अनुवाद

रविवार, 30 नवंबर 2025

क्या हिन्दी भारत की राजभाषा है, आपको क्या लगता है?

संविधान के अनुच्छेद 343(1) - देवनागरी लिपि में हिन्दी भारत संघ की राजभाषा है। लागू हुए 78 वर्ष से भी अधिक समय बीत चुका है, पर सरकारी कामकाज में आज भी राजभाषाकी वास्तविक स्थिति दयनीय है। हिन्दी को 'राजभाषा' का स्थान तो मिल गया, परन्तु वह 'शासन की भाषा' नहीं बन सकी है। सरकारी तंत्र में आज भी अंग्रेजी का एकछत्र राज है।

विधिक प्रपत्रों पर हिन्दी को मान्यता क्यों नहीं?

आपने कभी किसी सरकारी कागज— जैसे विधिक दस्तावेजों, निविदाओं या भर्ती सूचनाओं — को ध्यान से पढ़ा होगा तो पाएँगे कि उस पर प्रायः एक अघोषित चेतावनी लिखी होती है कि:

    “यदि इस प्रपत्र के किसी अंश या पाठ में कोई संदेह हो तो कृपया दस्तावेज़ का अंग्रेजी मूल पाठ देखें।”

    “किसी भी विधिक मामले में मूल अंग्रेजी पाठ ही मान्य होगा।”

    “किसी विवाद की स्थिति में अंग्रेजी पाठ ही मान्य होगा; हिन्दी पाठ केवल सुविधा हेतु दिया गया है।”

यह बात प्रश्न खड़ा करती है कि यदि राजभाषा में छपा कागज विधिक रूप से मान्य नहीं है, तो उसे छापने का क्या लाभ?

  • इसका सीधा अर्थ यह है कि हिन्दी में किया गया अनुवाद केवल औपचारिकता है — उसका कोई कानूनी आधार नहीं।
  • जब आम जनता सरकारी योजनाएँ या नियम-कानून को हिन्दी में पढ़कर भरोसा करती है, तो न्यायालय में उन्हें बताया जाता है कि “असली नियम-कानून अंग्रेजी में है, उसे पढ़कर आइए।”

नियम-कानून बनाने की प्रक्रिया में हिन्दी की उपेक्षा

संसद की प्रक्रिया में भी हिन्दी की उपेक्षा स्पष्ट दिखती है और न्यायालयों (उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय) में हिन्दी में प्रस्तुत दस्तावेज स्वीकार ही नहीं किए जाते हैं, जब तक कि उनका प्रमाणित अंग्रेजी अनुवाद संलग्न न हो। नागरिक उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय में अपनी बात अपनी भाषा (हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा) में नहीं रख सकते।

  • संसद सत्र के समय, संबंधित सचिवालय प्रतिदिन “लोकसभा समाचार” व “राज्यसभा समाचार” प्रकाशित करता है और उसमें हर संसदीय कामकाज के साथ लिखा होता है कि यह प्रतिवेदन, प्रपत्र आदि हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों में सदन के पटल पर रखा गया है; पर वास्तविकता इसके विपरीत है।
  • इसी कारण जब कोई विधेयक विधिवत कानून बनने के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, तो उस विधेयक का मूल पाठ आज भी केवल अंग्रेजी में ही होता है। मैंने जब इस संबंध में विधायी विभाग से पूछा, तो कहा गया कि अंतिम स्वीकृति के लिए केवल अंग्रेजी मूल पाठ ही भेजा जाता है क्योंकि हिन्दी पाठ तैयार ही नहीं किया जाता है; इसलिए अधिनियम के लागू होने की अधिसूचना द्विभाषी (हिन्दी-अंग्रेजी में एकसाथ) रूप में जारी करने का प्रश्न नहीं उठता है।

यदि संसद कानून बनाने के अंतिम चरण में राजभाषा हिन्दी को छोड़ दे, तो यह स्पष्ट है कि राजभाषा का पालन केवल दिखावा है। अधिनियम की धारा 3(3) कहती है कि हर अधिसूचना द्विभाषी (हिन्दी व अंग्रेजी) होनी चाहिए; परन्तु इस प्रावधान का व्यावहारिक पालन नहीं हो रहा। इससे सिद्ध होता है कि भले ही संविधान ने भले ही अंग्रेजी को राजभाषा नहीं कहा हो, पर अंग्रेजी ही भारत सरकार की वास्तविक राजभाषा है — और इसीलिए अंग्रेजी पाठ को 'असली', हिन्दी पाठ को 'नकली' माना जाता है। राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) के अंतर्गत आने वाले 14 प्रपत्र, जिन्हें एकसाथ एक ही समय में द्विभाषी रूप में नियम 11 के अनुसार हिन्दी का पाठ ऊपर रखते हुए जारी करना अनिवार्य है: सामान्य आदेश, संकल्प, परिपत्र, नियम, अधिसूचना, प्रशासनिक या अन्य प्रतिवेदन, प्रेस विज्ञप्ति, संविदाएं, करार, अनुज्ञप्तियां (लायसेंस), अनुज्ञापत्र (परमिट), सूचनाएं, निविदा-प्रारूप और संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले सभी राजकीय कागज-पत्र।

राजभाषा के लिए आवंटित बजट का क्या परिणाम?

राजभाषा हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर भारत सरकार हर वर्ष करोड़ों रुपये का बजट देती है। राजभाषा सम्मेलनों, संसदीय राजभाषा समिति की बैठकों, विभागीय निरीक्षणों, पुरस्कारों एवं अन्य व्यवस्थाओं पर व्यय होता है। मंत्रालयों, विभागों व कार्यालयों में हिन्दी सलाहकार समितियाँ, राजभाषा कार्यान्वयन समितियाँ, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समितियाँ गठित की जाती हैं, उनकी बैठकों का आयोजन होता है, पर जब आप किसी सरकारी कार्यालय या बैंक में जाएंगे, तो आपको आवेदन-फार्म, जमा पर्ची, सूचना-पट्ट आदि द्विभाषी रूप में भी नहीं मिलेंगे।

आज भी हिन्दी में आरटीआई लगाएँ या ऑनलाइन शिकायत करें — उत्तर अंग्रेजी में मिलेगा। फिर इतना सारा तामझाम, संगठन व अरबों रुपये का बजट किसलिए?

यह पैसा सम्मेलनों, बैठकों, राजभाषा अधिकारियों और अनुवादकों के वेतन, सॉफ्टवेयर खरीद तथा प्रशिक्षण पर व्यय होता है।

यदि प्रशिक्षण के बाद भी अधिकारी तथा कर्मचारी मूल काम अंग्रेजी में ही कर रहे हैं, और हिन्दी अनुवाद को सरकार स्वयं 'मान्य नहीं' कह रही है, तो यह पैसा केवल 'सरकारी खानापूर्ति' पर नष्ट हो रहा है।

लोकतंत्र के लिए हानिकारक

प्रशासनिक तंत्र की अंग्रेजी को प्राथमिकता देने वाली भाषा-नीति केवल भाषा की समस्या नहीं है। यह पारदर्शिता, जन भागीदारी और लोकतंत्र के सिद्धांतों को सीधे प्रभावित करती है क्योंकि देश में आज भी केवल 4-5 प्रतिशत नागरिक ही अंग्रेजी में पारंगत हैं-

  • सूचना में देरी होती है: जब अंग्रेजी मूल दस्तावेजों का हिन्दी अनुवाद बहुत देर से या कभी नहीं जारी किया जाता, या वेबसाइट पर अपलोड नहीं होता, तो आम जनता तक सूचना या तो देर से पहुँचती है या नहीं पहुँचती।
  • जबकि सरकारी रिपोर्टों में दिये गये आंकड़ों के अनुसार 99 प्रतिशत सरकारी कार्यालय दावा करते हैं कि उन्होंने धारा 3(3) का पूरी तरह पालन किया है परंतु इन दावों का वास्तविक सापेक्षता में कोई परिणाम नहीं दिखता।

हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाना आवश्यक

वर्तमान भारत सरकार 'स्वतंत्रता का अमृतकाल' मना रही है और बार-बार यह घोषणा करती है कि पराधीनता के चिह्नों, प्रतीकों व प्रथाओं को समाप्त किया जाएगा। सरकार ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहलें भी शुरू की हैं — जैसे कि:

  • राजभाषा विभाग के भीतर भारतीय भाषा अनुभाग का गठन,
  • नागरिक केन्द्रित सरकारी वेबसाइटों को विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने हेतु भाषिणी व अनुवादिनी सॉफ्टवेयर का उपयोग,
  • उच्च शिक्षा व परीक्षाओं (जैसे नीट) में भारतीय भाषाओं को शामिल करना,
  • तीन प्रमुख अपराध संहिताओं को भारतीय नामों से अधिसूचित करना आदि।

1949 में हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करना हमारे राष्ट्रीय संकल्प का हिस्सा था। उस समय इस पर व्यापक बहस हुई थी, और सभी भाषायी समुदायों ने इस पर सहमति दी थी।

परंतु आज, जब प्रधानमंत्री एवं उनकी सरकार गुलामी के प्रतीकों और मानसिकता को समाप्त करने की बात करते हैं, तब भी अंग्रेजी भाषा — जो 'गुलामी का सबसे बड़ा चिह्न' है — सरकारी तंत्र व न्यायपालिका में वर्चस्व बनाए हुए है। उसका वर्चस्व तोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ है।

हमें अधिक आशा भी नहीं करनी चाहिए; फिर भी हमारी मांग यह है कि:

1.   हिन्दी को अंग्रेजी के समान कानूनी मान्यता दी जाए: सरकार सभी कानूनों और सरकारी सूचनाओं के हिन्दी पाठ को अंग्रेजी पाठ के बराबर कानूनी मान्यता प्रदान करे और अंग्रेजी को प्राथमिक बताने वाले सभी अस्वीकृति-वाक्य (डिस्क्लेमर) तुरंत हटाए जाएं।

2.   मूल कामकाज हिन्दी में हो: सरकारी अधिकारियों को बाध्य किया जाए कि वे — विशेषतः कृषि, ग्रामीण विकास, पंचायती राज जैसे नागरिकों से सीधे जुड़े मंत्रालयों व विभागों में — नीतियाँ, योजनाएँ, नियम, अधिनियम आदि मूल रूप से हिन्दी में तैयार करें।

राजभाषा हिन्दी को केवल ‘नाम’ की राजभाषा नहीं, बल्कि ‘कामकाज की’ भाषा बनाया जाए — तभी संविधान का सच्चा पालन होगा और यह सुधार करोड़ों नागरिकों को शासन से सीधे जोड़कर हमारे लोकतंत्र को सुदृढ़ करेगा।

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