अनुवाद

शनिवार, 1 नवंबर 2014

देश का भाषाई मीडिया ही है हमारी भाषाओं का सबसे बड़ा दुश्मन

आपको यह शीर्षक पढ़कर आश्चर्य नहीं करना चाहिए क्योंकि पिछले दस बारह वर्षों में भारत में भारत की अपनी भाषाओं को समाप्त करने का षड्यंत्र जितनी तेज़ी से रचा और क्रियान्वित किया गया, उतना कदाचित पहले कभी नहीं हुआ. इस षड्यंत्र को रचने वालों ने अपने इस अभियान में शत-प्रतिशत सफलता भी प्राप्त कर ली है और सबसे बड़े दुःख की बात है कि भारत की आम जनता को इसका भान भी नहीं हुआ और उसने भी इस षड्यंत्र को सफल बनाने में भरपूर सहयोग भी दिया जाने अनजाने.

भाषाई माध्यम के विद्यालय लगभग मरणासन्न हो चुके हैं और हर गली मुहल्ले में अंग्रेजी माध्यम के अति प्रतिष्ठित विद्यालय खोल दिए गए हैं. गाँव गाँव में इन प्रतिष्ठित विद्यालयों का बोलबाला है. भाषाई माध्यम की सरकारी शालाओं में अध्यापक और चपरासी के अलावा कोई दिखाई भी नहीं देता. अंग्रेजी में पढ़ाई का हर स्थान पर बोलबाला है. अंग्रेजी शालाओं ने निर्धन और धनवान का भेद मिटा डाला है और सभी के बच्चे इन अंग्रेजी स्कूलों में "गुणवत्तापूर्ण" एवं "उत्कृष्ट" शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार ने अपने कुशासन में हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे खोल दिए. वास्तव में यह सरकार अंग्रेजी शासन से भी बदतर सरकार थी जिसने भारत और भारत की संस्कृति से जुड़ी हर पहचान पर वज्रपात करवाया. इस देश की पहचान को नष्ट करने के सारे कदम इन्होंने उठाए. 

"किसी देश की पहचान को इतिहास बनाना हो तो उसकी भाषा की जड़ें खोद डालो" पर अमल करते हुए सरकार सरलता के नाम पर देश की भाषाओं को पंगु बना दिया गया, हर स्तर पर प्रचारित किया गया कि यदि देशी भाषाओं के टीवी चैनलों और समाचार-पत्र /पत्रिकाओं में अंग्रेजी की मिलावट नहीं करोगे तो ये भाषाएँ कठिन बनी रहेंगी और नष्ट हो जाएँगी. नयी पीढ़ी को संस्कृतनिष्ठ हिन्दी अथवा अन्य देशी भाषा नहीं आती हैं क्योंकि यह बहुत कठिन होती है, दुरूह होती है, इससे ब्राह्मणवाद को बढ़ावा मिलता है, यह ब्राह्मणों की साजिश है वे हिन्दी को फैलने नहीं देना चाहते हैं इसलिए संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की पैरवी करते हैं. 

इस अघोषित अव्यक्त षड्यंत्र के अंतर्गत बार-२ मंत्रियों एवं सरकारी अधिकारियों ने यह कहा कि हिन्दी को बचाने और सरल बनाने के लिए अन्य भाषा की शब्दावली अपनाना अनिवार्य है पर इन लोगों ने खुलकर यह नहीं बताया कि किस भाषा की शब्दावली से हिन्दी को सरल बनाया जा सकता है? २०११ में तो राजभाषा विभाग की सचिव महोदया ने हिन्दी को सरल बनाने के लिए बाकायदा परिपत्र निकाल डाला और उसे अंग्रेजी अखबारों के "एडिटोरियल्स" में काफी प्रशंसा मिली क्योंकि ये लोग तो बाज की तरह झपट्टा मारने को ही बैठे थे.

हिन्दी के तथाकथित समाचार-पत्रों में हिन्दी ख़त्म हो चुकी है और केवल "हिन्डी" बची है. उसका एक नमूना यहाँ देखें :

क्रमश:...अगला भाग देखें http://hamaribhasha2050.blogspot.com/2014/11/blog-post_3.html

1 टिप्पणी:

  1. इसे कहते हैं जिस थाली में खाना, उसीमें छेद बनाना ।

    या किसी दुष्ट व लोभी संतान द्वारा लालच में अपनी ही माँ की हत्या ...!

    कोई इनसे पूछे, यदि हमें अंग्रेजी या रोमन लिपि पढ़ने का शौक होगा
    तो इस कचरे को क्यों पढ़ेंगे ? अंग्रेजी अखबारों की कमी है क्या ?

    अंग्रेजी से मु्हब्बत है तो अंग्रेजी में लिखिए, लेकिन किसी अन्य भाषा के साथ ऐसी हरकत क्यों....?

    नए शब्दों को स्वीकारने या स्वभाविक परिवर्तन को आत्मसात करने के पक्ष में तो हम भी हैं
    लेकिन चलते-फिरते, जीते-जागते शब्दों की हत्या कर उसे अंग्रेजी के तले कुचलकर लहू-लुहान करना कोई कैसे स्वीकार कर सकता है?


    किसी जीवंत भाषा की हत्या का इससे बेहतर नमूना क्या होगा ?


    आश्चर्य तो स्वनामधर्मी बड़े-बड़े कथित ऐसे हिंदी -प्रमियों, साहित्यकारों, लेखकों व जागरूक पत्रकारों, संगठनों आदि पर भी है
    जो सब देखकर मौन हैं और धृतराष्ट्र का स्मरण करवा रहे हैं...।

    आइए इस पर अपने मौन को तोड़ें और अपनी भाषा के साथ हो रहे इस आपराधिक षड्यंत्र के विरुद्ध खड़े हों।

    भाषा पर आक्रमण राष्ट्र पर आक्रमण से बढ़कर है।

    वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुबई

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