अनुवाद

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

हम अपनी भाषाओं के प्रति इतने असंवेदनशील क्यों है?

जर्मन क्यों?

अमृत मेहता, सम्पादक, विदेशी भाषा साहित्य की हिन्दी पत्रिका "सार संसार"

इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं जर्मन भाषा तथा साहित्य का अदम्य समर्थक हूँ, और अब तक मुझ द्वारा अनूदित 72 साहित्यिक कृतियों में से 66 का अनुवाद जर्मन से किया गया है. हिन्दी  मेरी मातृभाषा है, इसका प्रमाण इसी में है कि 72 में से 70कृतियों मे लक्ष्य भाषा हिन्दी  रही है, और दो में पंजाबी. अब तक मैं 208 जर्मनभाषी लेखकों की कृतियों का जर्मन से हिन्दी  में अनुवाद कर चुका हूँ, और कुल मिला कर 222 जर्मन लेखकों कि कृतियाँ प्रकाशित कर चुका हूँ. काफ़ी हद तक अपना धन लगा कर भी. अपनी पत्रिका “सार संसार” के माध्यम से मैंने 72 ऐसे नए अनुवादकों को जन्म दिया है, जो विदेशी भाषाओँ से सीधे हिन्दी  में अनुवाद करते हैं, जिनमें से 16 जर्मन-हिन्दी  अनुवादक हैं. पूरे विश्व में इन आंकड़ों के बराबर कोई नहीं पहुंचा, और यह वक्तव्य मैं पूरी ज़िम्मेदारी से दे रहा हूँ.

भारत के केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के स्थान पर केवल जर्मन को सुशोभित करना एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण है, और जिस तरह से इस भाषा को भारतीय बच्चों पर लादा गया है, वह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि इस से यह भी उजागर होता है कि भारत को स्वयं में इतना ढीला-ढीला देश माना जाता है कि यहाँ पर कोई भी विदेशी शक्ति जो चाहे करवा सकती है, चाहे घूस के बल पर अथवा बहला-फुसला कर. इस प्रकरण में कौन सा तरीका अपनाया गया है, यह तथ्यों की गहराई में जाने से मालूम पड़ सकता है.

यह मामला 2014 में मानव संसाधन मंत्री सुश्री स्मृति ईरानी की सतर्कता से उजागर हुआ है, परन्तु तीन वर्ष में कुछ लोग इस सन्दर्भ में जो करने में सफल हुए हैं, वह हमारी शासन प्रणाली पर एक गंभीर प्रश्न-चिन्ह है. मैं 2009 से जानता हूँ कि कोई संदिग्ध खिचड़ी पक रही थी, परन्तु मेरी जानकारी में केवल इतना ही था कि हिन्दी  तथा अन्य भारतीय भाषाओँ के अस्तित्व पर कुठाराघात करके कुछ जर्मनभाषी सांस्कृतिक दूत अंग्रेज़ी को भारत की मुख्य भाषा सिद्ध करने पर तुले हुए थे. मैंने इसका जम कर विरोध किया है, बहुत कुछ लिखा है, और मुझे इसकी काफ़ी क़ीमत भी चुकानी पड़ी है. जर्मन का वर्चस्व जिस तरह से सरकारी स्कूलों में स्थापित किया जा रहा था, वह जुड़ा इसी सन्दर्भ से था, परन्तु मुझे यही भ्रम रहा कि यह भारत सरकार की इच्छा से हो रहा है, एक नीतिगत निर्णय है, अतः इस का विरोध करना निरर्थक होगा.

2009 में मैं बर्लिन के साहित्य-सम्मेलन की ग्रीष्म-अकादमी में हिस्सा ले रहा था, जहाँ जर्मनी के अनेकों प्रकाशक तथा गोएथे-संस्थान के लोग भी उपस्थित थे. सब मुझ से पूछ रहे थे कि क्या मैं नवीन किशोर को जानता हूँ. किशोर कोलकाता के सीगल्ल-बुक्स-प्रकाशन के मालिक हैं, और तब तक अपना व्यापार लन्दन से चला रहे थे, क्योंकि वह पुस्तकें अंग्रेज़ी की प्रकाशित करते हैं. सब मुझे बता रहे थे कि वे किशोर से मिलने कोलकाता जा रहे थे. कारण पूछने पर मुझे बताया गया कि आगे से वे जर्मन पुस्तकों के अंग्रेज़ी अनुवाद भारत से ही करवा कर वहीँ प्रकाशित करवाया करेंगे. यह एक बहुत ही चौंका देने वाली सूचना थी. मेरे यह कहने पर कि कोई भी भारतीय जर्मन साहित्य का अनुवाद अंग्रेज़ी में कर पाने में समर्थ नहीं होगा, और वैसे भी अज्ञात जर्मन लेखकों की पुस्तकें पढ़ने में भारतीय दिलचस्पी नहीं लेंगे तो मुझ पर यह कह कर हंसा गया कि हर भारतीय अंग्रेज़ी जानता है, और मैं उन्हें भ्रमित कर रहा हूँ. उनके इस विश्वास की पृष्ठभूमि में भारत में कुछ वर्षों से चल रहा एक अंग्रेज़ी-समर्थक अभियान था. इस बारे में मैं वेबज़ीन “सृजनगाथा” में मई 2010 में प्रकाशित अपने एक बहुचर्चित आलेख में विस्तार से लिख चुका हूँ. यह भी कि मैंने जर्मनी के एक प्रमुख प्रकाशन “ज़ूअरकांप फर्लाग” की प्रमुख पेट्रा हार्ट को एक मेल लिख कर अपना कड़ा विरोध जताया था तो उन्होंने मुझे जवाब में लिखा था कि ये पुस्तकें केवल अंग्रेज़ीभाषी देशों, जैसे अमरीका तथा इंगलैंड के लिए हैं, इन्हें छपवाया भारत में जायेगा, बेचा विदेश में जायेगा, और इनका अनुवाद भी अँगरेज़ करेंगे. पेट्रा एक सीधी-सच्ची महिला हैं और उनके कथन में सत्य है. जर्मन से अंग्रेज़ी में अनूदित, भारत में प्रकाशित पुस्तकें भारत में उपलब्ध नहीं हैं, अंग्रेज़ीभाषी देशों में ही बेचीं जा रही हैं. इसका सीधा सा मतलब है: भारत में पुस्तकें सस्ती छपती हैं, तो इस से प्रकाशकों का मुनाफ़ा कई गुणा बढ़ जाता है. परन्तु इसका चिंताजनक पहलू यह रहा कि इसके साथ ही भारत में, विशेषकर गोएथे संस्थान द्वारा एक हिन्दी -विरोधी अभियान भी शुरू हो गया, जिसके अंतर्गत, एक जर्मनभाषी सांस्कृतिक दूत के शब्दों में: “दिल्ली से बाहर कदम रख कर देखो तो कोई भी हिन्दी  नहीं बोलता.” इस अज्ञान को क्षमा करने का कोई कारण नहीं है, लेकिन इसके मंतव्य को समझते हुए यह  निस्सहाय रोष को जन्म देने वाला एक वक्तव्य है. बहरहाल यह समझ में आने वाली बात है कि वैश्वीकरण के इस युग में कोई कम लागत में किसी दूसरे देश के सस्ते कामगारों का लाभ उठा रहा है, जबकि इस  सांस्कृतिक दूत का कथन था कि वे यहाँ पर लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवा रहे हैं.

लेकिन अभी तक जो एकदम अबोधगम्य रहा है, वह है भारत के संविधान की अवहेलना करते हुए जर्मन को भारत में बढ़ावा देना. इससे क्या मिलने वाला है जर्मनी को, या किसी अन्य जर्मनभाषी देश, अर्थात आस्ट्रिया अथवा स्विट्ज़रलैंड को? उनके लिए भारतीय बच्चों को जर्मन सिखाना इतना अधिक महत्व रखता है कि उन्होंने चुपचाप मानव संसाधन मंत्रालय को नज़रंदाज़ करते हुए गुप-चुप केन्द्रीय विद्यालय संगठन से इकरारनामा कर डाला और उसके बाद प्रति वर्ष लाखों यूरो जर्मन के प्रचार-प्रसार पर खर्च करते रहे. यह तर्क किसी के गले नहीं उतरने वाला कि जर्मन सरकार चाहती है कि भारत के प्रतिभाशाली छात्र इससे जर्मन विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने को आतुर हो जायेंगे. स्कूल में पढ़ी जर्मन बड़े होने के बाद कहाँ बची रह जाती है? मेरे छोटे बेटे ने स्कूल में तीसरी भाषा के तौर पर फ्रेंच ली थी, और अब वह ‘कोमा ताले वू?’ (कैसे हो?) के अलावा और कोई वाक्य नहीं जानता. मेरे ज्येष्ठ पुत्र ने कॉलेज में पढ़ते हुए गोएथे-संस्थान से दो सत्र में जर्मन सीखी थी, २४ वर्ष की आयु में, अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था उसने, लेकिन अब वह “शुभ प्रातः” या “शुभ संध्या” तक ही सिमट कर रह गया है. एक तर्क और है कि अभी तक जर्मन की शिक्षा केवल निजी स्कूलों के बच्चों तक, अर्थात अमीर बच्चों तक ही सीमित रही है, और केंद्रीय विद्यालयों में इसे लगा कर गरीब बच्चों के लिए जर्मन भाषा की शिक्षा उपलब्ध करवाई जा रही है, जो स्वयं में एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी है, 20.11.14 को समाचारपत्रों में निकली एक खबर के अनुसार हमारे सांसद इन विद्यालयों में प्रति वर्ष 15 सीटों का कोटा अपने बच्चों के लिए आरक्षित करवाना चाहते हैं, इसी से मालूम पड़ जाता है कि इन विद्यालयों में पड़ने वाले बच्चे कितने गरीब हैं. न जाने ऐसा कितना अज्ञान इनके आसपास घूमने वाले अंग्रेजीदां हिंदुस्तानियों ने इनके भेजे में भर दिया है कि ये लोग अपनी नाक के आगे ज़्यादा दूर तक नहीं देख पाते.

कुल मिला कर यह एक अचरज में डालने वाला विषय है कि क्या जर्मन का भारतीय स्कूलों में पढ़ाया जाना गोएथे संस्थान या जर्मन दूतावास के या जर्मन सरकार के लिए इतना गंभीर विषय है कि उसके लिए संदिग्ध प्रणाली से एक समझौता करना, पानी की तरह पैसा बहाना तथा जर्मन चांसलर मैडम मेर्केल का भारतीय प्रधानमंत्री से एक महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन के दौरान बात करना अनिवार्य हो गया? किसी भी जर्मन या भारतीय नागरिक के लिए यह गोरखधंधा अबोधगम्य ही रहेगा. सुप्रसिद्ध साहित्यकार ई.एम.फोस्टर ने एक बार कहीं लिखा था: If I had to choose between betraying my country and betraying my friend, I hope I should have the guts to betray my country, अर्थात यदि मेरे सामने अगर दुविधा हो कि मैं देश से गद्दारी करूं या दोस्त से, तो उम्मीद रखता हूँ कि मुझमें देश से गद्दारी करने का साहस होगा.

जर्मनों तथा जर्मनभाषियों से मेरा संपर्क तथा मेरे सम्बन्ध गत 41 वर्षों से हैं, और मैं भली-भांति जानता हूँ कि जर्मेनिक नस्ल दोस्ती निभाने के मामले में मिसालें क़ायम कर सकती है, पर देश से गद्दारी?...मैं सोच भी नहीं सकता था, परन्तु इस प्रकरण में कहीं जा कर यह उक्ति इन के सन्दर्भ में सार्थक प्रतीत होती है. यह तो मैं गत 15 वर्षों से जानता हूँ कि ये लोग भारतीय दोस्तों द्वारा बरगलाये जाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं.

गोएथे-संस्थान दशकों से भारत में निरंकुशता से जर्मन-भारतीय भाषा अनुवाद क्षेत्र में निरीह हिन्दी  पाठकों पर जर्मन साहित्य के घटिया अनुवाद थोप रहा है. विष्णु खरे इसके आधिकारिक अनुवादक रहे हैं, जो खुद मानते हैं कि उनका जर्मन-ज्ञान अल्प है. संस्थान हिन्दी  में उत्तम अनुवाद नहीं होने देता, अगर कोई करता है तो उसे प्रताड़ित करता हैं, उससे उसके प्रकाशक छीन लेता है, अपने दोस्त प्रकाशकों पर थोप देता है, कि इनसे अनुवाद करवाओ. जब उनके अनुवाद ऐसे होते हैं कि हिन्दी  पाठक उन्हें पढ़ते हुए अपना माथा पीट ले, तो भी प्रकाशक के साथ ज़बरदस्ती की जाती है कि उसे वही अनुवाद छापने होंगे. यह उनके अपने साहित्य का अपमान नहीं है तो क्या है? इस विषय पर जर्मनी तथा आस्ट्रिया की दो शोध-पत्रिकाओं में मैं जर्मन भाषा में 14-15 पृष्ठों का एक विस्तृत लेख प्रकाशित कर चुका हूँ. खेद का विषय है कि मुझे इस प्रवृत्ति को कड़े शब्दों में लताड़ना पड़ा है; किसी प्रश्न का कोई उत्तर तो इनके पास नहीं है, लेकिन लोगों से निजी वार्तालापों में इसके अधिकारी मेरे प्रति अपनी आक्रोश जताते रहते हैं. इनकी निरंकुशता अब इस हद तक बढ़ चुकी है कि ये अनधिकृत रूप से देश से संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ मिटा कर जर्मन को स्थापित करने कि लिए दशकों से बने मधुर भारत-जर्मन संबंधों में दरार लाने पर भी उतारू हो गए हैं.

बात जर्मनों के जिगरी दोस्त होने की हो रही थी. 50 वर्ष से अधिक समय से गोएथे-संस्थान का एक जिगरी दोस्त प्रमोद तलगेरी नाम का एक जर्मन प्रोफ़ेसर रहा है. जर्मन भाषा और साहित्य के मामले में यह हमेशा उनका प्रमुख परामर्शदाता रहा है. गत कुछ वर्ष ऐबरहार्ट वेल्लर संस्थान की दक्षिण एशिया-शाखा के भाषा-विभाग के प्रमुख रहे थे. उनके कार्यकाल के दौरान भारतीय विश्वविद्यालयों में जर्मन के वही शिक्षक फले-फूले, जो वेल्लर तथा तलगेरी की युगल-जोड़ी को दंडवत प्रणाम करते रहे. और ये उन्हें बार-बार जर्मनी की सैर करवाते रहे.. लेकिन वेल्लर के ज़माने में भारत में जर्मन भाषा ख़ूब फली-फूली, भले ही इसकी उन्नति के तौर-तरीके संदिग्ध थे. इन्हीं के ज़माने में हिन्दी  के प्रति संस्थान की शत्रुता खुल कर प्रकट हुई. इन्होने देश के कई कोनों में जर्मन सेंटर खुलवाए, अपने पिच्छ्लग्गुओं को वहां नियुक्त कर दिया. एक उदाहरण ही इनकी कार्यविधि को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त होगा. इन्होंने चंडीगढ़ के सेक्टर 34 में एक गोएथे-सेंटर खुलवाया, जिसे पूरे उत्तर भारत में जर्मन भाषा सीखने के लिए एकमात्र सेंटर का दर्ज़ा प्रदान किया गिया, और जिसके बारे में घोषणा की गई कि दिल्ली की इंदिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी की भागीदारी इसके साथ होगी. यहाँ उल्लेखनीय है कि इस निजी-सेंटर के कर्ता-धर्ता निदेशक सिर्फ़ एम.ऐ. हैं, तथा किसी कॉलेज या यूनिवेर्सिटी में शिक्षक की नौकरी नहीं पा सके, क्योंकि यू.जी.सी. की नेट परीक्षा पास नहीं कर सके, परन्तु, यदि हम वेल्लर के शब्दों पर विश्वास करें तो इन्हें – वेल्लर तथा तलगेरी की कृपा से - एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर का दर्ज़ा संभवतः मिल चुका है. यह अनिवार्य है कि जांच की जाये: क्या इंदिरा गाँधी ओपन यूनिवर्सिटी से भी गोएथे-संस्थान ने ऐसा कोई अवैध समझौता किया है?   यह स्वतःस्पष्ट है कि भारत में जर्मन का प्रचार-प्रसार बढ़ाने से वेल्लर की प्रतिष्ठा गोएथे-संस्थान के म्यूनिख मुख्यालय में बढ़ी और तलगेरी की जर्मन दूतावास इत्यादि में. और इस प्रतिष्ठा की दरकार तलगेरी को बहुत बुरी तरह से थी.

गोएथे-संस्थान, जर्मन दूतावास तथा अन्य जर्मनभाषी देशों के दूतावासों के घनिष्ठ मित्र प्रमोद तलगेरी भारत सरकार के अपराधी हैं, अतः इन्हें भारतीय यूनिवर्सिटी सिस्टम से बहिष्कृत किया जा चुका है, और मानव संसाधन मंत्रालय ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के आदेश पर एक यूनिवर्सिटी में इनके भ्रष्टाचार के मामलों को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार की कड़ी नाराज़गी इनके प्रति प्रकट की है. यह कभी हैदराबाद में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के उपकुलपति होते थे, और अब अपने आप को इंडिया इंटरनेशनल मल्टीवेर्सिटी, पुणे, का उपकुलपति बताते हैं. वास्तव में यह “वेर्सिटी” न तो “यूनिवर्सिटी” है, न ही “इंटरनेशनल” है, और न ही यह इसके उपकुलपति हैं. जर्मनों के यह घनिष्ट मित्र दशकों से मक्कारियों और घोटालों के लिए जाने जाते रहे हैं, और स्वयं पर हाल में हुए कुठाराघात से निज़ात पाने के लिए इनके लिए अपने मित्रों के लिए कुछ नया करना अनिवार्य था. यह फ़रवरी 2014 में “अपनी यूनिवर्सिटी” में जर्मन, स्विस तथा आस्ट्रियाई दूतावास के सहयोग से  “भारत में जर्मन के शिक्षण” के सौ वर्ष की जयंती” बड़ी धूमधाम से मनाने वाले थे. मुझे जब यह सूचना स्विस दूतावास की सांस्कृतिक सचिव, ज़ारा बेरनास्कोनी, से मिली कि तीनों दूतावास इंडिया इन्टरनेशनल मल्टीवेर्सिटी में जा कर यह समारोह आयोजित करने जा रहे हैं तो मैंने उन्हें सच्चाई से परिचित करवाया. वह आश्चर्यचकित हुईं और उन्होंने मेरे कथन पर विश्वास नहीं किया. मैनें उन्हें कोरिएर से प्रमाण भेजे तो उन्हें यकीन आया. ये सब प्रमाण इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं. 

तथ्य ये हैं:

वेर्सिटी का पता कहीं पर कुछ है, कहीं कुछ और है, कुछ पता नहीं कि यह कब स्थापित हुई थी, 2000 से 2012 तक कई तारीखें हैं इसमें, वेर्सिटी में छात्रों की संख्या:0, शिक्षकों की संख्या:0, कमरों की संख्या:0, कम्प्यूटरों की संख्या:0, कुछ भी नहीं वहां पर, कुल मिला कर वेर्सिटी के पास6,36,122 रूपये का बजट है, जो उन्हें किसी ने दान में दिये हैं, जिस में से 5,40,000 रूपये कर्मचारियों में बांटे गए हैं. वेर्सिटी को न तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और न ही तकनीकी शिक्षा परिषद से मान्यता प्राप्त है, जो हर सही यूनिवर्सिटी के लिए अनिवार्य होती है. कहीं पर इसे कॉलेज बताया गया है, कहीं एक वाणिज्यिक संस्था, कहीं कल्याणकारी संस्था और कहीं गैर-सरकारी संगठन के रूप में इसका परिचय दिया गया है; विकिपीडिया में इसे एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बताया गया है, जिसे तलगेरी चला रहे हैं. और कि इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी एक ग्रामीण यूनिवर्सिटी है, प्रमोद तलगेरी जिसके “Appily Adhikari” और “Principal” हैं. स्विस राजदूत लीनुस फॉन कास्टेलमूर को भी मैंने आगाह किया कि ऐसे व्यक्तियों से बच कर रहें. यथासंभव जर्मन से जुड़े हर व्यक्ति को देश-विदेश में आगाह किया. समारोह अंततः पुणे यूनिवर्सिटी में संपन्न हुआ, वहां जर्मन राजदूत मिषाएल श्टाइनर ही उपस्थित थे, परन्तु उन्होंने तलगेरी को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद अवश्य दिया. और सबसे अधिक हैरत की बात यह है कि इसी वर्ष अप्रैल में गोएथे-संस्थान ने तलगेरी को भारत तथा जर्मनी के मध्य सांस्कृतिक तथा साहित्यिक संबंधों को असाधारण प्रोत्साहन देने के लिए मेर्क-टैगोर पुरस्कार से सम्मानित किया है. स्पष्ट है कि किस लिए दिया गया है यह सम्मान. कई बार तो पता नहीं चलता कि इनकी निष्ठां भारत के प्रति है या जर्मनी के प्रति. जर्मन दूतावास की 17.11.2009 की एक प्रेस विज्ञप्ति में तलगेरी को जर्मनी के प्रान्त बाडेन व्युर्त्तेमबेर्ग के मुख्यमंत्री ग्युंटर एच. अयोत्तिन्गेर के साथ आये प्रतिनिधिमंडल का सदस्य बताया गया है. यदि जर्मन हमारे देश में अपनी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए दम लगते हैं तो यह एक स्वाभाविक बात है, यह उनका काम है, परन्तु यदि एक भारतीय के षड्यंत्र के कारण वैश्विक स्तर पर एक कूटनीतिक संकट कि स्थिति आन खड़ी हो, जिसमें दो देशों मे सम्बन्ध बिगड़ जाने का खतरा हो तो ऐसे अपराधी को देशद्रोह का दंड मिलना चाहिए.

इससे पहले भी तलगेरी अनगिनत घोटाले कर चुके हैं, जिनका विवरण मैं यहाँ स्थानाभाव के कारण नहीं दूंगा,  परन्तु इनके बारे में मैं बहुत कुछ पहले भी लिख चुका हूँ, इन घोटालों में भारत सरकार तथा अन्य कई संस्थाओं को ठगा गया था. परन्तु यू.पी.ऐ. सरकार के समय में इन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.

संक्षेप में: वेल्लर का काम था भारत में जर्मन सीखने वाले छात्रों में वृद्धि करना, वह उसने किया, तलगेरी का काम था अपने कलंक को सामने न आने देना, वह उसने किया, और म्यूनिख और भारत के गोएथे-संस्थान ने अपनी दोस्ती निभाई, अपनी भाषा तथा साहित्य की क़ीमत पर. मुझे और कोई कारण नज़र नहीं आता इस गौण समस्या को इतना तूल देने का कि जर्मन प्रधानमंत्री को इस में हस्तक्षेप करना पड़े.

वैसे वेल्लर तथा तलगेरी ने मिल कर यदि भारत में जर्मन भाषा सीखने वालों की संख्या में भारी वृद्धि की तो उसमें पैसे का बड़ा हाथ था. शिक्षिका ने अभी पढाना शुरू ही किया और बच्चों ने सीखना तो उन्हें फटाफट जर्मनी की सैर करा दी. स्कूली बच्चों पर इस तरह गैर-क़ानूनी रूप से तीसरी भाषा के रूप में जर्मन थोपना हास्यास्पद तथा अनर्गल है, क्या कोई कल्पना कर सकता है कि भारतीय इस तरह जर्मनी या किसी अन्य यूरोपीय देश में जा कर हिन्दी  या तमिल वहां के स्कूलों पर थोप सकते हैं?

देखा जाये तो केंद्रीय विद्यालय संगठन ने गोएथे-संस्थान से उक्त समझौता कर के अपने देश, अपनी भाषा के प्रति निष्ठा नहीं दिखाई. त्रिभाषी सूत्र का मुख्य उद्देश्य था देश के सभी भाषाई क्षेत्रों को भावनात्मक स्तर पर एक दूसरे से जोड़ना, और यदि छात्र उत्तर में संस्कृत को वरीयता देते हैं तो भी यह उद्देश्य पूरा होता है. आखिरकार जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों में भी तो बच्चे लातिन सीखते हैं. यह एक कसौटी पर कसा तथ्य है कि लातिन सीखने वाले बच्चे यूरोप की किसी अन्य भारोपीय भाषा में आसानी से महारत प्राप्त कर सकते हैं. वही बात संस्कृत में है, जो न  भारत की हर इन्डो-यूरोपीय भाषा से, बल्कि कन्नड़ और तेलुगु जैसी द्रविड़ भाषाओँ से भी छात्रों को जोड़ती है. संस्कृत प्राचीन ग्रीक की माँ है, जो लातिन की माँ है, और जो भारत-जेर्मैनिक, भारत-आर्य, भारत-रोमांस तथा भारत-स्लाव भाषाओँ की माँ है. इस में विरोध काहे का! हर भारोपीय भाषा में संस्कृत के शब्दों की भरमार है, अतः बेहतर होगा कि दोनों सम्बन्धी देश अपने-अपने देश में अपनी-अपनी भाषा के लिए काम करें तथा भाषा के नाम पर एक दूसरे की भावनाओं से खिलवाड़ न करे.

शौकिया तौर पर जर्मन सिखाए जाने देने का भारत सरकार का निर्णय उचित है. जर्मनी को भी चाहिए कि वह वहां संध्याकालीन-कक्षाओं में हिन्दी  पढाये जाने का इंतजाम करें.

इस सन्दर्भ में मुझे अंग्रेज़ी मीडिया की भूमिका हर तरह से संदिग्ध लगती है. बिना मामले की गहराई में गए जर्मन के पक्ष में सम्पादकीय तक लिख मारने में उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है.  

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