अनुवाद

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

अंग्रेजीपरस्तों का कोरा झूठ: अंग्रेजी भारत की सम्पर्क भाषा है

जनसत्ता 6 अगस्त, 2014 : संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं को लेकर चल रहे आंदोलन ने एक बार फिर अंग्रेजी  समर्थकों को बुरी तरह परेशान कर दिया है, उन्हें अपनी भाषा का वर्चस्व हर बार की तरह इस बार फिर से खतरे में दीखने लगा है, खासकर अर्णव गोस्वामी जैसे लोग तो पगलाए-घबराए से लग रहे हैं। उन्होंने पिछले सप्ताह अपने अंग्रेजी  चैनल पर आए एक कन्नड़भाषी को- जो अंग्रेजी  बढ़िया जानते हैं मगर इस आंदोलन के समर्थक हैं- तंग आकर पूछा कि कहीं आप किसी पार्टी से संबद्ध तो नहीं हैं, और जब उन सज्जन ने निराश करते हुए कहा कि कतई नहीं, तो अर्णवजी बहुत हताश हुए, क्योंकि उन सज्जन पर इस मामले का राजनीतिकरण करने का चालू आरोप लगाना उनके लिए मुश्किल हो गया। 

वे इस बात से डर गए कि फिर तो इस कन्नड़ की बात को उनके श्रोता विश्वसनीय मान सकते हैं, तो वे तुरंत एक अंग्रेजी  समर्थक की तरफ मुड़ गए और उस कन्नड़भाषी को आगे बोलने नहीं दिया, जैसा कि अपनी पसंद की बात न करने वालों के साथ वे अक्सर किया करते हैं। अर्णवजी और तमाम ऐसे सज्जन बार-बार यह याद दिला रहे हैं कि अंग्रेजी  ही देश की संपर्क भाषा है और उसके बगैर देश का काम नहीं चल सकता और अंग्रेजी  के प्रति नफरत का वातावरण बनाया गया तो यह देश टूट जाएगा। यह अलग बात है कि किसी ने ऐसी कोई बात उनके चैनल पर नहीं कही। 

खासतौर पर नब्बे के दशक में बाजारीकरण की शुरुआत के बाद से अंग्रेजी  का आकर्षण तेजी से बढ़ा है और हर कोई अंग्रेजी  के पीछे पड़ा है कि जैसे अंग्रेजी  रोजगार और जीवन में सफलता की पक्की गारंटी है। अब गली-गली मोहल्ले-मोहल्ले गरीबों के लिए भी अंग्रेजी  स्कूल खुल गए हैं, लेकिन न तो सरकारी स्कूल और न आशा के नए द्वीप बने ये निजी  स्कूल अंग्रेजी  के प्रचार-प्रसार में कोई खास योगदान दे रहे हैं। 2007 में सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के अंग्रेजी  ज्ञान का जो सर्वे हुआ था, उसमें बताया था कि ये बच्चे दूसरी कक्षा की अंग्रेजी  पाठ्यपुस्तक भी बमुश्किल पढ़ पाते हैं। 2010 में पुन: हुआ ऐसा ही सर्वे बताता है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले आधे छात्र दूसरी कक्षा की अंग्रेजी  पाठ्यपुस्तक भी नहीं पढ़ पाते। 

चलिए थोड़ी देर के लिए सरकारी स्कूल तो मान लिया कि सरकारी स्कूल ही हैं और उनका अब कुछ नहीं हो सकता, शायद इसीलिए गरीब तबका भी अगर संभव होता है तो अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं भेजता। मगर जिन निजी  स्कूलों में भेजता है वहां भी चौंसठ प्रतिशत बच्चों की ठीक यही हालत है। तो गरीब वर्गों तक अंगेरजी की पहुंच जरूर हो रही है मगर इस तरह जिसका कोई मतलब नहीं है, जिससे उन बच्चों के अभिभावकों के वे सपने पूरे नहीं हो सकते, जिसके लिए उन्होंने इन स्कूलों में दाखिल करवाया है। इसके अलावा अंग्रेजी , अंग्रेजी  में भी बहुत बड़ा जातिभेद है। किसने कहां अंग्रेजी  पढ़ी, यह एक बड़ा मुद््दा है। इसे समझने में शायद अभी वक्त लगेगा।

इसके बावजूद अंग्रेजी  को देश की संपर्क भाषा घोषित करने वाले अंग्रेजी  के प्रभाव के बारे में तरह-तरह के बड़े-बड़े दावे पेश करते रहे हैं। उधर राष्ट्रीय ज्ञान आयोग- जो अंग्रेजी दाओं से भरा हुआ है, उसने 2006-2009 की अपनी रिपोर्ट में यह आंखें खोल देने वाली बात कही थी कि अब भी देश के एक प्रतिशत से ज्यादा लोग अंग्रेजी  का उपयोग दूसरी भाषा के रूप में भी नहीं करते, पहली भाषा में उसे बरतने की बात तो भूल ही जाएं। अगर यह गलत है तो या तो आयोग झूठा है, लेकिन तब क्या जनगणना के आंकड़े भी झूठे हैं? 2001 की जनगणना (अभी भाषा संबंधी रिपोर्ट 2011 की नहीं आई है) बताती है कि भारत में कुल 2,26,449 लोग प्रथम भाषा के रूप में अंग्रेजी  का प्रयोग करते हैं। 

सवा अरब की आबादी में सवा दो लाख लोगों की भाषाई हैसियत क्या है? खरिया और कोंध भाषा- जिनके बारे में ज्यादातर लोग कुछ नहीं जानते- भी इतने ही लोग बोलते हैं जितने लोग भारत में अंग्रेजी  को अपनी मातृभाषा मानते हैं। इससे पहले 1981 की जनगणना में भी बताया गया था कि देश के कुल 2,02,400 लोग ही प्रथम भाषा के रूप में अंग्रेजी  बोलते हैं यानी आबादी के अनुपात में महज 0.03 प्रतिशत लोग। 

ये आंकड़े किसी हिन्दी वादी द्वारा पैदा नहीं किए गए हैं, न किसी अंग्रेजी -विरोधी ने ये गढ़े हैं, लेकिन अंग्रेजी  जानने और सत्ता का सुख लूटते रहने का दंभ पालने वाले इस क्रूर सच्चाई को नहीं समझना चाहते। 2001 की जनगणना के कथित आंकड़ों के आधार पर- जो आंकड़े जनसंख्या आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हुए- इनका दावा है कि भारत में हिन्दी  के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा अंग्रेजी  है जिसने बांग्ला सहित तमाम भारतीय भाषाओं को पीछे छोड़ दिया है। 

इस हास्यास्पद दावे का आधार वही कथित अनुपलब्ध रिपोर्ट है जो यह बताती है कि करीब सवा दो लाख लोगों की मातृभाषा ही अंग्रेजी  है लेकिन 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा अंग्रेजी  है और तीसरी भाषा के तौर पर इसे 3 करोड़ 12 लाख लोग इस्तेमाल करते हैं।

मगर लाख लोगों की प्रथम भाषा अचानक 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा कैसे हो सकती है, यह आश्चर्य का विषय है और अगर ऐसा कोई दावा सचमुच ही 2001 की जनगणना रिपोर्ट करती है तो इसका बड़ा आधार हमारी हीनता-ग्रंथि ही हो सकती है जो हम तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों को बाध्य करती है कि वे दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी  को दर्ज करवा कर देश के संभ्रातों में शामिल होने का गौरव मन ही मन लूटें। दूसरी भारतीय भाषाओं को सीखने के प्रति हमारी उदासीनता भी- खासकर उन लोगों में जो जीवन भर अपने भाषा-क्षेत्र में ही तमाम कारणों से सीमित रह जाते हैं- इसका कारण हो सकती है। चूंकि स्कूल-स्तर पर लोगों ने अक्सर किसी भारतीय भाषा के बजाय टूटी-फूटी अंग्रेजी  ही पढ़ी होती है, इसलिए उसे ही वे दूसरी भाषा के रूप में दर्ज करवा देते होंगे, जबकि अंग्रेजी  का उनका ज्ञान हास्यास्पद स्तर का हो सकता है। मैं अपने अनुभवों से जानता हूं कि चालीस साल पहले भी जिन छात्र-छात्राओं ने स्कूल-कॉलेज स्तर पर अंग्रेजी  पढ़ी है, उनमें से ज्यादातर का इस भाषा का ज्ञान दरअसल कितना सतही है (कॉलेज में मेरे अंग्रेजी  के अध्यापक खुलेआम कुंजी लेकर कक्षा में आते थे और उसमें से प्रश्नोत्तर लिखवा देते थे और उनका काम खत्म हो जाता था)। अंग्रेजी  बोलने-लिखने वालों के दावों को लेकर इंगलिश इंडियाज नेक्स्ट पुस्तिका के लेखक डेविड ग्रेडोल ने इस बारे में उपलब्ध विभिन्न आंकड़ों का हवाला देते हुए और इन सबकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि दरअसल कोई निश्चित रूप से नहीं जानता कि भारत में कितने लोग अंग्रेजी  जानते हैं। 

फिर जो किसी भारतीय भाषा को अपनी मातृभाषा बताते हैं और जो अंग्रेजी  को अपनी दूसरी या तीसरी भाषा बताते हैं इनकी आपस में तुलना कैसे की जा सकती है? दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी  या किसी और भाषा का ज्ञान प्रथम भाषा के रूप में किसी अन्य भाषा के ज्ञान से तुलनीय कैसे हो सकता है? यह कैसे कहा जा सकता है कि चूंकि बांग्ला जानने वाले लोगों की कुल संख्या (दूसरी-तीसरी भाषा के रूप में इसे इस्तेमाल करने वालों सहित) अंग्रेजी  जानने वालों से कम है इसलिए बांग्ला अंग्रेजी  से पिछड़ गई है, जबकि बांग्ला को प्रथम भाषा के रूप में इस्तेमाल करने वाले लोग आठ करोड़ तैंतीस लाख हैं और अंग्रेजी  का प्रथम भाषा के रूप मे प्रयोग करने वाले चौथाई करोड़ भी नहीं हैं। 

अब आते हैं इस बात पर कि भारत की संपर्क भाषा दरअसल क्या है- अंग्रेजी  है या हिन्दी ? अगर भारत के लोगों के आपसी संपर्क का अर्थ यहां आइएएस-आइपीएस अधिकारियों, उच्च और उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों, अकादमिशियनों, कॉरपोरेट घरानों के लोगों-प्रतिनिधियों, उच्च और उच्चमध्यवर्गियों का आपसी संपर्क होना ही है, आम जनता का आपसी संपर्क होना नहीं है तो निश्चित रूप से अंग्रेजी  ही भारत की संपर्क भाषा है।

अगर भारत को भारत यहां के किसान, मजदूर, अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित, पिछड़े और स्त्रियां बनाती हैं, यहां कि भाषाएं-बोलियां बोलने वाले लोग बनाते हैं तो संपर्क भाषा अंग्रेजी  कतई नहीं हो सकती।  वे आंकड़े जो अंग्रेजी को हिन्दी  के बाद दूसरी बड़ी भाषा घोषित करते हैं, वे ही यह भी बताते हैं कि हिन्दी को प्रथम भाषा के रूप में बरतने वाले 42 करोड़ लोग (अंग्रेजी  को बरतने वाले सवा दो लाख) हैं तथा दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में बरतने वाले बाकी तेरह करोड़ से अधिक लोग हैं यानी कुल 55.14 करोड़ लोग हिन्दी  बोलते-लिखते-समझते हैं। अगर दूसरे जटिल सांस्कृतिक-भाषाई उलझनों को फिलहाल छोड़ दिया जाए तो उर्दू बोलने वाले भी तो लिपि को छोड़ कर वही हिन्दी  या वही हिंदुस्तानी बोलते-बरतते हैं जो बाकी हिन्दी भाषी कहलाने वाले लोग बोलते-बरतते हैं। ऐसे लोग जो उर्दू को अपनी प्रथम भाषा बताते हैं उनकी तादाद भी कम नहीं है- 5 करोड़ 15 लाख है। 

यानी व्यावहारिक रूप से हिन्दी या हिंदुस्तानी जानने वाले लोग देश में 2001 तक साठ करोड़ से भी ज्यादा थे, जिनमें उर्दू को दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में बरतने वालों की संख्या शामिल नहीं है क्योंकि इसके आंकड़ों के बारे में हमें नहीं मालूम; यानी देश की आधी आबादी हिन्दी  लिखती-बोलती-समझती है। अगर अंग्रेजी  के विवादास्पद दावे को थोड़ी देर को सही भी मान लें तो उससे चार गुना ज्यादा लोग हिन्दी या कहें हिंदुस्तानी जानते-समझते हैं। लेकिन संपर्क भाषा फिर भी अंग्रेजी  ही है, यह कितना बड़ा मजाक है?

हिन्दी  या भारतीय भाषाओं की पचास दूसरी समस्याएं हैं (क्या अंग्रेजी  की नहीं हैं?) और निस्संदेह हिन्दी  के मुकाबले अंग्रेजी  बोलने-समझने-पढ़ने वाले दुनिया भर में बहुत ज्यादा हैं, मगर भारत की संपर्क  भाषा अंग्रेजी  किसी तौर पर नहीं है, भ्रम चाहे ऐसा होता हो। निश्चित रूप से अंग्रेजी  को इस देश की नौकरशाही-न्यायप्रणाली-कॉरपोरेट जगत का अकुंठ समर्थन हासिल है जिसमें राजनीतिकों का भी एक बड़ा और प्रभावशाली तबका शामिल है। उसकी सत्ता का आधारस्तंभ अंग्रेजी  है, अगर वह आधार ही ढह गया तो आभिजात्य का विशाल किला भरभरा कर गिर जाएगा। 

वैसे अंग्रेजीदांओं ने यह खबर भी सुनी होगी कि तमिलनाडु- जहां आज भी हिन्दी -विरोध की राजनीति खेली जाती है- अंग्रेजी दां निजी  स्कूलों में हिन्दी  पढ़ाई जाती है ताकि बेहतर सरकारी और निजी सेवाएं हासिल करने के लिए देश के किसी भी हिस्से में कोई दिक्कत न आए। यहां तक कि हिन्दी -विरोधी द्रमुक तमिलनाडु के हिन्दी भाषियों के वोट हासिल करने के लिए पर्चे हिन्दी  में छापती है। बहरहाल, हिन्दी  एक ऐसा यथार्थ है जिसकी उपेक्षा करना अंग्रेजी  वालों को ही भारी पड़ सकता है। थोड़ा-थोड़ा शायद यह अरणब बाबू भी समझते हैं, तभी अपने कार्यक्रम में वे हिन्दी  भी अक्सर आजकल बोलने लगे हैं।

सौजन्य: जनसत्ता 

2 टिप्‍पणियां:

  1. I have no cribs with any language, but I must admit the 3 language formula was good in hindsight - it made us all multi-linguals & capable of grasping multi-culturalism better than the western nations which didn't do so.

    I have a serious issue with language imperialism that hindi-walas are now acquiring from English walas. The need of the hour is to promote Hindi as a friendly, national & useful language, not to showcase it as an enemy of other languages, or English. This conflict is not going to contribute in any positive way to Indians, government or even hindi speakers.

    Cease & desist from such attacks. Focus instead on how to make Hindi the rashtrabhasha, not rajbhasha.

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