भारतीय भाषाओं के पक्ष में अकेला अभियान : श्याम रूद्र पाठक
पिछले कई दिनों से एक समाचार रह रह कर ध्यान खींच रहा था। श्याम रुद्र पाठक नाम का एक व्यक्ति अकेला ही एकसूत्रीय अभियान को ले कर लम्बे समय से धरने पर बैठा हुआ था।
मांग भी अजीब सी थी कि “उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाही भारतीय भाषाओं में होनी
चाहिये”। इस व्यक्ति की बात अधिक गंभारता से समझने की इच्छा
हुई।
उनका ही एक आलेख मुझे प्रवक्ता वेब पत्रिका पर पढ़ने को मिला और कुछ मोटे मोटे
तर्क मैं समझ सका। उदाहरण के लिये “संविधान के अनुच्छेद ३४८ के खंड (१) के उपखंड (क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च
न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। यद्यपि इसी अनुच्छेद के
खंड(२) के तहत किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा
या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् प्राधिकृत
कर सकेगा”।
इस बात का सीधा सा अर्थ निकलता है कि भारतीय
भाषाओं को न्याय की भाषा के रूप में हक दिलाने का रास्ता वस्तुत संविधान संशोधन के रास्ते से ही निकलता है। इस संदर्भ पर पाठक अपने लेख
में आगे अपनी मांग को स्पष्ट करते हैं कि “संविधान के
अनुच्छेद ३४८ के खंड (१) में
संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक
उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम-से-कम किसी एक भारतीय भाषा
में होंगी।
इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल,
कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़,
छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में
अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों
में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना
चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत
किया जाना चाहिए”।
इस मांग को जिस प्रमुख तर्क के साथ सामने
रखा गया है वह है कि “किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि
अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में बोल सके, चाहे वह
वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद ३४८ की इस व्यवस्था
के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष सत्रह उच्च न्यायालयों एवं
सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सन्तानवे प्रतिशत (९७%) नागरिकों से
प्रकारान्तर से छीन लिया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं”।
मांग सर्वधा उचित है तथा इस दिशा में नीति-निर्धारकों का ध्यान खींचा
जाना आवश्यक है।
बोलने वाली बकरी की कथा
मुल्ला नसीरुद्दीन की बोलने वाली बकरी की कथा सर्वव्यापी है। बाजार में
सबसे मंहगी बकरी बिक रही थी। राजा पहुँच गया विशेषतायें जानने। मुल्ला ने कहा कि
बोलती है मेरी बकरी हुजूर और वह भी आदमी की भाषा में। बुलवाया गया बकरी से। मुल्ला
ने सवाल किया कि बता यहाँ बकरी कौन? उत्तर मिला “मैं…” अगला सवाल कि बता दूध यहाँ कौन देता है तो फिर वही उत्तर “मैं….”।
असल में यह बोली-भाषा का झगड़ा सुलझता ही
नहीं चूंकि सवाल भी सुविधा वाले हैं और जवाब भी तय से हैं। यहाँ गधा कौन? तो इसका उत्तर भी यही आता “मैं….” लेकिन भाषा का खेल चतुराई से खेला गया है इस लिये इस बकरी को लाखों की
कीमत मे बेचा जाना तय है। भारतीय भाषाओं के साथ भी यही दिक्कत है। इसकी नियती तय
कर दी गयी है, इसके सवाल तय हैं कि विज्ञान की अच्छी किताबें
कहाँ उपलब्ध नहीं हो सकतीं? उत्तर है “भारतीय
भाषाओं में”; कार्यालय में किस भाषा में काम करने में व्यावहारिक कठिनाई है? उत्तर है “भारतीय
भाषाओं में”; किस भाषा में न्याय पाना संभव नहीं है? उत्तर है भारतीय भाषाओं में।
भारत विविधताओं का देश है। हमें विविधता को मान्यता देनी ही होगी और इसी
में हमारी एकता सन्निहित है। लाखों रुपये की फीस खसोंट कर पूंजीपती होते जा रहे
वकीलों के लिये भाषा की यह पाबंदी एक सुविधा है।
एक आम आदमी अपनी भाषा में अपने ऊपर घटे अपराध अथवा आरोप की बेहतर पैरवी कर सकता है अथवा माननीय अदालतों में हो
रही उस जिरह को समझ सकता है जो अंतत: उसकी ही नियति का फैसला करने जा रही हैं।
न्याय को तो आमजन की समझ तक पहुँचना ही चाहिये।
व्यवस्था पर उंगली उठाने में हम
लोग अग्रणी पंक्ति में खड़े रहते हैं लेकिन अपने लोकतंत्र के संवर्धन के लिये हमारे
पास न तो कोई योजना है न ही सोच। लोकतंत्र देखते देख बूढ़ा हो गया और हम कहाँ से
कहाँ पहुँच गये?
शिक्षा, न्याय और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से हमारी अवांछित दूरी इस भाषा
ने ही बना दी है। ये तीनों ही अधिकार अब आम आदमी की पकड़ और उसके जेब से बाहर की
बात हो गये हैं।
चलिये हम झंडा नहीं पकड़ सकते हैं लेकिन इन आवश्यक विषयों पर अपना समर्थन तो
व्यक्त कर ही सकते हैं कि वो भी नहीं ?
श्री श्याम रुद्र पाठक को उनके साहस
और भारतीय भाषा के अधिकारों की इस लडाई के लिये हार्दिक साधुवाद। कल उन्हें
सत्याग्रह करने के अपराध में दिल्ली पुलिस नें धारा १०७/१०५ के तहत गिरफ्तार कर लिया है। कहते हैं कि नदी का रास्ता कोई नहीं रोक सकता
अत: श्री पाठक की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए अपने आलेख के उपसंहार में इतना ही
कहना चाहता हूँ कि भारतीय भाषाओं के हक की यह लडाई किसी अकेले व्यक्ति की नहीं है।
इस मशाल की लपट हर भारतवासी तक फैलाना ही होगा।
• राजीव रंजन प्रसाद, प्रवक्ता डॉट कॉम