने उत्तर में स्वीकार किया कि उनके द्वारा जारी विभिन्न मास्टर निदेश और परिपत्र यह सुनिश्चित करते हैं कि:

  1. उधारकर्ता के लिए सभी संसूचना स्थानीय भाषा अथवा उधारकर्ता द्वारा समझी जानी वाली भाषा में होनी चाहिए।
  2. ऋणों और अग्रिमों के लिए मुख्य तथ्य विवरण (केएफसी) उधारकर्ता द्वारा समझी जाने वाली भाषा में लिखा जाएगा।
  3. बैंकों को खाता खोलने के फॉर्म, पास-बुक आदि सहित ग्राहकों द्वारा उपयोग में लाई जानेवाली सभी मुद्रित सामग्री को त्रैभाषिक रूप से (संबंधित क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी व अंग्रेज़ी) में उपलब्ध कराना चाहिए।

आरबीआई ने स्वयं द्वारा जारी किए गए इन नियमों का उल्लेख करते हुए, इस मामले की गंभीरता को स्वीकार किया और सूचित किया कि इस विषय से संबंधित ईमेल को "निरीक्षण विभाग को उचित कार्यवाही के लिए अग्रेषित किया गया है।"

आरबीआई के अपने नियम स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि ग्राहकों को उनकी भाषा में संसूचना मिलनी चाहिए। ऐसे में, किसी साक्षर नागरिक से उसकी अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर, उसे अतिरिक्त और अपमानजनक 'वर्नाक्युलर घोषणा' करने के लिए बाध्य करना नियामक के ही निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। यह तथ्य कि एक नागरिक की शिकायत पर केंद्रीय बैंक ने मामले को निरीक्षण के लिए भेजा है, यह दर्शाता है कि यह औपनिवेशिक प्रथा अब नियामकीय जाँच के दायरे में आ चुकी है।

*आत्म-सम्मान की बहाली आवश्यक*

'क्षेत्रीय भाषा की घोषणा' केवल एक कागज़ी औपचारिकता नहीं है; यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक संस्थागत पूर्वाग्रह है। आरबीआई द्वारा अपने ही नियमों का हवाला देने और मामले को निरीक्षण विभाग को भेजने के बाद, अब वित्तीय संस्थाओं को इस प्रथा को तुरंत समाप्त कर देना चाहिए।

बैंकिंग प्रणाली को यह स्वीकार करना होगा कि साक्षरता का अर्थ अंग्रेज़ी साक्षरता नहीं है। यदि किसी नागरिक का खाताधारक पहचान पत्र (केवाईसी) साक्षरता प्रमाणित करता है, तो उसे अपनी भाषा में हस्ताक्षर करने पर अतिरिक्त और अपमानजनक घोषणा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।

यह समय है कि भारत की वित्तीय संस्थाएँ भाषाई आत्म-सम्मान को प्राथमिकता दें और अपनी ही भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले देश के करोड़ों साक्षर नागरिकों को 'अनपढ़' की श्रेणी से बाहर निकालें। यह सुनिश्चित करना अब भारतीय रिज़र्व बैंक के निरीक्षण विभाग की ज़िम्मेदारी है, ताकि हमारा बैंकिंग तंत्र समावेशी और वास्तव में भारतीय कहलाए।

 

‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ जैसे अपमानजनक व औपनिवेशिक घोषणापत्रों पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में रिजर्व बैंक को मेरा पत्र

 दिनांक: 27.06.2025


सेवा में,
माननीय गवर्नर
भारतीय रिज़र्व बैंक
केंद्रीय कार्यालय भवन
शहीद भगत सिंह मार्ग
फोर्ट, मुंबई – ४००००१

विषय: बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों एवं क्रेडिट कार्ड कंपनियों द्वारा ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ जैसे अपमानजनक, औपनिवेशिक तथा असंवैधानिक घोषणापत्रों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने के संबंध में।

महोदय,

सविनय निवेदन है कि वर्तमान में भारत के लगभग सभी सार्वजनिक, निजी तथा सहकारी बैंक, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ तथा क्रेडिट कार्ड प्रदाता संस्थाएँ अपने ग्राहकों को ऋण, खाता, अनुबंध, आवेदन-पत्र, वचन-पत्र आदि सभी दस्तावेज़ केवल अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध कराती हैं।

यदि कोई ग्राहक इन दस्तावेज़ों पर हिन्दी, तमिल, मराठी, तेलुगु, बांग्ला आदि भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करता है, तो उससे ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ नामक एक औपचारिक शपथपत्र पर हस्ताक्षर करवाया जाता है, जिसकी भाषा भी केवल अंग्रेज़ी होती है। यह संपूर्ण प्रक्रिया न केवल असंवैधानिक, अपमानजनक व भेदभावपूर्ण है, बल्कि विधिक रूप से त्रुटिपूर्ण भी है।

१. संविधान की राजभाषा व्यवस्था का उल्लंघन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३४३ से ३५१ तक भाग १७ में यह स्पष्ट किया गया है कि संघ की राजभाषा हिन्दी होगी तथा भारतीय भाषाओं को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। अंग्रेज़ी को केवल सहायक भाषा के रूप में सीमित अवधि हेतु स्वीकृत किया गया था। अतः यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में किए गए हस्ताक्षरों को कमतर मानकर अंग्रेज़ी में अतिरिक्त प्रमाण (घोषणापत्र) माँगा जाता है, जो कि संविधान की मूल भावना का स्पष्ट अपमान है।

२. अनुच्छेद १४ एवं १९(१)(क) का उल्लंघन

इस प्रकार की व्यवस्था, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वालों से कोई अतिरिक्त औपचारिकता नहीं माँगी जाती, किन्तु भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले ग्राहक से अलग से प्रमाणपत्र लिया जाता है, स्पष्टतः समानता के अधिकार (अनु. १४) एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनु. १९(१)(क)) का घोर उल्लंघन है।

३. ‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ की भाषा स्वयं अंग्रेज़ी होना – विधिक धोखा

जिस व्यक्ति को अंग्रेज़ी नहीं आती, उसी से यह घोषणापत्र अंग्रेज़ी में भरवाया जाता है, जिसमें यह लिखवाया जाता है कि "मैंने दस्तावेज़ पढ़े और समझे तथा अपनी इच्छा से हस्ताक्षर किए"। यह कथन सूचित सहमति (इनफॉर्म्ड कन्सेन्ट) के सिद्धांत की अवहेलना करता है। ऐसी स्थिति में सहमति विधिक रूप से अमान्य या खंडनीय (वॉयडेबल) मानी जाती है।  जिस व्यक्ति को अंग्रेजी नहीं आती है, उसी से अंग्रेजी में छपी हुई घोषणा पर हस्ताक्षर करवाना एक हद दर्जे की धोखेबाजी व जालसाजी है जिसे भारत के केंद्रीय बैंक ने आज तक रोका नहीं है, यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।

४. ‘‘वर्नाक्युलर’’ शब्द स्वयं औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक

ब्रिटिश शासन के दौरान ‘वर्नाक्युलर’ शब्द का प्रयोग भारतीय भाषाओं को हीन, असभ्य और अनुपयोगी सिद्ध करने हेतु किया गया था (जैसे – ‘‘वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, १८७८’’)। स्वतंत्र भारत में आज भी बैंकों द्वारा ग्राहकों से इस प्रकार के अपमानजनक शीर्षक वाले प्रपत्र भरवाना उनकी भाषिक गरिमा और सांविधिक अस्मिता के विरुद्ध है। बैंकों व वित्तीय संस्थाओं द्वारा वर्नाक्युलर शब्द का प्रयोग करने पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए, इसके स्थान पर भारतीय भाषा या स्टेट लैंग्वेज शब्द प्रयोग किए जाने चाहिए।

५. ग्राहक अधिकार संहिता का उल्लंघन

भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा दिनांक ३ दिसम्बर २०१४ को जारी ग्राहक अधिकार संहिता में यह स्पष्ट किया गया है कि:

  *   प्रत्येक ग्राहक को सम्मानजनक व्यवहार मिलना चाहिए (उचित व्यवहार का अधिकार)।
  *   ग्राहक को उत्पाद, शर्तें व जानकारी स्पष्ट एवं समझने योग्य भाषा में दी जानी चाहिए (सूचना का अधिकार)। एक विदेशी भाषा में दी गई जानकारी केवल धोखेबाजी है जिसके कारण करोड़ों लोग वित्तीय धोखाधड़ी में फँसते रहते हैं।
  *   सेवा ग्राहक की आवश्यकताओं एवं भाषिक उपयुक्तता के आधार पर दी जानी चाहिए (उपयुक्तता का अधिकार)।

‘‘वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन’’ इस संहिता की मूल भावना का प्रत्यक्ष विरोध करता है।

६. अन्य लोकतांत्रिक देशों में ऐसी व्यवस्था नहीं

विश्व के कोई भी विकसित राष्ट्र – जैसे जर्मनी, जापान, फ्रांस, चीन आदि – अपने नागरिकों से यह नहीं लिखवाते कि ‘‘मैं अपनी भाषा में हस्ताक्षर कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती।’’ यह केवल भारत में ही होता है, जहाँ नागरिक को उसकी अपनी भाषिक अस्मिता के लिए घोषणापत्र के माध्यम से क्षमा याचना करवाई जाती है।

७. भाषा प्रौद्योगिकी व भारतीय भाषाओं में सेवा की उपेक्षा

भारत के बैंक, एनबीएफसी एवं क्रेडिट कार्ड कंपनियाँ प्रत्येक वर्ष हजारों करोड़ रुपये का लाभ अर्जित करती हैं। तथापि वे—

  *   आवेदन, वचन-पत्र, ऋण अनुबंध आदि केवल अंग्रेज़ी में देती हैं
  *   मोबाइल ऐप, वेबसाइट, एसएमएस सेवा, ग्राहक सहायता केवल अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं
  *   ग्राहक यदि हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा में हस्ताक्षर करे, तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है

जबकि आज के युग में अत्यल्प लागत पर बहुभाषिक सेवा, अनुवाद, एसएमएस, ऑडियो-विज़ुअल व्याख्या, मोबाइल ऐप आदि भारत की २२ अनुसूचित भाषाओं में उपलब्ध कराए जा सकते हैं। यदि ये संस्थाएँ अपने वार्षिक लाभ का केवल ०.१% भी भाषा प्रौद्योगिकी पर व्यय करें तो प्रत्येक ग्राहक को उसकी भाषा में संपूर्ण सेवा दी जा सकती है। इस सुविधा का न दिया जाना सिर्फ़ उपेक्षा नहीं, बल्कि ग्राहक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

"जो वित्तीय संस्थाएँ हर वर्ष करोड़ों-अरबों का लाभ कमा रही हैं, वे यदि ग्राहक की भाषा में आवेदन-पत्र, ऋण समझौते, एसएमएस और सहायता उपलब्ध कराने हेतु नाममात्र की धनराशि भी नहीं लगातीं, तो यह आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक व प्रशासनिक उपेक्षा का विषय है — और यह स्थिति नियामकीय हस्तक्षेप की माँग करती है।”

आपसे सविनय अनुरोध है कि निम्नलिखित दिशा-निर्देश समस्त बैंकों, एनबीएफसी एवं वित्तीय संस्थाओं हेतु अनिवार्य रूप से जारी किए जाएँ—

  1.  "वर्नाक्युलर डिक्लेरेशन" जैसे औपनिवेशिक एवं भेदभावपूर्ण घोषणापत्रों पर तत्काल रोक लगाई जाए।
  2.  प्रत्येक ग्राहक को सेवा प्रारंभ होते ही अपनी पसंद की भारतीय भाषा चुनने का विकल्प दिया जाए।
  3.  सभी आवेदन-पत्र, ऋण अनुबंध, प्रपत्र, मोबाइल ऐप, वेबसाइट, एसएमएस, ईमेल एवं ग्राहक सेवा हिन्दी व क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध कराना अनिवार्य किया जाए।
  4.  भाषिक आधार पर कोई अतिरिक्त औपचारिकता थोपना या सेवा में देरी करना उत्पीड़न की श्रेणी में माना जाए।
  5.  भारतीय रिज़र्व बैंक एक "भाषिक अनुपालन लेखा परीक्षण" (लैंग्वेज कॉम्प्लायंस ऑडिट) प्रत्येक वित्तीय संस्था पर वार्षिक रूप से लागू करे।

आपसे निवेदन है कि इस विषय में शीघ्र हस्तक्षेप कर उचित निर्देश जारी कराए जाएँ जिससे भारत के करोड़ों ग्राहकों की भाषिक गरिमा, सूचना का अधिकार तथा न्यायसंगत व्यवहार सुनिश्चित हो सके।

"जो वित्तीय संस्थाएँ अपने ग्राहकों से प्रति वर्ष करोड़ों-अरबों का लाभ कमा रही हैं, क्या वे अपने ग्राहकों की भाषिक गरिमा, समझ, अधिकार और संवैधानिक सम्मान हेतु नाममात्र की राशि भी भाषा प्रौद्योगिकी, अनुवाद, व बहुभाषिक डिजिटल सेवाओं पर नहीं खर्च कर सकतीं? यह न केवल ग्राहकों के साथ पक्षपात है, बल्कि भारतीय भाषाओं के साथ भी अन्याय है।"

भवदीय,

प्रवीण कुमार जैन (एम कॉम, एफसीएस, एलएलबी)

हिन्दी की गरिमा पर गहरा आघात: हिंग्लिश और औपनिवेशिक मानसिकता का षड्यंत्र

भारत के संविधान ने 14 सितंबर 1949 को देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार कियाजैसा कि अनुच्छेद 343 में निहित है। यह निर्णय एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान और बहुसंख्यक जनता की भाषा के प्रति सम्मान का प्रतीक था। स्वतंतत्रता के 75 वर्षों बाद भीराजभाषा हिन्दी की प्रशासनिक उपेक्षा एक गहरा सत्य है जो देश के भाषाई और लोकतांत्रिक परिदृश्य पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है। यह चिंता सिर्फ़ एक भाषा के भविष्य की नहींबल्कि एक लोकतांत्रिक गणराज्य में बहुसंख्यक जनता के अधिकारों और शासन में उनकी भागीदारी की है।

 

*राजकाज और न्यायपालिका में अंग्रेज़ी का स्थायी वर्चस्व*

 

यह विडंबना है कि जिस भाषा को राजकाज की मुख्य भाषा घोषित किया गयावह आज भी नौकरानी की भूमिका में है। अधिकांश सरकारी वार्तालाप और महत्वपूर्ण दस्तावेज़विधेयकअधिनियम और धारा 3(3) के अंतर्गत आने वाले सभी 14 दस्तावेज़ मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में तैयार किए जाते हैं। विधिक समझौतों, ज्ञापनों आदि के हिन्दी अनुवाद को प्रायः एक औपचारिकता मानकरअस्पष्टता की स्थिति में मूल अंग्रेज़ी पाठ को ही प्रभावी मानने की अस्वीकृति के साथ प्रकाशित किया जाता है। यह अस्वीकृति स्वयं में राजभाषा की उपेक्षा, अपमान और उसकी द्वितीयक स्थिति का सबसे बड़ा प्रमाण है। क्या कोई स्वाभिमानी देश इसे स्वीकार कर सकता है।

 

न्याय के क्षेत्र में यह विसंगति और भी मुखर है। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में वादी-प्रतिवादी के लिए अपनी भाषा (राजभाषा हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाएँ) में न्याय की मांगना आज भी प्रतिबंधित है। न्यायाधीशों द्वारा राजभाषा में बात करने पर अवमानना की कार्रवाई की धमकी देना दिखाता है कि न्याय के मंदिर में भाषा की दीवार कितनी ऊँची खड़ी है। देश के कानून आज भी मुख्य रूप से अंग्रेज़ी में ही तैयार होकर राष्ट्रपति की सम्मति के लिए भेजे जाते हैं और उनकी अधिसूचना भी अंग्रेज़ी में ही जारी होती है।

 

*हिंग्लिश का सुनियोजित प्रवेश: हिन्दी को कमज़ोर करने का षड्यंत्र*

 

2007 के बाद से सरकारी गलियारों में एक नया और खतरनाक चलन शुरू हुआ है। प्रधानमंत्रीराष्ट्रपतिउपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के आधिकारिक भाषणों तथा सरकारी दस्तावेज़ों में हिंग्लिश को शनैःशनैः हिन्दी के नाम पर थोपा जा रहा है। यह प्रवृत्ति मूल हिन्दी को राजभाषा के रूप में कमजोर करने का एक दीर्घकालिक और सुनियोजित षड्यंत्र है। 2010 में राजभाषा विभाग ने परिपत्र जारी कर आधिकारिक रूप से अंग्रेजी शब्दावली व रोमन लिपि का जोरदार समर्थन किया था।

 

इस षड्यंत्र की जड़ें गहरी हैं:

1.       *सरकारी दस्तावेज़ों में मिलावट*: हिंग्लिश के माध्यम से आधिकारिक हिन्दी से तत्सम और शुद्ध शब्दों को बाहर कर दिया जाता हैजिससे हिन्दी का प्रशासनिक शब्दकोश अंग्रेज़ी शब्दों पर निर्भर होता जा रहा है। हिन्दी के शब्दों को बार-2 कठिन कहकर दुष्प्रचार किया जा रहा है, यह हिन्दी के प्रशासनिक स्वरूप को खोखला कर रहा है।

2.       *मीडिया द्वारा सामान्यीकरण*: सरकारी चैनल दूरदर्शन भी इस प्रवृत्ति में शामिल हैजो लगातार हिंग्लिश को 'आम जनता की भाषाया 'युवाओं की भाषाकहकर थोप रहा है। यह एक कृत्रिम आवश्यकता उत्पन्न करता हैजिससे लोग अपनी शुद्ध भाषा के प्रयोग के प्रति लज्जित अनुभव करने लगें, शुद्ध भाषा के नाम को भी अब गाली बना दिया गया है। यही काम हिन्दी फिल्मों ने किया, उर्दू व अरबी शब्दों को इतना लोकप्रिय बना गया और हिन्दी को उपहास व हँसी का पात्र बनाया गया। आप हिन्दी फिल्मों में समय (वक्त), परीक्षा(इम्तेहान), युद्ध (जंग), न्यायालय (अदालत), धारा(दफा), भारतीय दंड संहिता (ताजीराते हिन्द), सेना (फौज), दुर्घटना (हादसा), तिथि (तारीख), गति (ऱफ्तार) जैसे हजारों शब्द कभी सुन ही नहीं सकते क्योंकि सुनियोजित दीर्घकालिक योजना के अंतर्गत ऐसे शब्दों को संवादों से बाहर रखा गया। रामायण, महाभारत जैसे धारावाहिकों ने दर्शकों को मूल हिन्दी से पुनः परिचित करवाया था। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों ने बची खुची कसर पूरी कर दी है अब हिन्दी फिल्म जगत उर्दू फारसी से आगे बढ़कर अंग्रेजी के आगे नतसमस्तक हो चला है।

3.       *शैक्षिक घुसपैठ*: विद्यालयीन पाठ्यक्रम में भी हिन्दी के नाम पर हिंग्लिश थोपने के प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं। यदि बच्चे अपनी भाषा का शुद्ध रूप प्राथमिक स्तर पर नहीं सीखेंगेतो अगली पीढ़ी के लिए हिंग्लिश ही 'सामान्यहिन्दी बन जाएगीजो भाषा के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। छात्रों से हिन्दी की गिनती तो पहले ही छीन ली गई, आज बच्चे तीस, चालीस और पचास क्या होता है, नहीं समझ सकते हैं।

 

*मीडिया में भाषा की पवित्रता का हनन*

 

निजी समाचार चैनलों और समाचार-पत्रों में भाषा की शुद्धता को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी गई है। संपादकों और संस्था मालिकों द्वारा स्पष्ट निर्देश दिए जाते हैं कि हर समाचार में 30 प्रतिशत तक अंग्रेज़ी और उर्दू के शब्द तथा 5-10 प्रतिशत तक रोमन लिपि का प्रयोग करना है। आज देश में हिन्दी में छपने वाला एक भी समाचार-पत्र नहीं बचा हैजो शुद्ध देवनागरी लिपि और मानक हिन्दी का प्रयोग करता हो। सभी अलग दिखने, 'आधुनिकदिखने या एक विशिष्ट वर्ग को आकर्षित करने के नाम पर अंग्रेज़ी और रोमन लिपि की चरण वंदना कर रहे हैं। आटे में नमक तो अच्छा लगता है पर अब लोगों को नमक में आटा परोसा जा रहा है और कहा जा रहा है कि यही आपके स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम है और डराया जा रहा है कि नमक में आटा नहीं खाओगे तो बच नहीं पाओगे।

 

यह केवल भाषाई मिश्रण नहीं हैबल्कि हिन्दी के सांस्कृतिक आत्म-सम्मान पर हमला है। हिन्दी की अपनी देवनागरी लिपि हैजो पूर्णतः वैज्ञानिक हैफिर भी रोमन लिपि को अनावश्यक रूप से थोपना हिन्दीभाषी पाठकों की समझ और उनकी भाषा की पहचान पर आघात है।

 

*डिजिटल अभिशासन और नागरिक भागीदारी से बहिष्कार*

डिजिटल युग में भीहिन्दी को वह स्थान नहीं मिल पाया है जिसकी वह अधिकारी है। जुलाई 1997 में प्रधानमंत्री द्वारा केंद्र सरकार की वेबसाइटों को हिन्दी में बनाने के आदेश के बावजूद, 28 वर्षों बाद भी केंद्र सरकार की ऐसी कोई वेबसाइट नहीं है जो पूरी तरह से हिन्दी में हो।

 

इससे भी गंभीर बात यह है कि सरकार विभिन्न नीतियों और कानूनों के प्रारूपों पर जनता के सुझाव केवल अंग्रेज़ी में मांगती है। यह प्रक्रिया देश की बहुसंख्यक आबादी को नीति निर्माण की प्रक्रिया से बाहर कर देती है। बैंकों द्वारा अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर न करने वाले नागरिकों से एक 'वर्नाक्युलर घोषणा' (देशी भाषा की घोषणा) पर हस्ताक्षर करवानाजिसमें उन्हें 'अनपढ़की श्रेणी में रखा जाता हैअत्यंत निंदनीय है। यह भारतीय भाषाओं में हस्ताक्षर करने वाले नागरिकों का सीधा अपमान है।

 

*आत्म-सम्मान और जागरण की आवश्यकता*

हिन्दी को प्रशासनिकशैक्षिक और मीडिया के स्तर पर जानबूझकर कमजोर किया जा रहा है। समस्या भाषा की अक्षमता में नहीं हैबल्कि यह शासन की इच्छाशक्ति की कमी और अंग्रेज़ी-परस्त वर्ग विशेष की मानसिकता में निहित हैजो औपनिवेशिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है।

 

राजभाषा हिन्दी को उसका संवैधानिक स्थान और हिंग्लिश के इस षड्यंत्र से मुक्ति दिलाने के लिए केवल सरकारी आदेशों की नहींबल्कि एक व्यापक जन-जागरण और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। यह तभी संभव होगा जब आम नागरिक अपनी भाषा में प्रशासनन्यायशिक्षा और रोज़गार की मांग करना शुरू करेगा। हिन्दी को 'कागज़ों तक सिमटनेसे रोकने और 'हिंग्लिशके खतरे से बचाने के लिएहमें इसे वास्तव में जन-जन की राजभाषा बनाना होगाजो प्रशासनिक और कानूनी रूप से भी सर्वोपरि हो।

 

*प्रवीण कुमार जैन*

(लेखक मुंबई में रहते हैं, सक्रिय भाषासेवी व कारपोरेट सलाहकार हैं)

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