संघ लोक सेवा आयोग (संलोसेआ ) ने वर्ष 2011 से
अपनी परीक्षा पद्धति में जो व्यापक फेरबदल किया था, उसका
भारी विरोध होना जरा भी अप्रत्याशित नहीं है। प्रारंभिक परीक्षा की पुरानी पद्धति
में सामान्य ज्ञान और एक वैकल्पिक विषय का पर्चा हुआ करता था, अब इस वैकल्पिक विषय के पर्चे को हटाकर 'नागरिक सेवा
योग्यता परीक्षा” जिसे अंग्रेजी में सिविल सर्विसेज एप्टिट्यूड टेस्ट" कहा
जाता यानी 'सीसैट" का पर्चा जोड़ दिया गया है। 'सीसैट" के अनिवार्य प्रश्नों की श्रृंखला में पंद्रह ऐसे प्रश्न भी
शामिल कर दिए गए हैं, जिनका अनुवाद बेहद कठिन हिन्दी में होता है। इन सभी प्रश्नों के हिन्दी अनुवाद को समझ पाना इसलिए भी कठिन होता है,
क्योंकि इन सभी प्रश्नों को पहले मूल अंग्रेजी में ही तैयार किया
जाता है और फिर उनका भाषायी अनुवाद नितांत निर्दयी हिन्दी में अभ्यर्थियों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता
है।
भारी विरोध के बाद मोदी सरकार इस
प्रकरण पर सक्रिय हुई है। चूंकि यह मसला पूर्णत: तकनीकी होने से कार्मिक मंत्रालय
इसमें सीधे-सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता, इसलिए कार्मिक
मंत्रालय ने संघ लोक सेवा आयोग से परीक्षा
पद्धति का अध्ययन-विवेचन करने को कहा है।
कार्मिक मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने भी 'सीसैट"
परीक्षा पद्धति से असहमति जताते हुए कहा
है कि इससे हिन्दी भाषी छात्रों का नुकसान हो रहा है। उन्होंने पाठ्यक्रम व
परीक्षा पद्धति में सुस्पष्टता नहीं आने
तक संघ लोक सेवा आयोग से फिलहाल प्रारंभिक
परीक्षा स्थगित करने की बात भी कही है। जाहिर है, बदलाव
जरूरी है। समन्वयवादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो उचित और आदर्श स्थिति यही हो सकती
है कि अंग्रेजी का आतंक शिथिल किया जाए।
'सीसैट" के पर्चे
में कहने को तो पठन-आधारित अवबोध, लोगों के बीच अपना सिक्का
जमाने की कला, तर्कपूर्ण सोच, विषय
विश्लेषण, बुद्धि कौशल, संवाद कुशलता,
निर्णय क्षमता, मानसिक दक्षता, बुनियादी गणित और अंग्रेजी अवबोध के प्रश्न शामिल किए गए हैं, लेकिन इसकी असलियत कुछ और ही है। फोरी तौर पर सर्वथा निर्दोष और
प्रभावशाली प्रतीत होने वाला 'सीसैट" का यह पर्चा
गैर-अंग्रेजी माध्यम के प्रत्याशियों को सिरे से खदेड़ देने के लिए ही लाया गया है।
तर्क अन्यथा नहीं है कि वैकल्पिक विषय
के पर्चे से सिर्फ तोतारटंतता की क्षमता का ही पता चलता है, जबकि
प्रशासनिक कार्यों की पूर्णता के लिए वांछित कार्यकुशलता का प्रमाण अलग ही होता
है। यह वांछित कार्यकुशलता भाषाई ज्ञान से सर्वथा भिन्न् होती है। जाहिर है कि
प्रशासनिक कार्यकुशलता का कहीं कोई एक सर्वथा सर्वमान्य समाधान उपलब्ध नहीं होता
है। भिन्न्-भिन्न् राज्यों के देहात और देहाती-समाज की भाषाएं-पृष्ठभूमि एक समान
नहीं हैं। अत: गैर-अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा पाए विद्यार्थी 'सीसैट" में असफल हो जाते हैं। यह प्रवृत्ति सन् 2011 से कुछ भयंकर विस्तार पाती जा रही है।
परीक्षा पद्धति की इसी विसंगति के
विरोध में भारतीय भाषा आंदोलन के बैनर तले भारतीय भाषाप्रेमी अप्रैल से धरना दे
रहे हैं। हाल ही में वर्ष 2013 के परीक्षा परिणाम घोषित हुए हैं। आंकड़े इस बात की
पुष्टि करते हैं कि हिन्दी माध्यम से पढ़कर
आने वाले अभ्यर्थियों की सफलता शरारतन और इरादतन कितनी सीमित कर दी गई है। घोर
आश्चर्य होता है कि उनकी सफलता की दर अब तक के सबसे निम्न स्तर पर आकर महज दो प्रतिशत
ही रह गई है।
वर्ष 2011 में जारी किए गए 'सीसैट" के बाद से गैर-अंग्रेजी माध्यम के अभ्यर्थियों की सफलता का
ग्राफ लगातार गिर रहा है। वर्ष 2010 में हिन्दी माध्यम से प्रारंभिक परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले
प्रत्याशी 4,156 थे, वहीं वर्ष 2011
में उनकी संख्या घटकर महज 1,682 पर आ गई। वर्ष
2010 से 2011 तक तेलुगु माध्यम से
उत्तीर्ण होने वाले छात्र-छात्राएं भी 69 प्रतिशत से घटकर 29 प्रतिशत रह गए, तमिल वाले 38
से 14 और कन्न्ड़ वाले 38 से घटकर सिर्फ पांच प्रतिशत पर
सिमट गए। इस असंतुलन के लिए सिर्फ 'सीसैट" की ही
जिम्मेदारी बनती है। 'सीसैट" के बाद से ही एक और खबर यह
भी निकलकर आ रही है कि देहाती छात्रों के मुकाबले शहरी छात्रों का वर्चस्व संघ लोक
सेवा आयोग के नतीजों में तेजी से बढ़ रहा
है। क्या इसे देशी भाषाओं के विरुद्ध अंग्रेजी भाषा की कुटिल साजिश नहीं समझा जाना
चाहिए? पूछा जा सकता है कि क्यों प्रश्न-पत्र पहले अंग्रेजी
में तैयार किए जाते हैं और फिर हिन्दी में पढ़े जाने वाले वे ही प्रश्न अंग्रेजी से
हिन्दी में अनूदित किए जाते हैं? जो घटिया अनुवाद का बेहतरीन
नमूना हैं, वह भी ऐसी भ्रष्ट और अस्पष्ट हिन्दी में, जो आम समझ से कोसों
दूर हो?
अनुवाद की साजिश के साथ ही क्या यहां संघ
लोक सेवा आयोग की भर्ती परीक्षा में
अंग्रेजी का आतंक कायम रखने की भी साजिश नजर नहीं आती है? यह
भाषायी आतंक, अन्याय है। इसके विरोध में जो धरना आदि दिल्ली
में जारी है, उसका पुरजोर समर्थन किया जाना चाहिए। हिन्दी आंदोलनकारियों की यह मांग कैसे अनुचित कही जा
सकती है कि लोकसेवा आयोग की सभी परीक्षाएं तथा न्यायालयों का कामकाज हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में होना चाहिए? अंग्रेजी का आतंक क्यों नहीं समाप्त होना चाहिए? साथ
ही हिन्दीप्रेमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आंदोलनकारी हिन्दीभाषी छात्रों
की चिठ्ठी का जवाब अंग्रेजी में देकर क्या साबित करना चाहा है?
· राजकुमार कुम्भज
(लेखक पत्रकार व
स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
साभार- दैनिक नईदुनिया से
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