आज भी देश की 98 % जनता अँग्रेज़ी नहीं समझ पाती है ! ग्रामीण व आदिवासियों के लिए तो यह एक अजूबे से कम नहीं है ! जब हिन्दी कदम-दर-कदम भारत की संपर्क भाषा के रूप स्थापित हो चुकी है. बड़ी-छोटी निजी कंपनियों और फर्मों/संस्थाओं द्वारा बेचे जाने वाले हर उत्पाद/सेवा के डिब्बे/पैक आदि पर उत्पाद/सेवा का नाम, मूल्य, निर्माण-अवसान तिथि, उत्पाद सेवा के अन्य सभी विवरण (पोषक तत्व, घटक पदार्थ, इस्तेमाल का तरीका आदि) सबकुछ आज केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध करवाया जाता है जिन्हें पढ़ने-सुनने-समझने के लिए सहायक मिलना चाहिए अन्यथा अंग्रेजी के नाम पर पूरे देश में ग्राहकों को ठगा जा रहा है.
कुछ उदाहरण जहाँ-२ अंग्रेजी के कारण पर ग्राहकों/उपभोक्ताओं को ठगा जा रहा है:
१. सभी प्रकार की उपभोक्ता वस्तुएँ: साबुन, तेल, नमकीन, बिस्किट, चॉकलेट, शैम्पू आदि-आदि.
२. सभी निजी बीमा उत्पाद- जीवन बीमा, स्वास्थ्य बीमा, वाहन बीमा, गृह बीमा आदि.
३. सभी अन्य वित्तीय उत्पाद- म्युचुअल फंड, निवेश कोष, स्वर्ण ऋण, अन्य स्थायी निक्षेप योजनाएँ, निवेश योजनाएँ, पेंशन कोष आदि.
४. सभी चिकित्सा उत्पाद एवं औषधियाँ
५. सभी इलेक्ट्रौनिक उपकरणों के मैनुअल/हस्त-पुस्तिकाएं, गारंटी-वारंटी कार्ड, इस्तेमाल सम्बन्धी निर्देश.
६. शेयर बाजार सम्बन्धी सब जानकारी एवं शेयरों/सूचीबद्ध कंपनियों की सभी जानकारी केवल अंग्रेजी में मिलती है, निवेशकों के साथ छल का मूलभूत कारण अंग्रेजी है.
उत्पाद/सेवा के डिब्बे/पैक/दस्तावेज/आवेदन फार्म आदि पर सभी जानकारी अपनी भाषा में हो तो काफी समस्याएं कम हो सकती हैं लेकिन विडम्बना है कि भारत सरकार ने देश में उपभोक्ता उत्पाद –सेवा देने वाली कंपनियों और फर्मों/संस्थाओं के कामकाज में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के प्राथमिकता के आधार पर प्रयोग के लिए अनिवार्य कानून नहीं बनाया.
अंग्रेजी कठिन भाषा है, जिसे अच्छी तरह सीखने में समय लगता है। जो लोग अंग्रेजी माध्यम से पढ़े-लिखे हैं या दूसरे क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, उन्हें उपभोक्ता उत्पाद –सेवा की यथेष्ट जानकारी अपनी भाषा में मिलने लगे तो उसमें बुरे क्या है। भारत को छोड़ दिया जाए तो दुनिया के सभी विकसित देशों (जापान, चीन, दुबई, अरब, फ्रांस, इंग्लैण्ड, बांग्लादेश, सिंगापुर, जर्मनी, जिनमें से कई भारत के महानगरों से भी छोटे हैं) में उपभोक्ता उत्पाद –सेवा की यथेष्ट जानकारी समबन्धित देश की भाषा में देना-लिखना-छापना अनिवार्य है.
देश की करीब ६० प्रतिशत जनता हिन्दी भाषी है तथा शेष आबादी हिन्दी समझ सकती है और सीखना चाहे तो 2-3 वर्षो में भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकती है क्योंकि उसके चारों तरफ का वातावरण (बातचीत, फिल्में, टी.वी. आदि) हिन्दी सीखने में सहायक है। गैर-हिन्दी भाषी अधिसंख्य लोगों की मातृभाषा का आधार भी हिन्दी की तरह संस्कृत है अत: वे कम समय में हिन्दी पर अधिकार पा सकते हैं। रही बात इंटरनेट की तो इस माध्यम में तुरंत अनुवाद की सुविधा से अनुवाद की समस्या नहीं के बराबर होगी।
पर देशभर में फ़ैल रहे निजी कोर्पोरेट्स ने देशी भाषाओं का सफ़ाया करने का बीड़ा उठा रखा है. इनका हर कामकाज सिर्फ अंग्रेजी में ही किया जाता है, वेबसाइट आदि सबकुछ केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं. इनकी सेवाएँ अथवा उत्पाद आप अपनी जोखिम पर खरीदते हैं क्योंकि इनके पास में हिन्दी, तमिल, कन्नड़, मराठी, गुजराती आदि भारत की अपनी भाषाओं का कोई वजूद नहीं हैं. इन भाषाओं का इस्तेमाल केवल ग्राहकों को लुभाने के लिए टीवी आदि के विज्ञापनों के लिए किया जाता है और उसमें भी अंग्रेजी शब्दों को जबरन घुसाया जाता है, हिन्दी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ अछूत भाषाओं की तरह गैर-जरूरी रूप से मजबूरी में इस्तेमाल की जाती हैं. यहाँ यह कह देना जरूरी है कि देशभर में हर राज्य में अंग्रेजी को थोपने का काम जारी है. और भारतीय भाषाओं का तो अस्तित्व संकट में है ही उपभोक्ता को भी अंग्रेजी के नाम पर छला जा रहा है.
भारत में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को 'अंग्रेजी' के नीचे क्यों रखा जा रहा है? भारत की भाषाओं को दबाकर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है?
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