नौकरी
की भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी का वर्चस्व मिटाने के जुनून के साथ काम कर रहे
मुकेश जैन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (भाप्रौस) अथवा आईआईटी रूड़की से धातु कर्म
अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) में स्नातक हैं। बचपन में तीसरी कक्षा में अंग्रेजी के
प्रति प्रेम उमड़ने के बाद जैन को सातवीं कक्षा तक आते-आते स्वत: ही हिन्दी के
प्रति अगाध लगाव हो गया।
और लगाव भी ऎसा हुआ कि उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी को उसकी गरिमा
वापस लौटाने के लिए कमरकस प्रयास शुरू कर दिए। मुकेश जैन देश के ऎसे पहले
विद्यार्थी हैं जिन्होंने अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) स्नातक की परीक्षा हिन्दी में पास की। आज वे
राष्ट्रीय स्तर पर अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच बनाकर भारतीय
भाषाओं के पक्ष में आवाज बुलन्द कर रहे हैं।
1962 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर (शामली) में जन्मे जैन को
विश्वास है कि भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए तो
राष्ट्रभाषा और सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं का गौरव स्वत: लौट आएगा।
हाल ही में #संलोसेआ की सी-सैट परीक्षा के विरूद्ध आन्दोलन खड़ा करने
के जनक के रूप में जैन की पहचान बनी है। प्रस्तुत है, जैन से
राष्ट्रभाषा #हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के सम्मान के लिए उनके प्रयासों को लेकर
पत्रिका की विशेष बातचीत –
आप में राष्ट्रभाषा #हिन्दी को आगे बढ़ाने का जुनून कब और कैसे
आया ?
उत्तर- यह मेरे
स्कूल समय की बात है,
जब छठी कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी। सातवीं कक्षा में आते ही
मेरे मन में राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्मान को लेकर भाव पैदा हुआ जिससे मेरे जीवन
में बदलाव आया और अंग्रेजी भाषा के खिलाफ
प्रेरणा जगी। मेरा मानना है कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है। हमें इसका तिरस्कार
करना है। यह भाषा देश की उन्नति में सबसे बड़ी बाधक है। इस कटु सत्य को सिर्फ मैं ही नहीं कह रहा हूं बल्कि भारतेन्दु हरिश्चंद्र
सरीखे महापुरूषों ने यह बात कही है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने कहा था कि निज भाषा
की उन्नति ही सर्व उन्नति की मूल है। वेद वाक्य भी यही कहते हैं। वेद के अनुसार
राष्ट्र ऎश्वर्य की प्राप्ति अपनी भाषा के द्वारा ही करता है।
आपके मंच का उद्देश्य क्या है?
उत्तर-
हमारे अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर
राष्ट्रभाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दिलाना है। हमारा मानना है कि
भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का विकल्प समाप्त किया जाना चाहिए। जब
नौकरी के अवसरों में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और अपनी भाषाओं का
प्रचलन बढ़ेगा तो लोग खुद ही राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को अपनाएंगे। भर्ती
परीक्षाओं से अंग्रेजी की समाप्ति के बाद
ही भारतीय भाषाओं का प्रसार सम्भव है इसीलिए हमारा जोर भर्ती परीक्षाओ से अंग्रेजी
को समाप्त करने का है।
देश
में आखिर अंग्रेजी का इतना प्रचलन क्यों
है और इसका प्रसार-प्रसार क्यों है? या यूं कहें कि हमारी हिन्दी
और क्षेत्रीय भाषाएं क्यों पिछड़ रही हैं?
उत्तर- देखिए, अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ने के
पीछे सबसे बड़ी वजह रोजगार भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का बोलबाला होना है। लोग
चिकित्सा और अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग) सरीखे क्षेत्रों में अंग्रेजी को
प्राथमिकता देते हैं।
यदि भर्ती परीक्षाओं से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए तो
इसका बोलबाला भी खत्म हो जाएगा। यदि राष्ट्रीय स्तर की नौकरियों की परीक्षा सिर्फ
हिन्दी और क्षेत्रीय स्तर की परीक्षा सिर्फ क्षेत्रीय भाषाओं में होने लगे तो अंग्रेजी
का प्रचलन स्वत: कमजोर पड़ जाएगा।
आपको नहीं लगता कि कहीं न कहीं अंग्रेजी के आगे बढ़ने में शासन
और सत्ता की भी मजबूरी या कमजोरी है?
उत्तर- हां, यह बात सही है कि भारतीय भाषाओं
के पिछड़ने के लिए हमारी शासन व्यवस्था और सरकारें भी जिम्मेदार हैं। लेकिन भारतीय
भाषाओं के विकास में सबसे बड़े बाधक सरकारी नौकरशाह हैं। भारतीय भाषाओं के प्रसार और संरक्षण के लिए नियम और कानून बने हुए हैं
लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है जिसके लिए नौकरशाही ज्यादा जिम्मेदार है। अब यह सब
केंद्र सरकार की नाक के नीचे राजधानी दिल्ली मे भी चल रहा है।
संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार हिन्दी का
प्रचार-प्रसार करना संघ का कर्तव्य होगा और अनुच्छेद 344 के
अनुसार अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने और अंग्रेजी के प्रयोग
पर बंधन लगाने का भी खुला विरोध किया गया है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में 18
जनवरी 1968 को एक संसदीय संकल्प पारित किया
गया जिसका पालन करना अनिवार्य है। सरकार की नाक के नीचे
ही इस कानून की धज्जियाँ उड़ रही हैं। संसदीय संकल्प का पालन कड़ाई से होना चाहिए।
कानूनों का पालन न करना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है जिसके लिए कठोर सजा हो
सकती है। शासन को इस बात का अहसास कराने की जरूरत है।
हिन्दी
और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए आप सरकार से क्या चाहते हैं?
उत्तर-
देखिए, जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने योजना आयोग को खत्म करने की बात
की है, उसी तरह से हमारी मांग है कि वर्तमान संलोसेआ को खत्म
किया जाए। भर्ती परीक्षा हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाओं में हो। ऎसा अनिवार्य किया जाए।
अंग्रेजी
का विकल्प समाप्त होना चाहिए। केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें। सबको 18 जनवरी
1968 के संसदीय संकल्प का पालन करना चाहिए जो हिन्दी और
क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देता है। संलोसेआ की सी-सैट परीक्षा का हमारा विरोध इसी के तहत था
हालांकि अभी अल्प सफलता हासिल हुई है।
पूरा परिणाम आने में समय लगेगा। राज्य सरकारों को भी निर्णय लेना
होगा कि वे अंग्रेजी को हतोत्साहित करें और क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग पर जोर
दें। उच्चतम न्यायालय से भी हमारी मांग है कि वे अपने यहां हिन्दी में कामकाज को
बढ़ावा दें। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने बीते दिनों
सरकार को नोटिस भेजा है कि वो अनुच्छेद 348 में बदलाव कर
न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करे। हमारी केंद्र और कई राज्य
सरकारों से बातचीत लगातार जारी है।
हम चाहते हैं कि भर्तियों में हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के 98
प्रतिशत छात्र आएं। राष्ट्रभाषा और राजभाषा की अनदेखी देश के लिए
शर्मनाक है। और जो सरकार इसे सहन कर रही है तो मानिए कि वह राजद्रोह को सहन कर रही
है।
क्या
हिन्दी को फलने-फूलने से रोकने में बाहरी ताकतों का भी हाथ है?
उत्तर-
नि:संदेह। कई विदेशी ताकतें भारत में अंग्रेजी को बढ़ावा देने में सक्रिय हैं। इसे
रोकने के लिए समाज और सरकार दोनों को ही मिलकर व्यापक रणनीति बनानी होगी।
आपका
आन्दोलन सी-सैट के मामले में थोड़ा उग्र हो गया था क्या आपके आंदोलन की यही तासीर
है?
उत्तर- नहीं, हम चाहते हैं कि बातचीत से आगे
बढ़ें और आन्दोलन का हमारा स्वरूप भी ऎसा ही है। मैंने 1979 में
अंग्रेजी विरोधी संस्था बनाई। 1980
में आईआईटी रूड़की में दाखिला लेने के बाद 1982 मे उसका नाम बदलकर अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच बनाया जिसकी व्यापकता
को पूरे राष्ट्र मे पहुंचाया।
यदि हमारा सिद्धान्त उग्र होता तो इतने लम्बे समय तक हम बड़े- बड़े
अभियान नहीं चला सकते थे। हमारा लक्ष्य सिर्फ नौकरी की भर्ती परीक्षा से अंग्रेजी
की अनिवार्यता को समाप्त करना है और हम अपने अभियान को शांति से चला रहे हैं।
सी-सैट
आन्दोलन के समय जरूर मानता हूं कि कुछ असामाजिक तत्व, जो
किसी खास राजनीतिक दल से ताल्लुक रखते थे, हमारे आन्दोलन में
घुस आए थे।
प्रस्तुति- संजय मिश्र
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